पता नहीं क्यों मैं ऐसा सोचने को विवश हूँ...चीन से चलकर कोरोना वायरस विश्व भर में पसर गया, मगर वुहान में नियंत्रित होने के बावजूद नियंत्रण का तरीका वुहान याकि चीन से बाहर नहीं आ सका... क्यों?
क्या इसे चीनी भाषा मंदारिन द्वारा तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय भाषा अँग्रेजी के वर्चस्व को धूल में मिला देने का ठोस प्रमाण नहीं माना जा सकता !!!
चीन अँग्रेजी से सबकुछ लेता है और मंदारिन में सँजो देता है, लेकिन मंदारिन से अँग्रेजी को वापस कुछ नहीं देता ! कहते हैं चीनी भाषाए इशारों की भाषाएँ हैं। उन्हें पूरी तरह कोई नहीं जानता। चीनियों के अलावा अन्य कितने लोग चीनी भाषाओं को जानते हैं?
भारत अँग्रेजी पर अत्यधिक आश्रित देश है। अपनी भारतीय भाषाओं में अपनी समस्याओं पर वैज्ञानिक शोध मुझे लगता है यदि शून्य नहीं भी है तो अधिकतम शून्य से 1 के बीच ही होगा।
अँग्रेजी सोच के साथ जहां अमेरिका कोरोना का रोना रोने तक सीमित है वहीं भारत के माननीय प्रधान मंत्री मोदी जी की 21 दिन सामाजिक दूरी रखने की सोच विशुद्ध भारतीय सोच है।
हमें अँग्रेजी पर आश्रित रहने की मानसिकता से बाहर आना होगा और अपनी भारतीय सोच को भारतीय भाषाओं के माध्यम से स्वीकारते हुए उसके विकास के लिए हर संभव प्रयास करना होगा।
हम अनंतकाल तक संसार के लिए प्रयोगशाला भर बने नहीं रह सकते। हमें अँग्रेजी के साथ-साथ चीनी भाषाओं को भी अपनी पकड़ में लेना होगा। चीनी, रूसी, जापानी, कोरियन भाषाओं से अधिकतम ज्ञान विज्ञान को अपनी भारतीय भाषाओं में सँजोकर आगे बढ़ाने की प्रवृत्ति विकसित करनी होगी और ऐसे हालात पैदा करने होंगे कि अँग्रेजी सहित चीनी, रूसी, कोरियन, जापानी आदि सब भाषाएँ, भारतीय भाषाओं की आश्रित होने को मजबूर हो जाएँ।
हमें चीन से कोरोना के बहाने ही सही, यह चतुराई सीखनी होगी। आज सम्पूर्ण विश्व एक बाजार बन चुका है। इंसानियत का व्यापार नहीं होता। बाजार खरीदने से अधिक बेचने से लाभ कमाता है।
हमें शीघ्रातिशीघ्र अपनी भाषाओं को बाजार के लिए तैयार करना होगा। तभी हम चीनी या अमेरिकी किसी भी वाइरस और उसकी वैक्सीन से अंतिम लड़ाई लड़ने और जीतने में सक्षम हो सकेंगे।
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