Nov 25, 2021

अब कोई सपना नहीं..

[करीब 30 वर्ष पूर्व  1990-91 में यह कहानी धर्मयुग के लिए लिखी गई थी, जिसे लौटा दिया गया था। तब मुंबई , 'बंबई' हुआ करती थी।]

"अब कोई सपना नहीं”

- अजय मलिक

उसने कभी कल्पना तक न की थी कि इस तरह पाँच साल बाद अचानक प्रीति से मुलाकात होगी और वह भी रात के बारह बजे। करीब आधा घंटा पहले ही वह सोया था। बाहर हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी। डाँडिया रास की मस्ती में डूबे बम्बई के कुछ – “दीवाने दिल" कदम-ताल मिलाने के प्रयास में कीचड में फसफसा रहे थे। तेज शोरनुमा संगीत की कर्कशता से तंग आकर सोने से पहले उसने सारी खिडकियाँ बंद कर दी थीं।

अचानक कालबेल की चिंघाड़ से वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ था।- कालबेल की तीखी आवाज उसे आपे से बाहर कर देती है। सुबह-सुबह दूध वाला भी इसी तरह उसका मूड खराब कर देता है। दो-तीन बार तो वह कालबेल के तार भी निकाल चुका है, पर हर बार मजबूरी में वे फिर से जोड़ने ड़े - क्योंकि सुबह की कुम्भकर्णी नींद दूधवाले के दरवाजे पर दस्तक देने से न खुलने के कारण उसे कई बार बिना दूध के रहना पड़ा और सुबह का अखबार शाम को मिला।

बिस्तर से उठकर उसने घड़ी देखी – रात के ठीक बारह बजे थे।  इस वक्त कौन हो सकता है.. सोचकर, वह थोड़ा उलझन में पड़ गया था। उसे आश्चर्य हो रहा था कि महीनों से दिन के समय भी जिसके यहाँ मेहमान तो दूर कोई पड़ोसी तक न आया हो, उसके यहाँ रात के बारह बजे कौन आ टपका !

उसकी कालबेल सिर्फ तीन लोग बजाते हैं - दूधवाला, अख़बार वाला और पड़ोसी के बच्चे; जब उनके पापा को कुछ रुपए उधार लेने होते हैं। कई बार जब पड़ोसी जी अपनी मौज में जमकर ताड़ी पीकर आते हैं तो ताड़ी की तरावट का तजुर्बा करने के लिए बीवी बच्चों की पिटाई शुरू कर देते हैं, तब भी उसकी कालबेल बजती है। पड़ोसी जी को जब वह समझा-बुझाकर मार-पीट से रोकता है, तो वे रुक भी जाते हैं। उन्हें विभव का हस्तक्षेप अच्छा लगता है। विभव ने कई बार महसूस किया है कि पड़ोसी जी बीबी-बच्चों की धुलाई इसी लिए शुरू करते हैं ताकि विभव उन्हें रोकने का प्रयास करे और वे विभव पर उसकी बात मान लेने का अहसान कर सकें। कुछ अजीब सी संतुष्टि मिलती हैं उन्हें इस सब से। अनपढ़ हैं, ऊपर से रिटायर्ड फौजी- अकसर गेट पर उनकी ड्यूटी रहती है। दिन में जिस विभव को वे सलाम ठोकते हैं, वही जब रात के वक्त बीबी- बच्चों को न पीटने का अनुरोध करता है, तो उन्हें अच्छा लगता है।

दरवाजा खोलने पर एक बारगी तो उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ था। दरवाजे पर प्रीति खड़ी थी,  चेहरे पर अजीब सा तनाव और होंठों पर एक तड़पती सी मुस्कान लिए। चेहरे की रंगत पीली-पीली लग रही थी। ऐसा लगता था काफी देर से बारिश में भीगती रही है। विभव की समझ में कुछ नहीं आया कि क्या करे क्या कहे ?

प्रीति ने ही मौन तोड़ते हुए कहा - " दरवाज़े पर खड़े रहने की हिम्मत नहीं है मुझमें- यदि आज्ञा हो तो अन्दर आ जाऊँ !"

स्वर में गहरी वेदना जरूर थी पर अंदाज में ठीक पाँच साल पुरानी दृढ़ता और खनक बरकरार थी। तब भी तो विभव उसकी आवाज को झेलने का साहस नहीं कर पाता था। आज भी नहीं कर पाया। वह दरवाजे से हटते हुए हड़बड़ा कर बोला - हाँ - हाँ, बिल्कुल ... क्यों नहीं!! -अन्दर तो आपको आना ही चाहिए। 

मालूम नहीं विभव के इन शब्दों का सही-सही क्या अर्थ था! प्रीति ने एक नज़र विभव को देखा और साधिकार अन्दर चली आई। दरवाजा बंद करके विभव ने प्रीति से सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।

प्रीति बैठ नहीं पाई-विभव ने देखा कि वह बुरी तरह काँप रही है। वह समझ गया कि इस समय कुछ भी पूछने से पहले प्रीति के गीले कपड़े बदला जाना जरूरी है। प्रीति के पास न कोई सामान था, न ही उसका जी जान से भी प्यारा काला पर्स | बिल्कुल खाली हाथ खड़ी थी वह। विभव ने जल्दी से अलमारी से अपना कुर्ता -पायजामा निकालकर दिया और तौलिया थमाते हुए बाथरूम के दरवाज़े की ओर इशारा करते हुए बोला - "लगता है घंटों बारिश में भीगकर आई हो; पहले कपड़े बदल लो। मैं देखता हूँ, थर्मस में शायद कुछ चाय रखी हो।"

प्रीति बाथरूम की ओर बढ़ गई। बाथरूम का दरवाजा बंद होने की आवाज के साथ ही कुछ गिरने की आवाज हुई। विभव ने बाथरूम का दरवाजा थपथपाते हुए पूछा - 'क्या गिरा प्रीति ?" - अन्दर से कोई उत्तर न मिला | थोडी देर सन्नाटा सुनते रहने के बाद विभव ने बाथरूम का दरवाजा खोलना चाहा। हल्का सा धकेलते ही दरवाजा खुल गया। बाथरूम के बीचों बीच प्रीति बेहोश पड़ी थी। उसका दिया कुर्ता-पायजामा और तौलिया एक ओर पड़ा था।

इस घटना ने विभव की घबराहट कुछ और बढ़ा दी। पर यह सोचने - विचारने का वक्त नहीं था। उसने प्रीति को बाथरूम से बाहर निकाला। एक-एक कर उसके सभी कपड़े काँपते हाथों से अलग किए। सबसे अधिक कठिनाई उसे अन्दर के वस्त्र हटाने में हुई। आधी रात को किसी बेहोश युवती के भीगे कपड़े उतारना कोई जंग जीतने से कम बात न थी।

उसी हालत में उसने निर्वसन प्रीति को बिस्तर पर लिटा दिया। गीजर से गर्म पानी लिया और उसमें तौलिया भिगोकर धीरे-धीरे प्रीति के सारे शरीर को पौंछ डाला। ऐसा करते समय उसकी आँखों में एक अद्भुत चमक थी। प्रीति का निर्वस्त्र जिस्म देखकर उसके शरीर में कोई सनसनी पैदा नहीं हुई, बल्कि उसके सक्रिय हाथों की अंगुलियों से ममता की ऊर्जा विसर्जित हो रही थी। प्रीति की धीमी साँस और ठंडे पड़ते शरीर को उसने अच्छी तरह कम्बल सें ढाँप दिया। रसोई में जाकर सरसों का तेल गर्म किया। वापस लौटकर उसने प्रीति का कम्बल धीरे से उठाया। एक हाथ से प्रीति को सहारा देते हुए गोद में समेटकर संभालते हुए दूसरे हाथ से उसने प्रीति के शरीर पर गुनगुने तेल की मालिस शुरू कर दी। सिर से लेकर पाँव तक - फिर सीधे लिटाते हुए सारे चेहरे पर सीने पर; सीने के उभारों पर.. न जाने क्या बात थी कि ऐसा करते हुए उसके हाथ एक बार भी नहीं काँपे । अर्धनग्न तस्वीरों को देखकर विचलित हो जाने वाले पुरुष का मन निर्वसन नारी देह के पोर-पोर को स्पर्श करते हुए भी नहीं भटका... वह भी रात के डेढ़ बजे। घंटे भर की सेवा - श्रूषा के बाद प्रीति की चेतना हल्की सी लौटी। उस वक्त विभव उसे कुर्ता पहना रहा था। कुर्ते  के बटन बंद होते वक्त प्रीति ने आँखें खोली और एकटक देखती रही उस पुरुष को जो बिना किसी स्वार्थ; बिना किसी आकर्षण के उसे जीवित बनाए रखने का प्रयत्न कर रहा था। प्रीति की आँखों में अनायास ही आँसू उमड़ आए। इसी विभव को पाँच साल पहले उसने.....

- “प्रीति ! अब कैसी तबीयत है?? - पूछा था विभव ने।  

अपने आँसू हौले से पौंछते हुए वह बोली - "तबीयत अच्छी हो जाएगी- यही सोचकर तो यहाँ चली आई।" विभव की समझ में कुछ नहीं आया। वह थर्मस से चाय निकालकर उसे फिर से गर्म कर लाया। प्रीति को चाय का कप थमाते हुए उसने प्रश्न सूचक निगाहों से प्रीति को देखा। प्रीति के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभर आई। धीमी आवाज में बोली- यदि दो बिस्कुट और एस्प्रिन की गोलियां हों तो वे भी दे दो !

चाय पीने के बाद प्रीति के जिस्म में थोड़ी शक्ति आई तो वह बोली "कुछ पूछोगे नहीं; तुम तो बहुत बड़-बड़ किया करते थे अब इतने चुप्पे हो गए !" फिर जैसे उसे अपनी ही किसी भूल का स्मरण हो आया। नज़र झुक गई पर शब्दों का प्रवाह धीमी गति से जारी रहा -"तुम्हारा चुप रहना ही तो नियति है अब - मेरा ही तो सारा दोष था।"

विभव ने नज़रें उठाकर उसकी ओर देखा - आँखों में अभी भी यदि कोई भाव था तो सिर्फ ममता का | धीरे से बोला – “काफी रात बीत चुकी है, अभी तुम सो जाओ। - सुबह खूब सुनूँगा - जो चाहे बताना !"

प्रीति ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। धीमे से बिस्तर से उतरते हुए विभव का हाथ थामकर बोली "ठीक है; पर पहले एक बार टायलेट तक ले चलो । स्वयं नहीं जा सकूँगी... और थोड़ी कॉटन यानी रुई भी चाहिए।"

उसके कपड़े बदलते वक़्त ही विभव बहुत कुछ समझ गया था | रुई का बंडल उसने प्रीति को थमा दिया और सहारा देकर टायलेट तक ले गया। फिर आहिस्ता से प्रीति को बिस्तर पर लाकर लिटा दिया। वह हौले से मुस्कराई और आँखें बंद कर चुप हो रही। विभव ने उसे अच्छी तरह कंबल उढ़ा दिया और स्वयं लाइट ऑफ कर कुर्सी पर बैठकर सोचने लगा। 

प्रीति ने उसकी ओर करवट लेकर सीधे हाथ से उसका हाथ पकड़ लिया। खिड़की से बहती झकझकाती चाँदनी में विभव ने प्रीति के माथे को छूकर कहा -"सो जाओ प्रीति.. "

कुछ क्षणों तक मौन छाया रहा, लेकिन जल्दी ही प्रीति की धीमी आवाज से सन्नाटा टूट गया. "विभव... इतनी रात गए तुम्हें परेशान किया और... अब रात भर जागने की सज़ा दे रही हूँ... माना कि मैं एक विवाहित स्त्री हूँ और तुम्हारा मेरा कोई सीधा संबंध भी नहीं है, पर ऐसे में तुम्हें सज़ा देने का हक़ भी तो नहीं बनता...'तुम्हें अगर जागना भी है तो बिस्तर पर मेरे पास बैठकर जागरण करो, वरना मुझे शान्ति नहीं मिलेगी ।" फिर थोड़ा रुककर वह बुदबुदाई - " मैं नहीं जानती - कैसे मैं आज तुम तक चली आई ?  कैसे सब कुछ छोड़ते हुए भी तुम्हारा पता साथ रहा?  मालूम नहीं कैसे ... "

विभव ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया / वह कुर्सी से उठकर उसके सिरहाने बैठ गया और उसके माथे को सहलाने लगा। प्रीति का कमजोर शरीर जल्दी ही शिथिल हो गया। उसकी साँस धीमी परन्तु सहज रूप से चलने लगी। वह गहरी नींद की गिरफ्त में आ चुकी थी - बरसों की अशान्ति के बाद सहस्रों घंटों तक स्वयं से लड़ते रहने के श्रम से थकी काया को बड़ी मुश्किल से शान्ति के ये क्षण नसीब हुए थे।

विभव से नींद बरसों पीछे चली गई थी। उसकी आँखों में कई घंटे पुराने ममता के भाव थे। वह अपलक शून्य में ताकता हुआ पाँच साल पहले की एक रात के अंधेरे को घूर रहा था। वह तब भी अकेला था, लेकिन उन दिनों उसकी आँखों में कुछ सपने हुआ करते थे - आज जैसा सूनापन उनमें नहीं था। 

प्रीति यानी बिग्रेडियर पिता की साधारण नैन नक्स वाली इकलौती बेटी। विभव को एक खास किस्म की खूबसूरती नजर आती थी उसमें । दिल्ली के एक बड़े कालेज का हॉस्टल... परीक्षा के दिनों में रात दो बजे तक खुलने वाली लाइब्रेरी...

प्रीति और विभव में यदि दोस्ती नहीं थी तो दुश्मनी भी नहीं थी। दोनों सहपाठी थे और जीवन की शायद आखिरी किताबी परीक्षा देने जा रहे थे। विभव प्रीति के प्रति आकर्षित था और यह बात किसी से छिपी हुई नहीं थी। विभव किसी भी विचार, किसी भी भाव को कभी छिपाने की कोशिश ही नहीं करता था। हालांकि प्रीति के प्रति सहज स्नेह भाव को उसने कभी शब्दों में व्यक्त नहीं किया था, परन्तु उसकी आँखों में उसे सब पढ़ चुके थे। प्रीति ने भी पढ़े थे वे अनमोल बोल.. पर उन्हें स्वर देने की बजाय वह अनदेखा कर देती थी।

लेकिन यह अनदेखा कितने दिनों तक किया जा सकता था- भला। वे दोनों जाने-अनजाने कुछ तो समीप आ ही गए थे। उस दिन किसी वजह से लाइब्रेरी रात बारह बजे ही बंद हो गई थी। वे दोनों किसी विषय पर काफी गम्भीर बहस कर रहे थे। लाइब्रेरी बंद होने पर दोनों हास्टल के विजिटिंग रूम में जम गए थे। अचानक विभव ने चर्चा रोकते हुए कहा था - प्रीति बस दो मिनट ठहरो, मैं चाय बना लाता हूँ। फिर जमकर इस टॉपिक पर चर्चा करेंगे।" पता नहीं प्रीति ने क्या सोचा अचानक उसने विभव की आँखों में कुछ तलाशना चाहा। दो दिन पहले ही तो शोभा ने कहा था – “बचकर चलना विभव से, कहीं ऐसा न हो कि ...”

प्रीति को शोभा के इशारे का अर्थ अब कुछ-कुछ समझ में आता सा लग रहा था...आधी रात को चाय का प्रस्ताव...!

पल भर में वह बहुत कुछ सोच गई थी। उसके मुँह से अनायास तीखी आवाज़ में बहुत कुछ बहता चला गया था- “ नहीं-नहीं, मुझे कोई चाय नहीं चाहिए। ...कोई डिसकशन भी नहीं करना है अब। तुम जाकर सो जाओ- जाओ यहाँ से...”

सुनकर विभव स्तब्ध रह गया था। उसकी आँखों में वही निर्मलता थी - वही सहज स्निग्धता... चाय का प्रस्ताव... क्या इसका कोई ऐसा अर्थ भी हो सकता है कि सामने वाला अचानक आग बबूला हो जाए...और बिफर पड़े !

विभव की समझ में कुछ नहीं आया था। प्रीति ने फिर तीखे स्वर में कुछ कहा था और तब अचानक ही विभव सब कुछ समझ गया था। उसका मन हुआ था कि प्रीति को दनादन दो-चार झापड़ लगा दे, पर लगा नहीं पाया था। वह ऐसा कर ही नहीं सकता था। वह प्रीति को प्यार करता था। वह सिर्फ एक पुरुष ही नहीं था - एक प्रेमी था - एक अद्भुत प्रेमी...एक पागल | लेकिन प्रीति ने उसे सिर्फ एक पुरुष समझा, आखिर क्यों ? क्या बिग्रेडियर की बेटी ... एक अति आधुनिका के विचार इतने संकीर्ण भी हो सकते हैं। - बहुत जोर देने पर भी विभव किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया था। पच्चीस- छब्बीस की उम्र में उच्च शिक्षित होने का ठप्पा लगे लोग भी क्या सिर्फ मनुष्य को नर-मादा की तरह ही देखते हैं- और कुछ नहीं !!

इस सवाल का जवाब हो भी क्या सकता था ? 'चाय' की इस घटना का जिक्र कॉलेज के हर छोटे-बड़े के कानों से होता हुआ जबानों तक गया था। सभी ने चाय की खूब चटखारे ले-लेकर व्याख्या की थी। 

पाँच बरस बाद उस चाय की पुनरावृत्ति क्या इसी तरह होनी थी ?- सोचकर बरबस मुस्करा दिया था विभव। 

प्रीति गहरी नींद में थी। माथे को सहलाती विभव की अंगुलियाँ प्रीति की आँखों की मुड़ेरों पर चिपकी नमी का एहसास कर चुकी थीं। यादों का सिलसिला जारी था। उस रात घटी विजिटिंग रूम की घटना ने विभव को अन्दर तक तोड़ दिया था। यहाँ तक कि वह इस घटना के बाद चार दिन तक अपने कमरे/रूम में बिना कुछ खाए-पिये दरवाजा बंद कर पड़ा रहा था। कई लोग उससे मिलने आए, पर वह चुप रहा। एक पत्रकार मित्र भी आए और खूब हँसे । फिर उसकी कमर थपथपाते हुए गम्भीर होकर लौट गए।

उन दिनों प्रीति सबसे मिली थी। सब को वह अपने ढंग से चाय की घटना सुनाती और लोगों की मुस्कराहटों से खिन्न होकर लौट आती। उसे विभव की सूरत नहीं देखनी थी- सो नहीं देखी।

दिन बीते; पढ़ाई खत्म हुई। परीक्षा के बाद घर लौटने के दिन तक वे एक दूसरे का सामना करने से बचने के प्रयास में बार-बार टकराते रहे।

अंतिम दिन विभव ने पूछा - प्रीति, क्या तुमने सब कुछ ठीक-ठीक ही समझा था ?

प्रीति अपनी उसी कर्कशता में सिमटी हुई वह बोली थी-" मुझे तुमसे बात करने की कोई इच्छा नहीं है।"  

विभव लौट आया था। आते-आते उसके मुँह से निकल ही गया था – “फिर भी... प्रीति कुछ भी भुलाया नहीं जा सकेगा। " 

इन पाँच बरसों में कितना तो घूमा है वह, आधी दुनिया घूम आया है। खूब दूर गया और फिर लौटा।

आँखों में दिखने वाले सपने मर गए और सूनापन मौजें मारने लगा। एक बार उसने शादी भी करनी चाही, पर वहाँ पर भी विभव को समझने वाला कोई नहीं दिखा। तीस साल की उम्र में वह बुजुर्ग बन गया। उसने सब कुछ भुला दिया - प्रीति को ही नहीं - स्वयं को, सारी दुनिया को भी| बस, बीते दिनों को वह नहीं बदल पाया। पाँच साल पुरानी वह रात उसके साथ हर पल चिपककर चलती रही।

इस बीच बिग्रेडियर साहब, मेजर जनरल बनकर रिटायर हो गए। रिटायरमेंट से पूर्व उन्होंने अपने एक दोस्त के दो कम्पनियों के मेनेजिंग डायरेक्टर बेटे से प्रीति की शादी कर निश्चिंतता पा ली | शायद चार साल पहले की घटना है, जब विभव को प्रीति की शादी के बारे में एक सहपाठी मित्र ने लिखा था। पर विभव इस सूचना का करता भी तो क्या करता ?

बम्बई में विभव को तीन साल हो चुके थे। प्रीति अपने पति दीपक के साथ बंबई आ गई है। दीपक ने बॉम्बे में एक नई कम्पनी शुरू की थी। यह सब भी उसी दोस्त के पत्र से पता चला था विभव को। लेकिन विभव के लिए इस सबका अब कोई अर्थ नहीं रह गया था। इसलिए नहीं कि प्रीति किसी की पत्नी बन चुकी थी - बल्कि स्वयं विभव ही सब कुछ से दूर जा चुका था।

सोचते - सोचते कब विभव बैठे-बैठे ही सो गया - कुछ पता न चला। सुबह जब उसकी आँखें खुलीं, तब भी प्रीति गहरी नींद में थी। एक बार तो वह प्रीति के शिथिल शरीर को देखकर घबरा गया, पर प्रीति की साँसों के सहज प्रवाह को देखकर संतुष्ट हो गया।

बाहर अभी भी बारिश टपक रही थी। सुबह के आठ बज चुके थे, पर बादलों की वजह से समय का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता था। उसने चाय बनाकर थर्मस में डालकर रख दी और प्रीति के जागने का इंतजार करने लगा। करीब नौ बजे वह जागी। चेहरे पर थकान और पीलापन मौजूद था, किन्तु निराशा के भाव मिट चुके थे। वह बिस्तर से उतरने लगी तो विभव ने सहारे के लिए हाथ बढ़ा दिया। उसने हाथ थाम लिया - फिर मुस्कराकर छोड़ते बोली - "अब स्वयं जा सकूँगी ।"

चेहरे से पानी की बूँदें पौंछते हुए वह फिर से बिस्तर पर आकर पसर गई। विभव ने चाय का कप उसकी ओर बढ़ाया तो चाय लेते समय उसकी आँखों में दुष्टता के भाव उभर आए। हँसते हुए बोली 'लो आज मैंने तुम्हारी पाँच साल पुरानी मन्नत भी पूरी कर दी!

विभव हौले से मुस्करा दिया।

फिर अपनी ही धुन में थोडी गम्भीरता के साथ प्रीति ने वाक्य पूरा किया "... शायद अपनी ही मन्नत पूरी की है मैंने "

इस बार उसके शब्दों ने विभव को चौंका दिया। प्रश्न सूचक दृष्टि प्रीति की ओर उठ गई । जवाब में प्रीति धीरे-धीरे बताने लगो -" पिता की इच्छा पूरी करने के लिए मैंने दीपक से शादी की थी। मेरी कोई सहमति असहमति नहीं थी। ... जाने-अनजाने तुम्हारा अपमान किया, तुम्हें गलत समझा, अपनी कमजोरी छुपाने के लिए तुम्हें गलत साबित करने की कोशिश की।  इस सब की वजह भी पिता की इच्छा ही थी।

मैं अपने पिता को जानती थी। तुम्हारी आँखों में निश्छल प्रेम देखकर जब मेरा स्वयं पर विश्वास उठने लगा तो मुझे और कोई रास्ता ही न सूझा | पर विभव यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि तुम्हें गलत समझा था मैंने... तुम्हारी ईमानदारी, तुम्हारे अपनेपन से मैं स्वयं हार गई थी... लेकिन उस घटना के बाद तुमने भी तो सही से एप्रोच नहीं किया। तुम्हें देखकर मुझे गुस्सा आता था। बाद में एहसास हुआ कि वह मेरी चाहत थी। शादी से पूर्व मैंने एलिना से कहा था कि तुम्हें खबर कर दे। मेरे कहने पर ही उसने तुम्हें पत्र भेजा था। तुम्हारी ओर से जब कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो मैंने स्वयं को पिता की इच्छा पर न्यौछावर कर दिया। उन्होंने जैसा कहा, मैं यन्त्रवत् करती चली गई।"

चाय का आखरी कतरा गले में उतार कर उसने कप विभव को थमा दिया । फिर आगे का किस्सा बयान करने लगी – शादी के बाद मैं एक और पुरुष के हाथों की कठपुतली बनी। उसने जो चाहा मैंने किया। वह मुझे सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन समझता रहा। मैंने इस पर भी कोई एतराज नहीं किया। लेकिन उसे सिर्फ एक संतान चाहिए और वह भी लड़का | चार साल में उसने मुझे तीन बार माँ बनने से पहले ही ... दो बार मैंने सहन किया.... पर तीसरी बार भी मैं जब उसकी इच्छानुसार साँचे में लड़का ढाल पाने में सफल न हो सकी तो चार माह बाद जबरदस्ती कल गैरकानूनी ढंग से उसने मुझे... तीसरी बार मुझ मशीन के कल-पुर्जे बिखेर डाले गए, तीसरी बार गर्भपात... और सब समाप्त।

कुछ देर मौन रहकर वह फिर बताने लगी - मैं चली आई, विभव। ... सदा के लिए । पाँच साल बाद भी मुझे सिर्फ एक ही दरवाज़ा नज़र आया - मालूम नहीं क्यों ?"

विभव चुपचाप सुनता रहा था। उसकी आंखों में अभी भी वही रात वाली ममता हिलोरे ले रही थी। विभव की चुप्पी प्रीति को खल रही थी। बोली विभव, क्या मैं तुम्हारे साथ रह सकती हूँ ?"

इस बार विभव ने अपनी चुप्पी तोड़ी –

"क्यों नहीं प्रीति ! अगर तुम चाहती हो तो... रह सकती हो । पर तुम्हारे पति... तुम्हारे पिता ..." 

प्रीति बीच में ही तड़पकर बोली- “कौन पति, कैसे पिता... वे, जिनके लिए मैं एक इच्छा पूर्ति का साधन मात्र हूँ। मुझे ऐसे किसी व्यक्ति की जरूरत नहीं है... और समाज, तो उसकी परवाह नहीं करती मैं; - परवाह है तुम्हारी - तुम्हारी 'हाँ' की।“

“....बताओ विभव, क्या अब भी... तुम मुझे प्यार करते हो? …अपना सकते हो मुझे?" -प्रश्न सूचक दृष्टि से देखते हुए वह बोली। 

विभव कुछ देर तक शान्त रहा। फिर हौले से बोला – “प्रीति, अपना तो चुका हूँ तुम्हें। तभी तो...”

“... लेकिन प्रीति, यह कहने का साहस मुझमें अब नहीं है कि आज भी मैं तुम्हें प्यार करता हूँ... झूठा नहीं बनना चाहता... फिर 'प्यार' का अर्थ दुबारा से तुम्हें मशीन बनने पर विवश भी तो कर सकता है।“

“मैंने तो ऐसा कभी नहीं चाहा था...एक इंसान से इतर कोई रूप तुम्हारे लिए कभी मेरे दिलो-दिमाग में नहीं आया। पुरुष हूँ, पर तुम्हारे प्रति कभी कोई ऐसा भाव, कोई वासना नहीं जन्मी ... शायद मैं स्वयं मशीन बन चुका हूँ। फिर भी तुम चाहो तो, ... लेकिन सिर्फ परिचित या दोस्त बनकर रह सकती हो...”

“तुम इंसान हो, - इंसान को इंसान के साथ रहना तो भाएगा ही.. लेकिन अब तुम्हारे प्रति सिर्फ ममता उमड़ती है। अब कोई सपना नहीं है। जिन्दगी बहुत आगे बढ़ चुकी है। " 

-अजय मलिक 

ए3/8, सीप्झ क्वाटर्स अंधेरी (पूर्व) बम्बई - 400093

 

Nov 14, 2021

सच कहता हूँ ..

सच कहता हूँ 

तुम झूठे हो। 

मेरी वाणी को विराम दे 

सबको हर दिन 

तुम लूटे हो!

लोकलाज तक 

भूल गए हो। 

बेईमानों की महफ़िल में 

किस मकसद से 

तुम रूठे हो? 

Nov 13, 2021

राजभाषाओं के नियम और उनका विस्तार: एक व्यक्तिगत विवेचना -अजय मलिक “निंदित”

राजभाषा नियम 1976 वस्तुत: राजभाषाओं के नियम हैं, जो राजभाषा (राजभाषाओं का) अधिनियम 1963 की धारा-8 के तहत प्राप्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए सरकार ने 17 जुलाई 1976 को पारित किए। इन नियमों में दिनांक:24-10-1987, 03-08-2007 तथा 04-05-2011 को संशोधन भी किए जा चुके हैं। वर्ष 1987 का संशोधन मूलत: अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह को “ख” क्षेत्र से “क” क्षेत्र में लाने के लिए किया गया, जबकि 2007 का संशोधन नए राज्यों उत्तराखंड, झारखंड व छत्तीसगढ़ के गठन के कारण किया गया। वर्ष 2011 के संशोधन के जरिए दमन, दीव, दादरा नगर हवेली को “ग” से “ख” क्षेत्र में लाया गया। जम्मू, कश्मीर तथा लद्दाख संघ शासित प्रदेशों के गठन के कारण न सिर्फ राजभाषा नियमों में पुन: संशोधन अपेक्षित है, बल्कि राजभाषा अधिनियम में भी संशोधन आवश्यक है।
राजभाषा नियम, राजभाषा अधिनियम की धारा 3(4) के अंतर्गत आते हैं। अत: जहां अधिनियम लागू है, वहाँ राजभाषा नियम भी लागू हैं। यह कहना सही नहीं है कि राजभाषा नियम तमिलनाडु पर लागू नहीं हैं। जुलाई 1976 में तमिलनाडु में राष्ट्रपति शासन होने के कारण इन नियमों का विस्तार तमिलनाडु को छोड़कर शेष सम्पूर्ण भारत पर रखा गया। वैधानिक रूप से भी तमिलनाडु पर राजभाषा नियमों के लागू न होने का कथन सही नहीं है, क्योंकि राजभाषा अधिनियम की धारा-8 के तहत सरकार को नियम बनाने की शक्तियाँ राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों को क्रियान्वित करने के लिए प्राप्त हैं। सरकार को ऐसे किसी राज्य जिस पर अधिनियम लागू है, अधिनियम के प्रावधानों को क्रियान्वित न किए जाने के लिए नियम बनाने अथवा नियमों में प्रावधान करने की शक्तियाँ धारा-8 के तहत नहीं मिली हैं। राजभाषा नियम वैधानिक रूप से आपातकाल के बाद तमिलनाडु से राष्ट्रपति शासन समाप्त हो जाने के बाद स्वत: तमिलनाडु पर भी विस्तारित हो जाते हैं। मेरा यह मानना है कि नियमों के तमिलनाडु राज्य पर विस्तार न होने के स्थान पर इसे तमिलनाडु राज्य सरकार पर न होना माना जाना चाहिए।
यदि राजभाषा नियमों को तमिलनाडु पर लागू न होने की अवधारणा को सही मान लिया जाए तो तमिलनाडु राज्य को क, ख, ग क्षेत्रों से अलग रखने का प्रावधान करना होगा तथा तमिलनाडु राज्य में कार्यरत केंद्रीय कार्यालयों तथा उनके कार्मिकों के लिए “सरकारी कार्यालय”, “सरकारी कर्मचारी” और “हिंदी के कार्यसाधक ज्ञान” आदि की परिभाषाओं को अलग से परिभाषित करना होगा। ऐसा मानने से राजभाषा संकल्प-1968 तथा इसमें निहित निदेशों के तहत जारी वार्षिक कार्यक्रम के लक्ष्य भी तमिलनाडु राज्य के लिए निष्प्रभावी हो जाएंगे।

इसी के साथ जुलाई 1976 के बाद तमिलनाडु में कार्यरत कार्मिकों को हिंदी प्रशिक्षण के बाद दिए गए वित्तीय प्रोत्साहन और नकद पुरस्कार लेखा परीक्षा आपत्ति के घेरे में आ जाएंगे तथा विकट संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा हो जाएगी। उल्लेखनीय है कि माननीय उच्चतम न्यायालय के “भारत सरकार बनाम मुरासोली मारन” मामले में 06 दिसंबर 1976 को दिए गए विस्तृत आदेशों के अनुपालन में तमिलनाडु में कार्यरत केंद्रीय कार्मिकों के लिए भी राष्ट्रपति के आदेश-1960 के अनुरूप हिंदी भाषा का प्रशिक्षण दिया जाना अनिवार्य है। हिंदी भाषा का प्रशिक्षण उन केंद्रीय कार्मिकों के लिए अनिवार्य है, जिन्हें हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त नहीं है और कार्यसाधक ज्ञान की परिभाषा जुलाई 1976 के बाद के मामलों के लिए राजभाषा नियमों (नियम-10) से इतर कहीं उपलब्ध नहीं है।
सरकार या संसद द्वारा पारित किसी भी विषय से संबंधित नियम (नियमों) में नियम-1 एवं 2 में नाम, क्षेत्राधिकार और परिभाषाएँ होती हैं। नियम-3 से वास्तविक दिशानिर्देश प्रारम्भ होते हैं। राजभाषा नियमों के मामले में नियम-3 अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि नियम-3(1)(2) में “क” व “ख” क्षेत्रों से प्राप्त अँग्रेजी पत्रों के हिंदी में उत्तर दिए जाने का प्रावधान है तथा नियम-3(3) “ग” क्षेत्र में स्थित राज्यों (तमिलनाडु सहित), संघ शासित प्रदेशों की राज्य सरकारों, उनके कार्यालयों और व्यक्तियों अर्थात संबंधित राज्य के निवासियों के साथ केंद्रीय सरकार के कार्यालयों से केवल अँग्रेजी में पत्राचार की बाध्यता/ अनिवार्यता के प्रावधान के लिए है। नियम-3(3) यह भी स्पष्ट करता है कि “ग” क्षेत्र में स्थित किसी भी राज्य पर हिंदी थोपने का आरोप मिथ्या और कोरी कल्पना भर है। यह एक राजनैतिक उद्देश्य के लिए फैलाया जाने वाला भ्रम मात्र है।
राजभाषा नियम-4 विभिन्न क्षेत्रों में स्थित केंद्रीय सरकार के कार्यालयों के बीच आपस में हिंदी में कितना और कैसे पत्राचार होगा, इससे संबंधित है। वार्षिक कार्यक्रम की पहली मद इसी पर आधारित होती है।
नियम-5 के तहत यह प्रावधान किया गया है कि कहीं से भी और किसी से भी, देश से या विदेश से यदि किसी केंद्रीय कार्यालय को हिंदी में पत्र प्राप्त होता है तो उसका उत्तर हिंदी में ही दिया जाना अनिवार्य है। नियम-6 वस्तुत: राजभाषा अधिनियम की धारा-3(3) की इस रूप में पुनरावृत्ति है कि इसके अंतर्गत आने वाले 14 प्रकार के दस्तावेजों के अनिवार्य रूप से एक साथ द्विभाषी में जारी किए जाने के लिए इन पर हस्ताक्षर करने वाला अधिकारी ही स्वयं जिम्मेदार होगा।
राजभाषा नियम-7 के संबंध में विस्तृत व्याख्या के साथ “मिथिलेश कुमार सिंह बनाम भारत सरकार एवं अन्य” मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय का 01 मई, 2013 का आदेश भी आ चुका है, जो राजभाषा नियमों की प्रशासन के लिए अनिवार्यता के संबंध में है। इस नियम के तहत किसी भी कर्मचारी द्वारा प्रस्तुत कोई अपील, अभ्यावेदन या आवेदन पत्र यदि हिंदी में या हिंदी में हस्ताक्षरित है तो उस पर प्रशासन अर्थात संबंधित कार्यालय द्वारा सम्पूर्ण कार्रवाई/ कार्यवाही हिंदी में की जाएगी। उल्लेखनीय है कि हिंदी में हस्ताक्षरित होने की स्थिति में हिंदी में कार्रवाई का यह प्रावधान संबंधित कार्यालय में डायरी होने वाले अर्थात आवक के रूप में दर्ज किए जाने वाले उपर्युक्त मात्र 3 प्रकार के दस्तावेजों के लिए है। किसी कार्यालय से अँग्रेजी पत्रों आदि पर हिंदी में हस्ताक्षर के बाद उसे हिंदी पत्राचार मानने का कोई प्रावधान नियम-7 या अन्य किसी नियम में नहीं है।
नियम-7 (3) के प्रावधानों की माननीय उच्चतम न्यायालय की व्याख्या के अनुसार अनुशासनिक मामलों में कोई भी केंद्रीय कार्मिक हिंदी या अँग्रेजी में दस्तावेजों की मांग का अधिकार रखता है तथा प्रशासन द्वारा संबंधित कार्मिक को ये दस्तावेज़ों अविलंब अपेक्षित भाषा में उपलब्ध कराए जाने की बाध्यता है। मांग करने वाले कार्मिक को संबंधित भाषा आती है या नहीं, इसका निर्णय लेने का अधिकार प्रशासन को नहीं है।
नियम-8 लक्ष्यानुरूप हिंदी में टिप्पण अर्थात नोटिंग से संबंधित है। नियम 8(4) के तहत अधिसूचित कार्यालयों के हिंदी में प्रवीणता प्राप्त कार्मिकों को कार्यालय का शत-प्रतिशत कार्य हिंदी में करने के लिए विधिवत आदेश दिए जाने का प्रावधान है।
नियम-9 में हिंदी में प्रवीणता को परिभाषित किया गया है। नियम-10 हिंदी के कार्यसाधक ज्ञान को परिभाषित करने तथा कार्यालयों को राजपत्र में अधिसूचित कराने से संबंधित है। नियम-9 तथा 10 में यह भी प्रावधान है कि यदि कोई कार्मिक “ निर्धारित प्रपत्र में” हिंदी में प्रवीणता अथवा कार्यसाधक ज्ञान होने की घोषणा प्रामाणिक आधार के उल्लेख के साथ करता है तो प्रशासन को उसे स्वीकारना होगा। लेकिन यह स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि किसी निरक्षर अथवा बिना आधार के ऐसी घोषणा करने का अधिकार अथवा बिना आधार की ऐसी घोषणा के बाद प्रशिक्षण आदि में छूट पाने/देने का प्रावधान नहीं है।
नियम-11 के तहत कोड, संहिताएँ, नामपट्ट, बोर्ड, सभी प्रकार की लेखन सामग्री आदि के द्विभाषी/त्रिभाषी में होने की अनिवार्यता तथा भाषाओं के क्रम के संबंध में व्यवस्था दी गई है। इस संबंध में राष्ट्रपति जी के जनवरी 1992 के आदेशों की मद संख्या-13 में विस्तृत प्रावधान किए गए हैं।
अंतिम नियम-12 है, जिसमें राजभाषा संबंधी प्रावधानों के अक्षरश: अनुपालन करने/कराने की ज़िम्मेदारी संबंधित कार्यालय के प्रशासनिक प्रधान की सुनिश्चित की गई है तथा सरकार को समय-समय पर इसके लिए आवश्यक आदेश पारित करने का अधिकार दिया गया है।
राजभाषा नियमों का गंभीरता से अवलोकन करने पर निष्कर्ष मात्र यह निकलता है कि राजभाषा नियमों में किसी भी तरह की अस्पष्टता अथवा कमी नहीं है, किन्तु सरकारी कार्मिकों की अनाधिकार अपनी अलग व्याख्या करने की प्रवृत्ति के कारण भ्रम की स्थिति जानबूझकर पैदा की जाती है। प्रशासनिक प्रधान को यह स्पष्ट होना चाहिए कि उन्हें राजभाषा अधिनियम अथवा राजभाषा नियमों के प्रावधानों की व्याख्या का अधिकार नहीं है बल्कि उनकी ज़िम्मेदारी इनमें किए गए प्रावधानों के कार्यान्वयन की है, क्योंकि उन्हें सरकार द्वारा राष्ट्रपति की ओर से राष्ट्रपति/ और सरकार के आदेशों/नीतियों के कार्यान्वयन के लिए वेतन पर नियुक्त किया गया है तथा सरकार की नीतियों, नियमों, सेवा शर्तों को स्वयं सहर्ष स्वीकारने के बाद ही उन्होने नौकरी/सेवा स्वीकार की है।

यदि राजभाषा संबंधी संवैधानिक प्रावधानों को सरकारी कार्मिक अन्य नीतियों यथा आयकर अथवा आरक्षण आदि की नीतियों की तरह गंभीरता के साथ समझ कर, अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करें, तो हिंदी के प्रयोग के प्रेरणा और प्रोत्साहन से जुड़े होने कारण भारत भर के केंद्रीय कार्यालयों से अँग्रेजी का वर्चस्व तत्काल समाप्त हो सकता है।
प्रेरणा, प्रोत्साहन हिंदी राजभाषा में कार्य करने, निरंतर इसके प्रयोग को बढ़ाने तथा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए है। इन्हें हिंदी के प्रयोग से बचने के लिए ढाल की तरह प्रयोग करने की प्रवृत्ति पर तत्काल विराम लगाया जाना चाहिए।