बुराई के प्रति सकारात्मक सोच की कहीं कोई कमी नहीं है। आपने अक्सर सुना होगा -"यहाँ सब कुछ हो सकता है " "अरे, यहाँ सब चलता है।" मगर एक कोई अच्छी बात यदि किसी ने गलती से भी कह दी तो नकारात्मकता की पराकाष्ठा से रूबरू होने में देर नहीं लगेगी। अजी छोड़िए मियाँ, ये सब गुज़रे जमाने की बातें हैं।
अब ऐसा क्यों होता है, इसका जवाब तो मेरे पास नहीं है। हाँ, आज के युग के लिए हर अनफिट आदमी की तरह मुझे भी इस सब से थोड़ी तकलीफ , थोड़ी झल्लाहट जरुर होती है। ये अलग बात है कि न मैं सही से बदल पा रहा हूँ न ही ज़माना मेरी सुनने के लिए रुका है।
एक मित्र ने कहीं एक प्रस्ताव रखा कि क्यों न कंप्यूटर के कुंजी पटल यानी 'की-बोर्ड' को देवनागरी में बनाने की बाध्यता कंप्यूटर हार्ड वेयर निर्माताओं के लिए प्रस्तावित की जाए। उनका अभिप्राय था कि जो कंप्यूटर केन्द्रीय सरकारी कार्यालयों के लिए सप्लाई हों, उनके कुंजी-पटल अनिवार्यत: देवनागरी के हों या फिर देवनागरी को प्रमुखता देते हुए द्विभाषी / द्विलिपि वाले हों और सरकार जिस प्रकार के देवनागरी की-बोर्ड को प्रमुखता देना चाहे उसी प्रकार के हों। उनका मानना था कि यदि सरकार हिंदी यूनोकोड़ फोंट्स के लिए इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड अथवा फोनिटिक की-बोर्ड में जिसे अधिक उपयुक्त समझे उस प्रकार के की-बोर्ड की ही सप्लाई सरकारी कार्यालयों के लिए अनिवार्य बनाई जाए ताकि आवश्यकता पड़ने पर हिंदी टाइपिंग न जानने वाला व्यक्ति भी दो-चार शब्द हिंदी में की-बोर्ड के सहारे टाइप कर सके।
मुझे यह बात बड़ी सकारात्मक लगी क्योंकि की-बोर्ड की कीमत बामुश्किल डेढ़-दो सौ रुपए मात्र होती है और हार्डवेयर सप्लायर्स को इसमें कोई कठिनाई आने वाली नहीं है । इससे देवनागरी लिपि एवं हिंदी का माहौल बनाने के साथ-साथ हिंदी टंकण में एकरूपता लाने में भी आसानी होगी। यह मेरा सोचना था मगर नकारात्मकता की सोच से लबाबब मेरे मित्रों को इसमें न जाने कितनी व्यावहारिक एवं अव्यावहारिक कठिनाइयां नजर आईं। अंतत: इसे असंभव करार दिया गया।
हिंदी यूनीकोड के लिए माहौल क्यों नहीं बन पा रहा है इसका जो सबसे बड़ा कारण मुझे लगता है वह हिंदी के द्विभाषिक सोफ्ट्वेयरस के की-बोर्ड से विकसित टंकण अभ्यास है जिसे बदलने को टाइपिस्ट तैयार नहीं हैं। बदलाव की प्रक्रिया कष्टकारी तो लगती ही है मगर बदलाव के लिए प्रेरक तत्व भी तो होने चाहिए। देवनागरी की-बोर्ड की आपूर्ति की बाध्यता कुछ तो प्रेरणा देगी। विकास और आधुनिक तकनीकी को लेकर मन में जो हार जाने का कृत्रिम डर है क्या उसमें इससे कमी नहीं आएगी?
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