Mar 12, 2013

अङ्ग्रेज़ी को अन्य भारतीय भाषाओं की कीमत पर नहीं रखा जाना चाहिए


चेन्नई से  तिरुच्चिरापल्ली और फिर मदुरै...और उसके आगे भी - इन सभी स्थानों पर अधिकांश व्यापारी  उत्तर भारतीय हैं और उनमें से 99 प्रतिशत तमिल और हिन्दी जानते हैं। उन्हें किसी त्रिभाषा सूत्र ने तमिल सीखने को मजबूर नहीं किया बल्कि यह उनके व्यापार की मांग अर्थात जरूरत है ।
शिक्षा का प्रसार उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में अधिकांशत: समुद्र तटीय क्षेत्रों मे मिशनरी स्कूलों के माध्यम से हुआ। आजादी के समय हमारे देश में साक्षारता का प्रतिशत मात्र 16 या 17 प्रतिशत था। अधिकांश शिक्षित समुद्र तटीय इलाकों विशेषकर तत्कालीन मद्रास प्रांत में साक्षारता दर पूरे देश के औसत की तुलना में कहीं ज्यादा थी। सन् 1901 में जब पूरे देश की साक्षारता दर का औसत लगभग 6 प्रतिशत था तब मद्रास प्रांत में यह लगभग 12 प्रतिशत था। महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल, पॉण्डिचेरी और तमिलनाडु के समुद्र तटीय क्षेत्रों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार तुलनात्मक रूप से सर्वाधिक हुआ। अंग्रेज़ जब प्रशासनिक कार्यालय कलकत्ता यानी बंगाल ले गए तो वहाँ भी अङ्ग्रेज़ी तथा साक्षारता दर दोनों में तेजी से वृद्धि हुई। आज भी अगर हम 2011 की जनगणना के आंकड़े देखें तो तथाकथित उत्तर भारतीयों याकि हिन्दी भाषी क्षेत्रों की साक्षारता दर 75 प्रतिशत से कम है।
हरियाणा तथा पंजाब ने आजादी के बाद इस क्षेत्र में तेजी से प्रगति की है। शिमला (हिमाचल) और देहरादून (उत्तराखंड) अंग्रेजों के बेहद प्रिय स्थल रहे, वहाँ भी साक्षारता दर तुलनात्मक रूप से अधिक है। लेकिन जम्मू-काश्मीर में वह बात कभी नहीं रही। इसी प्रकार उत्तर भारत का वह सम्पूर्ण क्षेत्र जहाँ लगातार विदेशी आक्रमण होते रहे, वे हमेशा विकास के सभी क्षेत्रों में पिछड़े रहे यहाँ तक कि शिक्षा और साक्षारता के मामले में भी। मिशनरी स्कूलों को दक्षिण के समुद्र तटीय क्षेत्रों में किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा इसीलिए इन क्षेत्रों कि जनता को भी अङ्ग्रेज़ी सीखने और शिक्षा पाने के अवसर अधिक मिले। अङ्ग्रेज़ी आजादी के समय भी रोजगार की भाषा थी, प्रशासन की भाषा थी। उस समय प्रशासन में मद्रास प्रांत से लगभग 24 प्रतिशत लोग थे। विचारणीय बात यह है कि आजादी के समय जिस देश की मात्र 16 प्रतिशत जनता साक्षर थी तब अङ्ग्रेज़ी का समर्थन किस लिए हुआ? यह किसी भारतीय भाषा के लिए क्यों नहीं हुआ? एक लोकतान्त्रिक देश में उस समय के 84 प्रतिशत लोगों को मूक-बधिर क्यों मान लिया गया?

आज भी यूपीएससी का अङ्ग्रेज़ी समर्थन उसी मूल वजह से है। आज भी भारत की कुल जनसंख्या का 26 प्रतिशत निरक्षर है। जबकि अङ्ग्रेज़ी दाँ लोगों का कोई सही ब्यौरा तक उपलब्ध नहीं है। एक लोकतन्त्र में 26 प्रतिशत जनता यदि चाहे तो केंद्र में सरकार बनवा सकती है मगर उसे मुख्य धारा से काटकर रखने का हथियार है अङ्ग्रेज़ी में भारतीय प्रशासन की अवधारणा। जो भी भाषा रोजगार और संपर्क की भाषा बना दी जाएगी या बन जाएगी उसे मजबूरी में या जरूरतन सब सीखने का प्रयास करेंगे। कटु सत्य यह है कि ऐसे बहुत कम लोग हैं जो किसी रुचि या समर्पण के कारण कोई दूसरी या तीसरी भाषा सीखना चाहते हैं, मगर आवश्यकता होने पर अथवा मजबूरी में सब सीख लिया जाता है। यह तमिलनाडु में व्यापार करने वाले उत्तर भारतीयों पर भी लागू होता है और दिल्ली में राजनीति या प्रशासन में बैठे हिंदीतर भाषियों पर भी।
आजादी के समय की तुलना में आज हालात बदल गए हैं। बेशक तथाकथित हिंदी बेल्ट में आज भी शिक्षा या साक्षारता दर 70-75 प्रतिशत से कम है मगर अँग्रेजी ने इन क्षेत्रों में भी बहुत गहरी जड़ें जमा ली हैं। यह हमारी सभी भारतीय भाषाओं के लिए खतरे की घंटी है। यदि हिन्दी भाषी प्रदेशों में पिछले 30 वर्षों के दौरान  अङ्ग्रेज़ी भाषा सीखने की दर का आंकलन किया जा सके तो स्थिति ज्यादा साफ हो सकती है। मेरे पास आंकड़े नहीं है फिर भी मेरा दावा है कि उत्तर भारत में यह दर हिंदीतर भाषी प्रदेशों से कई गुना अधिक मिलेगी।  अँग्रेजी का प्रसार हिंदी के लिए तुलनात्मक रूप से कम घातक है जबकि अन्य भारतीय भाषाओं को यह धीमे जहर की मानिद समाप्त कर रहा है और इसे बड़ी आसानी से जनगणना के आंकड़ों की तुलना से समझा जा सकता है। हिंदी के प्रसार को किसी भी रूप में रोका नहीं जा सका है। लेकिन अँग्रेजी की तरफदारी ने अन्य भारतीय भाषाओं के लिए लगातार रास्ते बंद किए हैं। इसे फिल्म एवं टीवी की दुनिया से समझा और महसूस किया जा सकता है। मैं तमिलनाडु में रहता हूँ मगर व्यापारी न होने कारण अँग्रेजी के टूटे-फूटे ज्ञान की वजह से तमिल सीखने की मजबूरी का सामना नहीं करना पड़ा। अगर अँग्रेजी नहीं होती तो मुझे भी तमिल सीखने की मजबूरी होती और तमिल जानने वाला एक और व्यक्ति बढ़ जाता। मेरे जैसे अनेक लोग मिल जाएंगे जिन्होंने तमिल और मलयालम सीखने की अनेक पुस्तकें लाकर घर में रख लीं मगर उन भाषाओं को सीखने की कोई मजबूरी न झेलने के कारण वे सिर्फ अन्ना और तंबी तक सीमित होकर रह गए।
आज जो अङ्ग्रेज़ी का समर्थन यूपीएससी के मामले में कर रहे हैं वह केवल उसी तरह का सरकारी क्षेत्र के रोजगार के अवसरों के अधिकांश हिस्से पर किसी न किसी रूप में कब्जा जमाए रखने का निहित स्वार्थ है जो आजादी के समय था। किन्तु बदले हालातों में यह कुछ वर्षों के लिए ही इसके समर्थकों के लिए उपयोगी साबित हो सकता है। एक दशक के अंदर इसके अनपेक्षित परिणाम सामने आने लगेंगे मगर तब तक हिन्दी से इतर भारतीय भाषाओं को इतनी क्षति पहुँच चुकी होगी कि उसकी कोई भरपाई संभव नहीं हो सकेगी।   
यहाँ यह बताना उपयोगी रहेगा कि मुंबई में बसे अनेक तमिल और मलयालम भाषी ऐसे हैं जो अपनी मातृभाषा पढ़-लिख नहीं सकते। मेरे बच्चों की मातृभाषा मलयालम है मगर वे मलयालम नहीं जानते। वे केंद्रीय विद्यालय में पढ़ते हैं, तमिल बोलना और समझना खूब अच्छी तरह से जानते हैं मगर लिखना-पढ़ना नहीं जानते। इस मामले में उनके दक्षिण भारतीय सहपाठियों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। हिंदी भारत के अधिकांश प्रान्तों में संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग की जा रही है। जहां हिंदी में काम नहीं चलता वहाँ अङ्ग्रेज़ी से काम चल जाता है मगर इसमें अन्य भारतीय भाषाओं के लिए स्थान कहाँ बचता है? अङ्ग्रेज़ी को अगर रखना ही है तो इसे अन्य भारतीय भाषाओं की कीमत पर नहीं रखा जाना चाहिए। अङ्ग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी एवं अन्य सभी प्रांतीय भाषाओं को भी समान महत्व एवं दर्जा दिया जाना ही एकमात्र विकल्प है। अङ्ग्रेज़ी का पर्चा अगर सबके लिए अनिवार्य हो तो अन्य एक वैकल्पिक भारतीय भाषा का पर्चा भी सबके लिए अनिवार्य होना चाहिए और दोनों के ही अंक योग्यता सूची निर्धारण के लिए जोड़े जाने चाहिए।  

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