07-01-1967 ..... 29-04-2020
मुंबई छूटने का इतना दुःख जून 1997 में भी नहीं हुआ था, जितना कल अचानक इरफान खान के आकस्मिक निधन की खबर से हुआ।
वो मेरा मुहब्बत का ऐसा दौर था, जब लपलपाती दहकती
शमा पर परवाना ये सोचकर क़ुर्बान होने से रुक गया कि कहीं शमा बुझकर धुँआ-धुँआ न
हो जाए !! फिर भी जब अचानक शमा बुझ गई, तो परवाना धुएँ की दहक में ऐसा झुलसा कि कहीं का न रहा। वो
शमा फिर कभी उसके लिए न जली ...और बस धुँआ बनकर रह गई।
कल ‘दुःख’ शब्द बहुत ही खोखला सा लगा। इरफान के निधन का समाचार आसमानी बिजली के गिरने से भी
कहीं ज्यादा कष्टकारी था। मैंने तत्काल डॉ चंद्रप्रकाश को लघु संदेश/एसएमएस
भेजा... सिराज को फोन मिलाया... वह सुनकर सन्न रह गया। दोनों को ही एकबारगी
विश्वास नहीं हुआ। फिर असीम चक्रवर्ती को फोन लगाया...असीम को खबर मिल चुकी थी और वे सदमे के कारण खुद को बात करने की स्थिति में नहीं पा रहे थे...
चेन्नई में सब कुछ मिला... कोलकाता...गाजियाबाद...दिल्ली .. पूरा देश देखने का
अवसर भी पिछले 23 सालों में मिला, मगर इरफान खान जैसा यार कहीं नहीं मिला और अब मिलेगा भी नहीं... सिर्फ 53 साल की उम्र भी कोई उम्र
होती है यार... हे राम ...
मेरा एक अजीज मित्र चुपके से कभी न मिलने की कसम खाकर दुनिया से जा चुका था... मैं पूरे दिन सिर्फ सोचता रहा... कुछ लिखना चाहता था... कहना चाहता था... रोना चाहता था ...
मेरा एक अजीज मित्र चुपके से कभी न मिलने की कसम खाकर दुनिया से जा चुका था... मैं पूरे दिन सिर्फ सोचता रहा... कुछ लिखना चाहता था... कहना चाहता था... रोना चाहता था ...
इरफान से मेरी अंतिम मुलाक़ात शायद नवंबर, 2013 में गोवा में फिल्म समारोह के दौरान हुई। वह
अंतरराष्ट्रीय फनकार बन चुका था, नाम, शान-ओ-शौकत पा चुका था । ‘लाइफ ऑफ पाई’ फिल्म समारोह की शायद उद्घाटन फिल्म थी। मुंबई छोड़े
मुझे 20 साल हो चुके थे, मुंबई में लोग मुझे खादी के कुर्ते-पाजामें में समाए दाढ़ीवाले गंजे के रूप में जानते थे। अब मैं सदाबहार गंजा बन चुका था। इरफान मुझे एकबारगी पहचान नहीं पाया था...
मैं उसकी फिल्में देखता रहा था। 2004 में मक़बूल से उसे और उसके
वास्तविक फनकार को असली पहचान मिली। इरफान अभिनीत पान सिंह तौमर, बिल्लू बारबर, लंच बॉक्स, ब्लैकमेल, हिन्दी मीडियम, पिकू और सबसे ज्यादा‘करीब-करीब सिंगल’ फिल्में मुझे बहुत पसंद आईं। अङ्ग्रेज़ी मीडियम भी देखी, जो लोक डाउन के कारण सही से प्रदर्शित ही नहीं हो पाई...
शायद 2007-08 तक उसका मोबाइल नंबर जो मेरे पास था, उसपर एसएमएस की अदायगी होती रही मगर उसके बाद उससे मेरा संपर्क टूट सा गया। 2018 में जब वह लंदन इलाज के लिए गया, तब मैंने बहुत कोशिश की उसका मोबाइल नंबर
पता करने की मगर संभव नहीं हो सका। लंदन में मेरा छोटा भाई रहता है। मैं इरफान की
कुछ मदद करना चाहता था। अजय ब्रह्मात्मज के पास उसका नंबर था, जिसे देने से उसने इंकार कर दिया। एक जमाने में जब मैं नौशाद के इंटरव्यू के लिए गया था, अजय ब्रहमात्मज फोटोग्राफर के किरदार में
मेरे साथ थे...
दस दिन पहले ही डॉ चन्द्रप्रकाश से बस यूं ही मुंबई आने-जाने को लेकर कुछ चर्चा हो रही थी। लॉक डाउन न हुआ होता तो
शायद मैं एक बार फिर मुंबई का चक्कर लगा चुका होता और इरफान से ये शिकायत भी कर
चुका होता कि देख भई, मैं तो नहीं बदला, मगर बहुत सारे लोग कब के बदल गए... तुमने भी नाम में रफ्तार वाला एक र और जोड़ लिया... मगर
वो मुहब्बत का ऐसा दौर था जब हर कोई मुहब्बत करता था। सु से लेकर स तक। सं से
लेकर संज तक। अ से लेकर बड़की तक। पड़वा से लेकर पंचमी तक । अमावस्या से लेकर पूर्णिमा तक। म
से लेकर अ तक। पुरवा से पछुवा तक...
और हम सब भी, … आवाज़ से लेकर आँखों तक, मुहब्बत के मक्खन से लबालब हुआ करते थे । किसी ने कहा था- इतनी मुहब्बत मत बाँटो कि कभी जब भविष्य में जरूरत पड़े, तो पिटारा खाली मिले !! सबको सब कुछ दिखता था, पर सब चाहते थे कि किसी तरह सिर्फ़ एक बार कहे तो
सही...परवाना जले तो सही...मगर शमाएँ जलती रहीं, परवाना जला तो, पर जलती लौ तक न जा सका।
उस वक्त फिल्म पत्रकारिता कलमतोड़ अंदाज़ में पूरी रवानी पर थी। नाम से लोगों को परेशानी होने लगी तो मित्रों की सलाह पर कई और नाम जोड़ दिए- इकबाल, संजीत, पंकज, अनुजेय ...और न जाने क्या-क्या...यहाँ तक कि पहले फिल्म समारोह की कवरेज पर जो
नाम गया वह विवादों का कारण बन गया। गुमनाम नामवाले ने बहुत एतराज़ किया कि कैसे उसके
नाम का इस्तेमाल किया गया ... हालांकि तब तक व्यक्तियों के नाम का इस तरह का सर्वाधिकार
सुरक्षित नहीं हुआ करता था...
राहुल देव, सिराज सय्यद, धीरेन्द्र आस्थाना, संजय निरूपम, रेखा देशपांडे, असीम चक्रवर्ती, संजय मासूम, लालमणि मिश्र ... ये सब अखबारों के
प्रतिष्ठित नाम थे। ये लिखने के लिए कहते, प्रेरित करते और मैं लिख मारता। उस दौर में जनसत्ता और नवभारत टाइम्स बंबई/ मुंबई के प्रसिद्ध हिन्दी दैनिक
हुआ कराते थे। मैंने नवभारत टाइम्स में कभी नहीं लिखा।
दिन में दफ्तर का काम और दफ्तर बंद होने के बाद फिल्मों के प्रेस शो, पार्टियां आदि... सामान्यत: रात के 12 बजे से पहले अंधेरी पूर्व स्थित अपने सरकारी आवास पहुंचना नहीं हो पाता था... और फिर सुबह के 2 बजे तक लेखन चलता। जनसत्ता की तूती बोलती थी ... चार संस्करण दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चंडीगढ़... फिर संझा जनसत्ता भी शुरू हुआ...
मैं सबरंग के लिए चाणक्य धारावाहिक पर आमुख कथा/ कवर स्टोरी कर रहा था और अक्सर रात होते-होते फिल्म सिटी में चाणक्य यानी डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के पास उनके
सैट पर पहुँच जाया करता था। एक दिन वहीं सिराज भी एक दृश्य में फिल्मांकन के लिए आए हुआ थे। उनके साथ एक नया चेहरा... लंबा छरहरे बदन का लड़का सेनापति भद्रसाल का मेकअप किए शॉट के लिए तैयार बैठा था।
बहुत बड़ी-बड़ी आँखें ... अपनी उम्र से कई गुना ज्यादा बड़ी आँखों वाला
वह लड़का राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय (एनएसडी) का स्नातक हाल ही में मुंबई आया था। बातचीत शुरू हुई... तो तनिक संकोच से परिचय देते हुए बोला -
इरफान खान।
मैं उस समय एनएसडी, दिल्ली और एफ़टीआईआई, पुणे से आने वालों से बहुत ज्यादा प्रभावित था ... वस्तुत: उनसे मुझे सीखने को मिलता
था... कहाँ मैं एक गाँव देहात का ठेठ घसियारा और कहाँ ये जगमगाती रुपहले परदे की
दुनिया की ओर दौड़ते बेहद उत्साही और मंजे हुए प्रशिक्षित कलाकार ...आज भी खुद को
घसियारे से अधिक नहीं समझ पाता हूँ...गाँव में बिटौड़े-बोंगे, ओसारे की छान बांधने तक का काम किया था... सचमुच में कई बार खुरपे या खुर्पी से घास
भी छीली थी...
इरफान से बात होती रही, चाणक्य में उसकी भूमिका पर संक्षिप्त चर्चा के बाद किस्सा एनएसडी पर ही ज्यादा केन्द्रित रहा। पता नहीं क्या बात थी उस शख्स की वाणी में कि वह
मन में सदा के लिए बस गई। जनसत्ता में शायद बहुत छोटा सा इरफान का साक्षात्कार
प्रकाशित हो पाया।
मैं संतुष्ट नहीं था, मगर इरफान को कोई शिकायत नहीं थी। इससे पूर्व मैं शशि कपूर और नसीरुद्दीन शाह के
बहुत लंबे साक्षात्कार कर चुका था। भूलिएगा नहीं ये 1991-92 की बात है। उस समय समाचार पत्र यानी
अख़बार ही हुआ करते थे... समाचारों के चौबीसघंटिया चैनल नहीं थे। सिर्फ प्रिंट मीडिया और अधिकांश काली स्याही से छपने
वाली खबरें... खबरों को लगातार घिसते रहने का चलन नहीं था। उसके बाद राष्ट्रीय सहारा में इरफान का
साक्षात्कार और एनएसडी से जुड़ी एक परिचर्चा प्रकाशित हुई।
इरफान से जब भी मुलाक़ात या चर्चा होती एक नया उत्साह, नई ऊर्जा उसमें देखने को मिलता... शायद कांदिवली
में एक छोटे से फ्लॅट में उसका सपरिवार बसेरा था। वह अकसर कहता था- मलिक, तुम कभी बदल तो नहीं जाओगे ...पता नहीं उन दिनों मुझ फटीचर घसियारे को वह इतना महत्वपूर्ण क्यों समझता था !
मुझे 1993 में संयोग से भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म
महोत्सव में बतौर फिल्म समीक्षक जाने का अवसर मिला। मैं 19 दिसंबर, 1992 को ही एनसीईआरटी के एक पाठ्यक्रम निर्माण के लिए मुंबई
से दिल्ली पहुँच चुका था। इस बीच 01 जनवरी, 1993 तक कुछ ऐसा हो चुका था, जिसे नहीं होना चाहिए था !!
20 जनवरी, 1993 को सिरी फोर्ट से विदा ली और शायद 22 जनवरी को मुंबई पहुंचा। वीआईपी का 32 इंची सूटकेस अपनी सबसे बड़ी तिजोरी हुआ करता था। उसमें सब लिखा पढ़ा भरा होता था। मुंबई से दिल्ली आते समय सब अच्छे से
सूटकेस में बंद किया था, मगर वापसी में मूषक महाराज की ऐसी कृपा हुई मिली कि विज्ञापनों में हाथी चढ़ने से भी न टूटने वाले वीआईपी सूटकेस को चूहे जी ने एक कौने से काटकर अंदर प्रवेश की सुविधा सृजित की और
अंदर जो भी हस्तलिखित आदि था सब कुतर डाला... इतना ही नहीं उसी सूटकेस में प्राण भी
त्याग दिए। गाँव में सुनी नल-दमयंती की कथा याद आई, जिसमें एक खूंटी नौ लखा हार निगल जाती है।
बुरा वक्त था याकि प्रभु ‘प्रेम मग छाके पग’का अनुभव रूपी प्रसाद देना चाहते थे। शायद मार्च-अप्रैल 1993 की घटना थी, मन बेहद उदास था। सिराज शायद सिंगापुर जा चुके थे या जाने की तैयारी में थे। छुट्टी का दिन था...फोन करने के लिए मुझे सीप्झ के मुख्य द्वार/ मेन गेट तक आना पड़ता था। मैंने इरफान को फोन मिलाया- भई इरफान, मन बड़ा उदास है यार... वह दिल की बात समझ लेता था। आधे पौने घंटे में वह अपनी
मोटर साइकिल के साथ हाजिर था। बहुत लंबी चर्चा चली, उम्र में वह छोटा जरूर था, मगर अनुभव में बहुत बड़ा था ... बेहद गंभीरता से बोला- मलिक, जो भी हो, तुम कभी बदलना मत...
मेरे आवास में एक डेढ़ फुट चौड़ा पुराना खुरदरा दीवान, एक पुरानी कबाड़ से खरीदी कुर्सी, अंटोप हिल से खरीदी गई एक फ़ोल्डिंग मेज और फर्श पर बिछा तीन-चार फुट चौड़ा गद्दा भर हुआ करता था। रसोई
में खाना पकाने का पूरा इंतजाम था। मैं खिचड़ी बनाने में खुद को पारंगत समझता था। कुकर भरकर खिचड़ी बनाई और दोनों ने उसी फर्श पर बैठकर खाई। उसकी सादगी का मैं दीवाना था।
फिर मुंबई छूटा... मगर उससे पहले वीरेंद्र सक्सेना के एक साक्षात्कार के
जनसत्ता के चारों संस्करणों में छपने के बाद कुछ ऐसी बात हुई कि फिल्मी लोगों के
प्रति मेरा मोह भंग हो गया... विशेषकर एनएसडी वालों को लेकर जो एक सकारात्मक
पागलपन सवार था, वह खत्म हो गया... मैंने फिल्म पत्रकारिता या लेखन से ही स्वयं को अलग कर दिया...
कार्यान्वयन और हिन्दी का पागलपन लगातार बढ़ता गया... मुझे प्रवाह में धकेला जा चुका
था और मैं अधिगम यानी सीखते चले जाने की अनवरत प्रक्रिया का अटूट हिस्सा बन गया ।
कल इरफान के असामयिक निधन के बाद अचानक कहानी की धुरी ही टूट
गई ... मैं उसे यह कहानी सुनाना चाहता था और बताना चाहता था कि इस अधूरी कहानी के
बावजूद मैं जरूर उनसठिया तो गया हूँ, लेकिन बदला कतई नहीं हूँ...
तुम एक महान कलाकार और उससे भी महान इंसान थे इरफान... लोग
जब भी तुम्हारी फिल्में देखेंगे, तुम्हें हमेशा मोतीलाल और बलराज
साहनी के साथ याद करेंगे...
-अजय मलिक (c)
आदरणीय
ReplyDeleteप्रणाम।
एक महान कलाकार के लिए इतने प्यारे आत्मीय शब्दों की पुष्पांजलि से पता लगता है कि आप उनके कितने करीब रहे होंगे। यादों के कारवाँ से गुजरते हुए ऐसा लगा कि जैसे मैं भी इस कहानी का शायद पात्र हूँ। बड़े कलाकार बनने की की होड़ में इरफान कभी नहीं पड़े और यही चीज उन्हें बाकी सब से बहुत बड़ा बनाती है। मेरी संवेदना इरफान जी के परिवार और उनके सभी आत्मीयजन के साथ हैं जिन्हें इस बिछोह बेला में रह रह कर उनके सानिध्य पलों की स्मृति बयार व्यथित कर रही होगी।
बड़े गौर से जमाना सुन रहा था
तुम्ही सो गए दास्तां कहते कहते।
हे प्रभु उनकी आत्मा को परम शांति दे।
आपने कुछ लिखने के मेरे अनुरोध को स्वीकार करके कृपा की है। आशा है अब आप निरंतर लिखते रहेंगे।
सादर
जी बहुत बहुत आभार।
Deletewaah!
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है श्रीमान! आरंभ से अंत तक शब्द प्रति शब्द पढ़ा। आपकी स्मृतियों की यात्रा हो गई। 5 मई 1989 से मार्च 1991 तक मैं भी रेल सेवा के सिलसिले में मुंबई में रहा हूं। स्वर्गीय इरफान खान को विनम्र श्रद्धांजलि!
ReplyDeleteजी शुक्रिया ।
Deleteमलिक जी आपके लिए मेरे पास लिखने को शब्द नहीं है लेकिन फिर भी मैं कोशिश कर रहा हूं। मैं इरफान खान साहब से तो नहीं मिला लेकिन जब मेरा आपसे पहली बार साक्षात्कार हुआ तब मैं आपके घर गया था। 3 घंटे मैंने आपके यहां बिताएं । मेरा संपर्क आपसे बेटी रिचा के माध्यम से हुआ। मैंने उस दिन 3 घंटे आपको सिर्फ हिंदी के लिए समर्पित देखा । जब आप हिंदी पखवाड़ा के दौरान आप हमारे विद्यालय में मुख्य अतिथि के रूप में आए हिंदी के प्रति जो आप का समर्पण मैंने देखा और उसके बाद 5 दिन की कार्यशाला संगणक पर हिंदी का प्रयोग कैसे किया जाए में साथ गुजारे वे लाजवाब थे लेकिन वह लाजवाब होने के साथ-साथ वह मेरे मन पर आज भी वैसे ही अंकित हैं जैसे कि सजीव चित्र मेरे सामने चल रहा है। हिंदी की तकनीकी दुनिया में मैं उस समय बिल्कुल नया था लेकिन उस कार्यशाला का यह प्रभाव हुआ कि आज मैं हिंदी के क्षेत्र में बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन कम से कम इतना आत्मनिर्भर हूं कि मुझे किसी से मदद देने की जरूरत नहीं पड़ती है और जब भी मुझे कोई संदेह होता है तो मैं आपसे कॉल करके फोन पर भी सारी सूचनाएं आप से ले लेता हूं। आपसे संगणक पर हिंदी का प्रयोग सीखने के बाद मैंने वहां के जितने भी बच्चे थे उनको हिंदी सिखाने का हिंदी लिखने का और संगणक पर हिंदी का प्रयोग सिखाने का प्रयास किया और आज वही बच्चे हिंदी में कविताएं लिखकर मुझे भेजते हैं तो मुझे बड़ा आनंद का अनुभव होता है । यह सब आपके ही कुशल मार्गदर्शन की वजह से संभव हुआ। आप जितने बाहर से सौम्य और सरल दिखाई देते हैं उतने ही आप बहुत नेक दिल इंसान हैं । इमरान खान जी के लिए आपकी दोस्ती पर लिखा गया यह लेख बहुत ही अच्छा है और उसके लिए मैं कहना चाहूंगा-
ReplyDeleteचाह कर भी हम उनको भुला नहीं पाए
खबर सुनी जब उनकी विदाई की
आंख भर आईं लेकिन आंसू नहीं आए।
सादर
संजय धाकड़
प्रशिक्षित स्नातक शिक्षक हिंदी
केंद्रीय विद्यालय क्रमांक 2 आगरा
आदरणीय सर,
ReplyDeleteआत्मीयता के भाव से लिखा गया यह वृतांत सही मायने में जीवंत वृतचित्र उकेरने के साथ ही आपकी अनवरत अध्ययन की प्रवृति एवं रिश्तों को सच्चे अर्थों में निभाने की भावना का परिचायक है।
आपकी सहजता,आपकी स्वभावकिता एवं आपकी सहृदयता को सादर नमन।
आदरसहित,
प्रमोद बर्मन
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ReplyDeleteआदरणीय सर,
ReplyDeleteप्रणाम
आत्मीयता के भाव से लिखा गया यह वृतांत सही मायने में जीवंत वृतचित्र उकेरने के साथ ही आपकी अनवरत अध्ययन की प्रवृति एवं सच्चे अर्थों में रिश्तों को निभाने की मनोवृत्ति का परिचायक है।
आपकी सहजता,आपकी स्वाभाविकता एवं आपकी सहृदयता को सादर नमन ।
आदरसहित ,
प्रमोद बर्मन
वाराणसी
मार्मिक, बहुत सुंदर।
ReplyDeleteमार्मिक, बहुत सुंदर।
ReplyDelete