लघु कथा:: सत्तू के दास
दास साहब पूरे पैनल से लड़ पड़े थे।यदि सीसीटीवी कैमरे वहाँ लगे होते तो यह कहानी काफ़ी दिलचस्प हो सकती थी । दास साहब का कहना था कि जो भी हो एक उनकी जाति का आदमी ज़रूर सलेक्ट होना चाहिए ।दूसरे दो आदमी दूसरी जाति के सलेक्ट हो चुके हैं , इसलिए यह तीसरा आदमी उनकी जाति से होना चाहिए । हालाँकि दास साहब का यह तर्क पूरी तरह कुतर्क था लेकिन दास साहब के सामने पैनल के दूसरे लोग ज़बान नहीं खोल सकते थे, उन्हें डर था कि कहीं दास जाति की बात उठाकर इस मामले को किसी और रूप में तूल न दे दें।
सत्तू दास साहब का चेला होने के साथ ही जातित्व के सद्गुणों से लैस यानी ओतप्रोत था। यह सद्गुण अन्य गुणी विद्वान उम्मीदवारों पर भारी पड़ा। चयन समिति में पहले दास साहब नहीं थे, मगर अचानक एक सदस्य की तबियत नासाज़ हो जाने के कारण उन्हें लिया गया था। उनका नाम उस पैनल में आना क़ानूनन जायज़ नहीं था जिसमें उनका खासमखास जातिवादी चेला भी प्रत्याशी था। पर शायद क़ानून ही नहीं था। क़ानून न होने पर भी अगर सी सी टी वी कैमरे भी होते तो दास साहब हंगामा नहीं कर सकते थे और सत्तू के लिए क़ानून के कान नहीं मरोड़े जा सकते थे।
सत्तू के चयन के ज़रिये जातिवाद की जीत हुई और सत्तू ने गुरु दक्षिणा मे दास साहब को एक और समिति में मनोनीत कराने में ऐड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया।
दास साहब पूरी दस समितियों में सदस्य थे। सेवानिवृत होने के पंद्रह साल बाद भी वे बड़े से बड़े साहब से बढ़कर बटोर रहे थे और उनके चेले पूरी तरह आश्वस्त थे। मगर ज़्यादा ज़ोर लगाने से दमे का मरीज़ सत्तू फेफड़े गँवा बैठा।
सरकार ने हर एक पद के साक्षात्कार के लिए सीसीटीवी की व्यवस्था करने के साथ ही निश्चित प्रश्न भंडार बना दिया । अब चयन समिति के दो स्तर बना दिए गए थे। पहली चयन समिति साक्षात साक्षात्कार करती और दूसरी समिति सीसीटीवी के ज़रिए रिकार्ड हुए साक्षात्कार का उम्मीदवार और चयन समिति विशेषज्ञ के व्यवहार का हर पहलू से विश्लेषण कर अंतिम निर्णय करती।
हर साल हर सरकारी नौकर को एक बार इस दोहरे गुणवत्ता परीक्षण से गुज़रना पड़ता । कोई भी वरिष्ठ नागरिक एक से अधिक समिति में न रखने का कठोर नियम बना दिया गया ।
-अजय मलिक (c)
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