जी हाँ, पैंतीस साल बाद कोल्लम -त्रिवेंद्रम से शुरू हुआ एक हिंदीतर भाषी महिला का हिंदी के प्रचार-प्रसार का सफर 30 मई, 2025 को नई दिल्ली में सरकारी तौर पर एक पड़ाव पर पहुंचकर नई मंजिल की ओर अग्रसर हो जाएगा।
केरल के कोल्लम जिले से एक मलयालम भाषी महिला विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र से हिंदी के प्रचार-प्रसार की डोर थामती है और फिर चेन्नई के अनेक प्रतिष्ठित संस्थानों में हिंदीतर भाषी केंद्रीय कार्मिकों को प्रशासनिक हिंदी का प्रशिक्षण देना शुरू करती है। सन् 2000 के आसपास भारत में सबसे पहले चेन्नई यानी मद्रास में कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के माध्यम राजभाषा प्रशिक्षण का डंका बजाती है और फिर 2016 में उत्तर-प्रदेश उत्तराखंड के छोटे-बड़े अनेक जिलों में संघ की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी का किसी भी हिंदी भाषी से अधिक सक्षमता से निर्वहन करती है।
क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय, गाजियाबाद में उपनिदेशक (कार्यान्वयन) और कार्यालयाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए वे आगरा में नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति (कार्यालय) की अध्यक्ष एवं प्रधानआयकर आयुक्त और उनके कर्मठ सदस्य सचिव के सहयोग से "न भूतों, न भविष्यति" क्षेत्रीय सम्मेलन का आयोजन करती हैं और फिर एक वर्ष के भीतर वे माननीय संसदीय समिति में अवर सचिव चुन ली जाती हैं।
वे समिति में अवर सचिव के पद पर चुनी जाने वाली प्रथम मलयालम भाषी और पहली महिला अवर सचिव होती हैं। समिति में उनकी कर्मठता का हर कोई कायल हो जाता है, लेकिन उनके मूल विभाग के हिंदी भाषी सहकर्मियों को उनकी प्रगति झेल पाना कठिन हो जाता है। पूरे 15 माननीय सांसदों की सिफारिश के बावजूद उन्हें समिति में प्रतिनियुक्ति विस्तार नहीं मिल पाता है। यहाँ तक कि तत्कालीन सचिव महोदय की उनकी प्रतिनियुक्ति विस्तार संबंधी सकारात्मक टिप्पणी के बावजूद उन्हें प्रत्यावर्तित कर दिया जाता है।
उन्हें पत्राचार स्कंध में डाल दिया जाता है। वे वहाँ पर भी अपना करिश्मा दिखाती हैं। बहुत कुछ सुधार की सार्थक कोशिश भी करती हैं। फिर उन्हें हिंदी शिक्षण योजना परीक्षा स्कंध की जिम्मेवारी दी जाती है और वहाँ भी उनका डंका बजने लगता है। एक हिंदीतर भाषी को अपने कर्तव्यनिष्ठ व्यवहार और हिंदी भाषा के लिए अटूट समर्पण को हिंदी भाषी आसानी से पचा नहीं पाते हैं। समझौता वादी न होना हमारे देश में किसी अभिशाप से कम नहीं होता। अपने जुझारूपन का पारितोषिक उन्हें एक वेतनवृद्धि कम पर सेवानिवृत्त करके दिया जाता है।
माननीय मद्रास उच्च न्यायालय में 09 अप्रेल, 2009 को पहली बार पीठ के आदेश पर हिंदी में बहस होती है और एक मलयाली हिंदीतर भाषी महिला, जो बिना किसी तैयारी के, वकीलों की हड़ताल के कारण सिर्फ अगली तारीख लेने गई थी, न सिर्फ हिंदी में बहस करती है, बल्कि न्यायालय से अपने पक्ष में निर्णय भी पा जाती है।
व्यवस्था को इसमें और भी अधिक कठिनाई होती है और उनके पक्ष में आए माननीय मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय को माननीय सर्वोच्च न्यायालय में व्यवस्था द्वारा चुनौती दे दी जाती है। 06 अप्रेल, 2022 को माननीय सर्वोच्च न्यायालय, व्यवस्था की अपील खारिज कर देता है, मगर..
... न्यायालय के न्याय कर देने मात्र से ही तो न्याय नहीं मिल जाता।
व्यवस्था को हार बर्दाश्त नहीं होती और एक हिंदीतर भाषी, हिंदी के लिए पूरा जीवन लगा देने वाली केरल की मूल निवासी, केरल विश्वविद्यालय की स्नातकोत्तर महिला, जिसने कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत के एक होने को प्रमाणित करने के लिए, एक अनजान और अनगढ़, देहाती गंवार हिंदी भाषी से दाम्पत्य की डोर बांधी और सफलता पूर्वक एक सच्चा जीवन साथी होना प्रमाणित किया, उसे सर्वोच्च न्यायालय तक से मिले न्याय के बावजूद व्यवस्था सम्मान देना तो दूर, न्याय तक नहीं दे पाती!
हमारी व्यवस्था की इससे बड़ी हार भला क्या होगी ?
- अजय मलिक, एम.ए., एलएलबी