(राहुल जी की यह पोस्ट फ़ेस बुक से साभार )
यह पोस्ट सामान्यतया सबके लिए और खास तौर पर एक राजेश शर्मा के लिए है जिन्होंने हमारे जारी भाषा संवाद में एक जगह लिखा कि अंग्रेजी ने हिन्दी के 6.5 लाख शब्द लिए हैं तो हिन्दी वाले इतना क्यों चिल्ला रहे हैं। उन्होंने उत्सुकता जगाई और हमने कुछ तलाशा तो यह मिला।
अंग्रेजी शब्द संख्या के अनुमान 2.5 लाख, 7.5 लाख (ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी) और अधिकतम 10,13,913 (स्रोतः ग्लोबल लैंग्वेज मॉनिटर, 1 जनवरी,2012 तक) हैं।
हिन्दी शब्दों के अनुमान 1.20 लाख से 2 लाख और एक पूर्णतः अपुष्ट, संदर्भ-स्रोतहीन अनुमान के अनुसार 7.5 लाख हैं।
1886 में दो अंग्रेजों यूल और बर्नेल ने एक प्रसिद्ध शब्दकोश निकाला - हॉबसन जॉबसन। इसमें अंग्रेजी राज के दौरान अंग्रेजी में शामिल किए गए हिन्दी, उर्दू, पुर्तगाली, अरबी फारसी आदि के शब्दों को शामिल किया गया था। इसमें लगभग 2000 प्रविष्टियां हैं। यह अद्भुत ग्रंथ है, और मेरे पास है।
अब अंतिम बिन्दु जिसको लेकर बहुत से हिन्दी वाले हमारे जैसों को शुद्धतावादी, क्रुद्धतावादी वगैरह कह कर गरियाते, लजाते, फटकारते रहते हैं। कल दिलीप मंडल ने भी मेरे प्रतिवाद में लंबी बात करते हुए इसका ज़िक्र किया था। आज के अंग्रेजी के दुनिया में सबसे प्रामाणिक शब्दकोश ऑक्सफर्ड में हिन्दी के कितने शब्द हैं, या भारतीय भाषाओं के कितने शब्द हैं...खोजने पर जो संख्या मुझे मिली है वह है लगभग 700।
ये सारे लगभग वे शब्द हैं जो अद्वितीय और अनूठे ढंग से ठेठ भारतीय हैं। ये अंग्रेजी के आम शब्दों के भारतीय विकल्प नहीं हैं। इनसे अंग्रेजी समृद्ध और वैश्विक हुई है।
अंग्रेजी ने अपने रोजमर्रा के आम, प्रचलित, परिचित शब्दों को भगा कर उनकी जगह भारतीय शब्दों को नहीं बिठाया। इन भारतीय शब्दों से अंग्रेजीभाषियों की अंग्रेजी अभिव्यक्ति क्षमता खंडित, प्रदूषित और भ्रष्ट नहीं हुई है। वह मां को आज भी मदर ही बोलते हैं मां नहीं। और हम...हम बोलते हैं मदर, फादर, ब्रदर .....सूची लंबी और सुपरिचित है।
शर्म हमको मगर नहीं आती.....
- राहुल देव
हमारे मित्र और मेरी इस नकली साहब नुमा फोटो के अपराधी सुशील पंडित की एक मार्मिक टिप साझा कर रहा हूं।Sushil Pandit सदियां लग जाती हैं किसी सक्षम भाषा के बनने में । पीढ़ियाँ चुक ज।ती हैं उसमें जीवंत अभिव्यक्ति की क्षमता भरने में । देश, काल और परिस्थितियों के अपने विशिष्ट अनुभवों को संजोते-संजोते, ज्ञान और साहित्य के अपने कोष बनाते-बनाते, दर्शन व इतिहास की एक अलग समझ-बूझ तराशते-तराशते, कोई भाषा किसी स्वाभिमानी समूह की गौरवश।ली पहच।न बन प।ती है । फिर वही भाषा माँ की तरह अपने भाषियों को पालती भी है । हमें हमाँरी भाषा पकी-पकायी, थाली में परोसकर मिली है। शायद इसी लिए हम उसे बाज़ार के तराज़ू में तौलने निकल पड़े हैं । हिब्रु को यहूदी अगर इसी तरह तौलते तो दो हजार साल के अंतराल पर इज़रायल में वो फिर से आम बोलचाल में न आती ।
- राहुल देव
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