अरे बुढ़ापे
अरे बुढ़ापे
कब आए तुम
जान न पाया
आज अचानक
देख आपको
बीता कल फिर
सम्मुख आया
और यही बस
मैंने पाया ...
लगा अचानक
जिसे कह रहे
...सपना कल का
झूठ नहीं था
तुम झूठे थे
मैंने कहा -
दिवास्वप्न क्या
मैंने देखा
बस इतना भर
सोच लिया था
आएगा तू
प्यार भरा सा
सत्य नाम की
लिए पताका
सोच लिया था
तू मेरा है
...हो जाएगा
नहीं जानता था
पर इतना
सपना मेरा
छल जाएगा
किया आज जो
तूने हंसकर
सपने में तो
कहीं नहीं था
मैंने देखा
पुनः अचानक।
तू भी वही
पुराना कल है
दिवास्वप्न
तू ही बस छल है
वह कल
जब मैंने था
तुझे शांत
सागर सा सोचा
...धोखा
धोखा ...
भाव हीन सा
निर्मल कोमल
वह कल बीता
सत्य वहीं था
आज कहूं क्या
मेरे जीवन
शब्द नहीं हैं
जिससे मिला
वही सपना था
होता न तो
हो जाता था
- शांत झील की
किसी लहर से
पंछी सा बन
उड़ जाता था
रह जाता था
वही अकेला
दूर सभी से दूर
उद्दिग्न,
आवेश भरा सा
नितांत अकेला;
मैं...
-पर कोमलता
तुझे बधाई
सदा मुझे
तूने ढक दाबा
साथ दिया न
घृणा का तूने
जिससे मिला
लगा अपना है
सब खो बैठा
इसी चाह में
आज लगा कि
सब सपना है
वह भी झूठा
सत्य कहाँ है
वह भी देखा
कब चाहा
लोगों ने मुझको
करता रहा
उसे अनदेखा
नकली चेहरे
हँसते देखे
मन का रोना
किसने देखा
... वासना;
कहाँ छुपाया तुझको
तेरी स्नेहिल सी; रेखा भी
बता तनिक तो
कभी किसी ने देखी!!
जितना अधिक
प्यार से बोला
सब ने उतना ही
मुख खोला
अधिक व्यंग
अत्यधिक दिलासा
सभी साज संग
भरे गीत
स्वरहीन
अदा से कहते
सुनले महत्त्वहीन
अनदेखे
मैंने यह भी
किया सुरक्षित
पास सभी
पहले से भी था
- जलते दिन
औ’ चलती लुएं
पाले भरी सुबह
कोहरे की चादर में
रात चांदनी
प्रतीक्षारत
सबके सब बंधित
ठूँठ वृक्ष
बसंती शाम
अकाल मृत्यु भी
रोते बच्चे
बिलखती माएँ
अणु बस से
जलती धरती
फटती चट्टानें
बहता मलवा
किसी शिकारी की
गोली से
घायल मृग शिशु
-और सभी कुछ
किंतु
एक आह सी
सदा खींचकर
इंतजार से
तुझे निहारा
दूर बहुत
जैसे कोई तारा
था तू ।
पर कितना पाखंडी
अरे पाखंडी
तेरी आहटें
हर आहट पर
उदास शाम के
साथ खड़ा तू
कितना भोला
दीख रहा था
सच,
तू प्यारा भी था
मुझको
पर तूने भी
किया वहीं क्यों?
जो जीवन भर
सहता आया
सालता आया
आह! आशा
तू क्यों आई थी
किसने तुझे
सुझाया
यह सब
अरे निराशा...
प्यार भरी
स्नेहिल छवि
कहां गई तू !
अरे मनीषा
भूल गया मैं
भटक गया मैं
रहा अकेला कभी नहीं
ना साथी ही
कोई मिला
मुझे
आए तो भी
चले गए सब
देकर साथ कुरेद
उसके संग
नए घाव
गहरे तीखे
कुछ पहले के
परत पलट कर
पुन: हराकर गए
नई दिवाली
पुराने दाने
सब वादों के
ताने-बाने
विरह वेदना
जो प्यारी थी
आज नहीं है
कहां कामना
कहां रूप अब
यौवन का वह
गर्व कहां अब
बन चिर साथी
साथ खड़े तुम
झूठे...
कपटी ...
अरे बुढ़ापे !!
-अजय मलिक
१४-०१-१९८३
सायं ०३.०८
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