जब से हिन्दी सबके लिए ब्लॉग शुरू हुआ है तब से इतना लंबा अंतराल हावी नहीं हुआ। मैं खुद हैरान-परेशान हूँ कि क्यों टंकण करने वाली दो अंगुलियाँ कुछ भी लिखने / टंकित करने के विचार भर से ही दुखने लगती हैं! क्यों विभ्रम जैसी मनोदशा है? क्यों, कुछ भी लिखने के ख्याल से मन में अजीब सी गहरी उदासी भर जाती है? विचार आते हैं और कभी-कभी बड़ी तेजी से और बेहिसाब आते हैं मगर बारिश होने से पहले ही बादल छट जाते हैं। तपती धूप में तन-मन जलने लगता है। समंदर के किनारे रहते हुए भी लू के थपेड़े झुलसाते हैं?
पता नहीं मैं हिंदी को लेकर परेशान हूँ या मेरी परेशानी का कारण हिंदी है? पता नहीं मैं पढ़ाने को लेकर परेशान हूँ या प्रशासन को लेकर परेशान हूँ। कभी-कभी लगता है कि परेशान रहना, परेशानी के साथ रहना, परेशानों और महा परेशानों के बीच रहकर खुद को परेशान रखना और फिर इस सबसे परेशान होकर खुद को परेशान महसूस करना ही मेरी नियति बन गई है। फिर सोचता हूँ अपनी परेशानी को लेकर घुटते रहने की कोई पक्की वज़ह भी तो होनी चाहिए!
सोचने से कान, नाक और फिर गले में दर्द होने लगता है। फिर यह दर्द माथे में और फिर पूरे सिर में हो जाता है। दर्द की दवाए बेअसर हो गई लगती हैं। अच्छी नींद आ जाती है तो सब ठीक हो जाता है। नाक के ऑपरेशन के बाद संवेदनशीलता बहुत बढ़ गई है। अब बदबू ज्यादा महसूस होती है। बाग-बगीचे तो दिखाई नहीं पड़ते। गटर के ढक्कन और उनसे बहता काला-नीला सा पानी वगैरा बहुत दिखाई देते हैं। स्कूटर चलाते समय बहुत सावधान रहना पड़ता है। इस चक्कर में गटर ही गटर दिखाई देते हैं। गटर और गड्ढों से बचकर चलने की सावधानी में कई बार आदमी पास से गुजर जाता है।
फिर अंतराल आता है और अंतर्द्वंद्व से फलने फूलने लगता है।