Jul 30, 2022

मैं आज थक गया हूँ

सच खूब पक गया हूँ 

मैं आज थक गया हूँ 

यूँ साँस बची है अभी 

कुछ आस बची है अभी।  


पर राह मिट गई 

सब चाह मिट गई 

कदम लड़खड़ा गए 

कि पर फड़फड़ा गए । 


कहीं दूर आसमान में 

जाने किस बियाबान में 

सब तार तार हो गया 

तटहि मझधार हो गया । 


सारे आसरे बिसर गए 

फूल राख बन बिखर गए!

-अजय मलिक  (c)


A Tear of separation

All of us have 

All the Sorrows, sufferings 

And the sweet memories too

With full of joy and happiness .

We all live with cheating,

Lying and justifying.

Some of us are crying, 

Few are trying, tricky fake smiles,

And some of us are just 

Suppressing everything.

But we all are afraid, 

Not have courage 

To accept the truths that 

Ultimately, there is 

An end, 

A finishing point, 

A final stoppage 

And that end 

Decides the value of our lives

Our breaths, heart beats, our loves

Our conclusions … 

And that one unfinished task, 

We want to finish before dying-

A Last Hug, A final Kiss or just 

A Tear of separation, forever.

- Ajai M. (c)

25/06/22, 05.29 AM

न जाने ये कैसी मँझधार

न जाने ये कैसी मँझधार, 

न डूबे, ना पहुँचे उस पार,

इक इक बूँद तरस गयी धार

क्यूँ राही ठहर गए थक हार !


जिधर देखो बस खरपतवार 

महकते फूल बने हैं खार

नाड़ पर रख देते तलवार

कि दुश्मनी खूब निभाते यार !


किसी से नहीं कोई तकरार

रात दिन फिर भी होते वार

बदलते रोज-रोज रंगरेज़

किसी को किसकी है दरकार!


राह चलने तक चलती प्रीत

बेसुरे लगते हैं सब गीत

कहाँ से आयी ऐसी रीत

कोई तो पल भर करे विचार!


-अजय मलिक (c)

ज़िद में जान ....

कहा सुना सब रह जाता है 

ज़िद में जान चली जाती है ।


कोई नशे में सो जाता है,

कोई ख़्वाब में खो जाता है,

नींद किसी की उड़ जाती है ।

ज़िद में जान चली जाती है ।


रूठ मनाकर, कहीं सुनाकर

भूल भटक कर घर आता है,

प्यास आस की रह जाती है।

ज़िद में जान चली जाती है ।


सूरज उगता फिर ढल जाता,

सबको उजला दिन भाता है,

फिर भी रात चली आती है ।

ज़िद में जान चली जाती है ।


प्यार यार बस तड़पाते हैं,

अपनी राह सभी जाते हैं,

दिल की चाह नहीं जाती है ।

ज़िद में जान चली जाती है ।


कहा सुना सब रह जाता है !


-अजय मलिक “निंदित” (c), 

केरलापुरम , १९ जून, २०२२

अब ना जाने....

अब ना जाने

क्योंकर यादें 

चुपके चुपके 

खो जाती हैं ।


सूने पथ को

हरदम तकतीं

खोई अँखियाँ 

रो जाती हैं ।


लोग लफ़ंगे 

ज़ालिम जग है

भूलें अक्सर 

हो जाती हैं ।


सुनते सुनते 

झूठे वादे 

बस तकलीफ़ें

हो जाती हैं।


सबको अपना

मान मान कर

बाकी बतियाँ 

सो जाती हैं ।


है उन्हें पता 

सब कच्चा चिट्ठा 

बस अरज़ी ही

खो जाती हैं ।


कौन सुनेगा

खरी खरी, जब

बातें नकली 

हो जाती हैं ।

-अजय मलिक  (c)