(लाखों प्रत्याशियों में से सात-आठ सौ लोग संघ लोक सेवा आयोग ने सिविल सेवा परीक्षा द्वारा चुने जाते हैं। इनमें प्रतिभा की कमी तो नहीं हो सकती है। इन्हें चयनित होने के बाद कई भाषाएँ सिखाई जाती हैं और उच्च बौद्धि क्षमता वाले व्यक्ति होने के कारण उन्हें इन भाषाओं को सीखने में कोई कठिनाई भी नहीं होती। यदि ये हिन्दी, तमिल, मलयालम और अन्य सभी भारतीय भाषाएँ, यहाँ तक की विदेशी भाषाएँ भी सीखने की योग्यता रखते हैं तो फिर दसवीं स्तर की अँग्रेजी चयन के बाद सीखने में क्या समस्या हो सकती है?)
क्या अँग्रेजी विद्वता की निशानी है? विद्वान तो कोई भी हो सकता है मगर जीनियस (genius) होने के लिए क्या अँग्रेजी की चाशनी में डुबकी लगाए बिना बात नहीं
बनती? क्या भारतीय भाषाओं में वह बात नहीं है जो किसी को जीनियस बना सके? क्या सरकारी सेवा
में ऐसे जीनियसों की जरूरत होती है जो और कोई भाषा जाने या न जाने मगर अँग्रेजी
में पारंगत जरूर हों? संविधान (राष्ट्रपति का आदेश) के अनुसार केंद्रीय सरकार के सभी कार्मिकों
को हिंदी का ज्ञान जरूर होना चाहिए तो फिर बड़ी नौकरी के लिए अँग्रेजी और मैकाले की
मानसिकता क्यों जरूरी है? क्या त्रिभाषा सूत्र सभी भारतीय विद्यालयों, पाठशालाओं, शिक्षा बोर्डों में
लागू है? क्या सभी सरकारी स्कूलों में अँग्रेजी पढ़ाने की व्यवस्था है? भारतीय भाषाओं के
माध्यम से स्कूली शिक्षा की व्यवस्था का प्रतिशत क्या है? ऐसे अनेक प्रश्न
हैं जो मेरे हिन्दी माध्यम से आधे-अधूरे विकसित दिमाग में कई दिनों से कुलबुला रहे
हैं। मेरे पास इनमें से किसी भी प्रश्न का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है।
संघ लोक सेवा आयोग ने सिविल सेवा परीक्षा में अङ्ग्रेज़ी का पर्चा 100
अंकों का कर दिया है तथा अन्य भाषा का पर्चा समाप्त कर दिया है। अङ्ग्रेज़ी भाषा के
इस पर्चे के अंक योग्यता सूची निर्धारण के लिए जोड़े जाएंगे । ऊपरी तौर पर यह बात
बड़ी ही सामान्य सी लगती है मगर इसके सामाजिक, सांस्कृतिक परिणाम भयानकतर
हो सकते हैं।
पहला मुद्दा यह है कि दसवीं कक्षा के स्तर के इस अंग्रेज़ी पर्चे से
फर्क क्या पड़ता है, क्या आईएएस, आईआरएस, आईपीएस वगैरा बन सकने की क्षमता रखने वाले को दसवीं स्तर की अँग्रेजी
का ज्ञान नहीं होना चाहिए? मेरा उत्तर है - अवश्य होना चाहिए, लेकिन साथ-साथ उसे अन्य किसी भारतीय भाषा का
ज्ञान क्यों नहीं होना चाहिए? तर्क दिया जाएगा कि उसे केंद्रीय सरकार में अङ्ग्रेज़ी में काम करना
होगा तथा राज्य सरकारों के साथ पत्राचार के लिए भी उसे अङ्ग्रेज़ी का प्रयोग करना
होगा। कैडर आबंटन के बाद उसे हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषा बाद में सिखा दी जाएगी।
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान तथा दिल्ली इन राज्यों की राजभाषा हिंदी है और इनके साथ
पत्राचार यानी प्रशासनिक काम-काज के लिए केंद्रीय सरकार को हिन्दी का प्रयोग करना
है। इन राज्यों में जो आईपीएस, आईएएस जाएंगे उन्हें हिन्दी में काम करना है। इन राज्यों की आबादी 2001
की जनगणना के अनुसार लगभग 45 करोड़ है। इसी प्रकार महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब के
साथ भी हिन्दी में पत्राचार अनुमेय है। 2001 की जनगणना के अनुसार इन राज्यों की
कुल आबादी लगभग 17 करोड़ है। यानी लगभग 62 करोड़ जनसख्या (2001 के आंकड़े) वाले
राज्यों के साथ केंद्रीय सरकार के आईएएस, आईपीएस को दिल्ली मे बैठकर हिन्दी का प्रयोग करना है। फिर भी उसे
आईएएस, आईपीएस बनाने के लिए हिन्दी का पर्चा लिखने की याकि हिन्दी के ज्ञान
की आवश्यकता नहीं है लेकिन अङ्ग्रेज़ी का ज्ञान होना अनिवार्य है। इसका क्या औचित्य
हो सकता है?
दूसरा मुद्दा यह है कि यदि सिविल सेवा में आने वाले को हिन्दी का
कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है और यह ज्ञान उसे परिवीक्षा अवधि में
प्राप्त करना ही है तो उसके लिए प्रतियोगी परीक्षा में हिन्दी का भी दसवीं स्तर का
पर्चा पास करने की अनिवार्यता क्यों नहीं होनी चाहिए? इस पर्चे के अंक भी
चयन योग्यता सूची निर्धारण के लिए क्यों नहीं जुड़ने चाहिए? जब हिन्दी संघ की राजभाषा है तो उसके ज्ञान की परख प्रतियोगी परीक्षा
के दौरान ही क्यों नहीं हो जानी चाहिए? जब हिन्दी के साथ-साथ अङ्ग्रेज़ी का प्रयोग अनुमेय है तो अङ्ग्रेज़ी के
पर्चे के साथ-साथ हिन्दी का पर्चा क्यों नहीं होना चाहिए? याकि हिन्दी सीखने
की क्षमता की परख भी अङ्ग्रेज़ी के पर्चे से स्वत: हो जाएगी? यदि ऐसा हो सकता है
तो फिर अङ्ग्रेज़ी सीखने की क्षमता की परख
हिन्दी के पर्चे से करने पर भी विचार क्यों नहीं किया जाना चाहिए ?
यहाँ एक और विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है- जब लाखों
प्रतियोगियों में से मात्र 8 या 9 सौ का चयन भाषा से इतर अन्य विषयों, योग्यताओं के आधार
पर होता है तो उन विषयों/ योग्यताओं को सीखने/विकसित करने के लिए कोई तो माध्यम उस प्रतियोगी का रहा ही होगा!
निश्चय ही वह माध्यम कोई भाषा ही रही होगी। वह भाषा अगर अङ्ग्रेज़ी थी तो उसके अलग
से परीक्षण की आवश्यकता क्या है? जिनका माध्यम अङ्ग्रेज़ी रहा है उन्हें इस पर्चे से मुक्त रखा जाए और उसके
लिए हिन्दी या किसी अन्य भारतीय भाषा (उसकी अपनी मातृभाषा) का पर्चा रख दिया जाए
और उसके अंक योग्यता सूची के लिए जोड़े जाएँ, क्योंकि चयन के बाद उसे अङ्ग्रेज़ी के अतिरिक्त हिन्दी तथा कैडर की
भाषा सीखनी ही होगी। बाकी जिनकी पढ़ाई का माध्यम अङ्ग्रेज़ी नहीं रहा है बल्कि कोई भारतीय भाषा
रही है तो उनके लिए अङ्ग्रेज़ी का पर्चा रख लिया जाए।
तीसरा मुदा यह है कि कोई भी प्रतियोगी परीक्षा मूल उद्देश्य चयन कम
अस्वीकरण यानी रिजेक्शन अधिक होती है। लाखों प्रतियोगियों में से अधिकांश को कैसे
अस्वीकार किया जाए तथा अपने लिए उपयोगी लोगों को कैसे लिया जाए? लाखों में से कई
हजार लोग ऐसे होते हैं जिनमें योग्यता के स्तर पर, बुद्धि लब्धि के स्तर पर कोई अंतर नहीं होता
किन्तु उन सबका चयन नहीं किया जा सकता क्योंकि स्थान अर्थात रिक्तियाँ सीमित हैं।
यदि हमें रिजेक्शन ही करना है तो उसके लिए अङ्ग्रेज़ी ज्ञान को आधार क्यों बनाया
जाना चाहिए? यदि हम निष्पक्ष हैं, कोई पूर्वाग्रह हमारे मन में नहीं है तो फिर हिन्दी तथा अन्य भारतीय
भाषाओं के ज्ञान के आधार पर यह अस्वीकरण क्यों नहीं किया जा सकता?
किसी एक भाषा के ज्ञान को योग्यता की परख के लिए प्रमुखता देना उस भाषा
को रोजगार की एकमात्र भाषा का प्रमाण-पत्र देना है। जो धारणा आजादी के बाद भाषा विवाद
के ज़रिये अप्रत्यक्ष रूप से अङ्ग्रेज़ी को रोजगार की सीढ़ी के रूप में प्रचारित कर बनाई
गई थी इसे उस धारणा को कानूनी जामा पहनाने की कोशिश से कम नहीं माना जा सकता। यदि प्रशासन
के लिए प्रशासनिक कौशलों को महत्व देते हुए चयन करना है तो फिर किसी भी भाषा को अतिरिक्त
महत्व देने की आवश्यकता क्या है? प्रतियोगी परीक्षा में किसी भी भाषा को मत रखिए। अगर भाषा बिन प्रशासनिक
कौशलों की परख संभव नहीं है तो उसके लिए संघ की राजभाषा, राज्यों की राजभाषाओं
को प्रमुखता दीजिए। यदि अङ्ग्रेज़ी ज्ञान की परख किए बिना कुछ भी संभव नहीं है तो आजादी
के 65 साल बाद भाषाई प्रावधानों को सच्चे मन से स्वीकार करते हुए किसी भी प्रतियोगी
परीक्षा में मातृभाषा के पर्चे को अनिवार्य कीजिए तथा उसके अंक योग्यता सूची के लिए
जोड़े जाने की व्यवस्था कीजिए और अङ्ग्रेज़ी
के पर्चे को पास अंक पाने तक सीमित रखिए। हमें अच्छे प्रशासक के रूप में जीनियस अँग्रेज़
की तलाश नहीं करनी चाहिए बल्कि एक कुशल भारतीय की तलाश करनी चाहिए। मुझे नहीं लगता
कि अच्छे भारतीय होने के लिए अङ्ग्रेज़ी में पारंगत होने की शर्त का कोई औचित्य है।
यदि फिर भी औचित्य साबित करके ही दम लेना है तो शिक्षा के अधिकार के तहत
सभी स्कूलों में समान रूप से अङ्ग्रेज़ी शिक्षा के अधिकार को अनिवार्य कर दीजिए। त्रिभाषा
सूत्र को, अपनी भाषाओं और संस्कृति को, भारतीय भावनाओं और भंगिमाओं आदि को ताक पर रखते हुए सभी सरकारी स्कूलों
में अङ्ग्रेज़ी की पढ़ाई की समान व्यवस्था कर दीजिए और अन्य सभी भारतीय भाषाओं की पढ़ाई
बंद कर दीजिए।
आने वाली पीढ़ी पर, इस देश के भावी नागरिकों पर इस तरह के मैकालेयी मानसिकता की तरी में लिपटे
भाषायी अत्याचार की योजनाएँ एक भारतीय नागरिक के मौलिक अधिकारों पर सुनियोजित प्रहार हैं।
आपका भाषा के प्रति कार्य सराहनीय है
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