एक
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।
दो
अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार,
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार।
आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं,
रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार ।
रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें,
इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले—बहार ।
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं,
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार ।
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके—जुर्म हैं,
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार ,
हालते—इन्सान पर बरहम न हों अहले—वतन,
वो कहीं से ज़िन्दगी भी माँग लायेंगे उधार ।
रौनक़े-जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं,
मैं जहन्नुम में बहुत ख़ुश था मेरे परवरदिगार ।
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर,
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार।
तीन
होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये,
इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिये।
गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में,
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये ।
बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन,
सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये।
उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें,
चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये ।
जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ,
इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिये।
चार
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है,
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है ।
वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है।
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर,
झोले में उसके पास कोई संविधान है।
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप,
वो आदमी नया है मगर सावधान है।
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए,
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है ।
देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं,
पैरों तले ज़मीन है या आसमान है।
पांच
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से,
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है ।
पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं,
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं।
इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो,
धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं ।
बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है,
ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं।
आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है,
पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं।
आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर,
आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं।
सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत,
हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं।
Feb 9, 2010
दुष्यंत कुमार की कुछ ग़ज़लें : कविताकोश के सौजन्य से
Posted by:AM/PM
हिंदी सबके लिए : प्रतिभा मलिक (Hindi for All by Prathibha Malik)
at
2/09/2010 07:20:00 AM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment