यूँ तो मुझे शायद हक नहीं है कि कुछ सोचूँ मगर कभी-कभी
परिस्थितियाँ मजबूर कर देती हैं,
सोचने के लिए और तब न चाहते हुए भी मैं सोचने लगता हूँ। बार-बार भरसक प्रयास करता
हूँ कि सोचने का यह कष्टसाध्य क्रम ठहर जाए,
थोड़ा विराम ले पर जब एक बार यह शुरू होता है तो फिर क्या मजाल कि रुक जाए। मानो
सारा ब्रह्मांड सामने आ जाता है,
लोक-परलोक, आकाश-पाताल,
स्वर्ग-नर्क कुछ भी तो नहीं छूटता। बस छूट जाता है पसीना और अपार ब्रह्म में न
जाने कहाँ खो जाती है नींद। फिर नींद को ढूँढते-ढूँढते कई और चक्कर लग जाते हैं
जाने कितने ग्रह, नक्षत्र और तारों
के...सितारों के पार, चाँद के उस ओर कहीं
कुछ नज़र नहीं आता, थक-हार कर न जाने कब
कुछ बेहोशी सी छा जाती है।
कुछ लोग अच्छे लगते हैं, न जाने क्यूँ वे अच्छे लगते है?
वे कुछ अच्छा न भी करें तब भी अच्छे लगते हैं। कुछ बुरे लोगों को भी यह अहसास दिलाने
की कोशिश मन मारकर करनी पड़ती है कि वे भी अच्छे लगते हैं। वे बुरे क्यूँकर लगते
हैं, इसका भी कोई सही-सही जवाब नहीं मिलता। चाहे
उन्होंने कुछ बुरा लगने जैसा न भी किया हो तब भी वे बुरे लगते हैं। मन सभी को तो
मनमाफिक नहीं पाता, नहीं मानता, और जिन्हें नहीं मानता उनसे मन से बात कैसे की जा सकती है भला! बेमन से
बात करना भी तो किसी सज़ा से कम नहीं।
काम,
क्रोध, लोभ,
मोह पर नियंत्रण रखने का उपदेश हमारे ऋषि-मुनियों ने दिया है। यह नियंत्रण क्या है? क्या यह प्रतिबंध है याकि व्यवहारिकता?
क्या काम के बिना जीवन अथवा सृष्टि संभव है?
क्या क्रोध के बिना मनुष्य रह सकता है?
क्या लोभ और लाभ की कामना के बिना किसी स्वस्थ मस्तिष्क का अस्तित्व हो सकता है? क्या माया-मोह के बिना कोई रह पाया है?
क्या ये चारों मानव प्रवृत्तियाँ शून्य हो सकती हैं?
यदि नहीं तो तो इनका परिष्कृत रूप क्या है?
क्या सिगमंड फ्रायड का संपूर्ण मनोविज्ञान और मासलो का आवश्यकताओं का सिद्धांत
इन्हीं चारों मानव प्रवृत्तियों की व्याख्या मात्र नहीं है!
मैं इसी लिए सोचने के मोह का लोभ संवरण नहीं कर
पाता क्योंकि स्वयं को निष्काम नहीं पाता और फिर क्रोध आने लगता है अपने-आप पर भी
और सारे संसार पर भी। फिर सोचता हूँ- मनुष्य मात्र ही तो हूँ, संतुलन के स्तर पर अगर चारों प्रवृत्तियों से ग्रस्त हूँ तो स्वस्थ हूँ, असंतुलन न हो तो काफी है। हम इन प्रवृत्तियों पर एक सीमा के पार नियंत्रण
का प्रयास कराते हैं मगर क्या हर बार सफल हो पाते हैं? ... क्या मैं
सफल हो पाता हूँ? शायद मुझपर मेरा मैं
हावी हो जाता है।
कभी-कभी घिन सी आने लगती है... अति स्वार्थपरता, अत्यधिक बेशर्मी, अत्यधिक अहंकार...जब
ऐसे किसी से मिलने, बात करने, उसकी हाँ में हाँ मिलाने की मजबूरी झेलनी पड़ती है... कुछ ऐसे लोग भी हैं
संसार में जो बस हैं ही नहीं, शायद सर्वव्यापी से
हो गए हैं, जिन्हें देखने भर से मन में तनाव भर जाता
है... जिनकी बातें सुनकर चेहरा तमतमाने लगता है और मुस्कुराते रहने की विवशता में
माथा फटने लगता है। ये लोग भूल जाते हैं... कुछ भी भूल जाते है मगर अपने मतलब की
बात कभी नहीं भूलते... वे कर्ज़ लेकर भूल जाते हैं...किसी का उपकार भूल जाते हैं… किसी की रोटी, किसी की सहृदयता, किसी की छाछ भूल जाते हैं... मगर अपने जूतों से झाड़ी हुई गंदी मिट्टी के
एक-एक कण तक का हिसाब उन्हें सदैव बखूबी याद रहता है। वे ईश्वर को भूल जाते हैं
मगर ईश्वर को भोग लगाए एक-एक दाने का हिसाब उन्हें याद रहता है...वे सफाई पर शोध
प्रबंध तैयार करते हैं मगर उनके जीवन का अधिकांश भाग न साफ की जा सकने वाली गंदगी
का अटूट हिस्सा बन चुका होता है।
किसी से वादा कर वादाखिलाफी हो जाने का डर, मुझे बहुत सताता है। किसी का छोटा सा उपकार मुझे हमेशा के लिए नतमस्तक कर
देता है। किसी से मिला ज्ञान मुझे उसका भक्त बना देता है। इस सब से शांति मिलती
है...एक आदमी होने का एहसास मन को शुकून देता है। छोटी-छोटी और कभी-कभी बड़ी
गलतियाँ भी होती हैं, उन्हें सुधारने के
बाद और अधिक मन निर्मल हो जाता है। इस निर्मलता को फिर किसी को देखने भर सा झटका
सा लगता है और फिर वही बात... यह अच्छा और बुरा क्यूँ लगता है। लोग जो मिलते हैं
वे तब ही क्यों याद रहते हैं जब वे बुरे या अच्छे होते या लगते हैं? बुरे लगने वाले तनाव से नींद हराम करते हैं और अच्छे लगने वाले चैन से
नींद भागा देते हैं... जो मन को भा जाते हैं उनसे मिलना चाहकर भी मुलाक़ात नहीं
होती और जो अच्छे नहीं लगते वे हैं कि जबरदस्ती मिलते जाते हैं...
किसी का मन मोह लेने के लिए क्या संसार भर की दौलत
चाहिए...याकि संसार भर की दौलत वाला मन मोह सकता है... ऐसी संगत जो चिंता मुक्त कर
दे...ऐसी सोच जो तनाव न दे... ऐसा इंसान जो मुस्कुराते हुए अच्छा लगे और गुस्से
में और भी हँसाए... जिससे हाथ मिलाने पर शक्ति का संचार हो...कुछ नूतनता का एहसास
हो, कुछ नया करने का मन चाहे... जिसके साथ काम
की चिंता न हो, क्रोध की कल्पना न हो, मोह हो तो बस मिलने का, लोभ हो तो मिलते रहने का... वह’ अगर साम, दाम, दंड, भेद से भी मिले तो चाहिए...। -और एक ऐसा
इंसान जिससे लोलुपता टपके... जो क्रोध की अग्नि को दहकाए... जिसके लोभ से सारे मोह
भंग हो जाएँ... उससे अगर साम, दाम, दंड, भेद से भी मुक्ति न मिले तो ...
क्या साम,
दाम, दंड,
भेद मात्र चाणक्य नीति है? व्यवहार के ये ही तो
चार ढंग हैं, संसार इन्हीं से तो चलता है... क्या यह सही
है कि कुछ भी, कोई भी पूरी तरह सही नहीं हो सकता और कुछ
भी पूरी तरह सही नहीं किया जा सकता... विनम्रता और कुटिलता में भेद करना क्या आसान
है? विनम्र और कुटिल दोनों मुस्कुराते हैं...
कुटिल मुस्कुराहट शायद कहीं ज्यादा गहरी हो सकती है...
सोच रुकती नहीं है…
चलती चली जाती है, अविराम, अबाध, अनंत...जब-जब किसी अनचाहे से मिलने की
मजबूरी होती है।
मगर,
जब वक्त का पता न चले, जब चिंतन रुक जाए, बस समय चुपके से भागता चला जाए... तब?
क्या यह तब होता है जब किसी इंसान या पाषाण में भगवान मिल जाते हैं?
26-01-2012
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