मैं ढोता हूँ ...
मैं अपने कंधों पर
रोज अकेला,
अपनी लाश को
श्मशान घाट तक
ढोता हूँ
चिता सजाता हूँ और
दाह संस्कार के बाद
थके हारे कदमों से
लौट आता हूँ
घर पर फिर से
मेरी लाश
मेरी प्रतीक्षा में,
पलकें बिछाए मिलती है
मैं क्यों रोज मरता
याकि मार दिया जाता हूँ
रोज़ दाह संस्कार के बाद भी
मेरी लाश
मेरा पीछा छोड़ने से
क्यों कतराती है
अजय मलिक
१७/०४/२००७ कोचिन
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