Aug 23, 2009

मेरे गुरु ...1

स्वर्गीय डॉ० कांताप्रसाद अग्रवाल की यादें...
-अजय मलिक

पूरे पच्चीस वर्ष के लंबे अन्तराल के बाद जुलाई में एन आर ई सी में कदम रखा। सोचा था सब कुछ बदल गया होगा...सारा ज़माना भी तो बदल चुका है। दिल्ली-गाजियाबाद के आस-पास जहां कभी खेत-खलिहान हुआ करते थे वहां आज हजारों मोटर कारों का सैलाब नज़र आता है। समुद्र में चाहे रोज ज्वारभाटा क्यों न आता हो मगर पुराने जमाने के खेतों में बनी सड़कों पर ट्रैफिक जाम में चौबीसों घंटे कोई कमी नहीं आती। कच्ची मिट्टी या ईंट-गारे से बने इकमंजिला मकान न जाने कहाँ गायब हो गए।
बहरहाल गाजियाबाद से खुर्जा जाते हुए बहुत सी बातें और भी सोची थीं। पूरा भरोसा था कि कोई न कोई तो अग्रवाल साहब के परिवार का पता जरूर बता ही देगा। खुर्जा पहुँचने पर उसी रास्ते गाड़ी आगे बढ़वाई जिस रास्ते कभी हम चार युवक भटकते हुए एन आर ई सी में प्रवेश किया करते थे। चौराहे पर जाकर पता चला कि आगे सड़क तंग है। गाड़ी का आगे जाना नामुमकिन तो नहीं मगर मुश्किल ज़रूर था। दो-चार जगह रास्ता पूछा फिर समझ में आया कि पच्चीस साल में नाले की पटरी वाली पगडंडी- नुमा कच्ची सड़क आज भी अपनी पुरानी रवानी के साथ मौजूद है।
लगभग दो किलोमीटर का चक्कर लगाकर जब लगा कि मंजिल करीब है तब एक चारदीवारी ने रास्ता रोक लिया। गाडी एक जगह छोड़कर किसी तरह शिक्षा संकाय के मुहाने पर पहुंचा तो हैरत के साथ अद्भुत शान्ति का अहसास हुआ। सब कुछ बिलकुल वैसा ही जैसा पच्चीस बरस पहले छोड़ गया था।
वही दो पुराने बड़े-बड़े हालनुमा क्लास रूम... वही रंग-रोगन...बरामदा -जिसमें के. सी. एस. पर कुछ गुंडों ने हमला किया था। सभी कमरों में ताला लगा था। बहुत सी यादें... जो कभी पुरानी नहीं पड़ीं... शायद इसी लिए कि वहाँ आज भी सब कुछ पुराना होकर भी वैसा ही तरोताजा था। बस अग्रवाल साहब की नई साइकिल वहाँ नहीं थी। मैं अग्रवाल साहब के चले जाने के सात बरस बाद उस परिवार से मिलने की हिम्मत जुटा पाया था। यद्यपि अग्रवाल साहब के न होने पर उनकी साइकिल के बारे में सोचना कोई मायने नहीं रखता था मगर मन तो कुछ ऐसी ही कल्पना कर रहा था कि शायद साइकिल के बहाने अग्रवाल साहब से मुलाक़ात हो जाए ।
मन मुताबिक कभी होता है भला। कुछ नहीं मिला ... प्राचार्य के कार्यालय में दो बंधु बैठे गपशप कर रहे थे । उनसे पूछा मगर कुछ पता न चला। एक बंधु ने साथ आकर बड़े बाबू के आने तक कुछ जानकारियाँ दीं। अच्छा लगा ...बड़े बाबू भी पच्चीस साल में नहीं बदले थे। उन्होंने संकायाध्यक्ष श्री (डॉ) अम्बरीश बहादुर भटनागर साहब का मोबाइल नंबर बताया। अग्रवाल साहब का पता फिर भी नहीं मिल पाया।

पच्चीस बरस पहले भटनागर साहब और अग्रवाल साहब के अलावा श्री जमशेद अली खान, सिंह साहब, शर्मा जी भी हमारे गुरुजन हुआ करते थे। हम चार यानी भाटी, शशिकांत , कैलाशचंद शर्मा और मैं अग्रवाल साहब के दुलारे हुआ करते थे । यह पंचायत कैसे बनी यह तो स्वयं हम लोगों को भी पता नहीं चल पाया। बस इतना कह सकता हूँ कि मेरा परिचय अग्रवाल साहब से सबसे बाद में हुआ और अंत में सिर्फ हम दो ही रह गए- एक गुरु, एक शिष्य।
आज जो भी हूँ -अच्छा या बुरा उन्हीं अग्रवाल साहब की देन हूँ। मुझ देहाती-गंवार को उनकी गुरुता ने आदमी बना दिया। "बंटी..." यही घर का नाम था उनके बेटे का। एन आर ई सी छोड़ने के बाद समरेश बासु के उपन्यासों से प्रभावित होकर मैंने अग्रवाल साहब को कांता 'दा' लिखना शुरू किया तो बंटी ने मुझे बड़ा भाई मान लिया।
अहार में शिवरात्रि के दिन कांवरियों के मेले में भटकने के किस्से हों या रामेश्वरम-मदुरै की यात्रा या फिर एन आर ई सी के स्काउट कैंप में हमारी सूखी रोटी खाने वाले प्रोफेसर की बातें... और वह सब भी जो एकमात्र अग्रवाल साहब ही कर सकते थे... अन्याय के खिलाफ किसी भी हद तक लड़ना... लड़ने की शक्ति सृजित करना और जब कदम थकने लगें तो सहारा देना ... भावना और भावुकता को समझने वाले उस गुरु ने कब मित्र की भूमिका निभाई और कब कठोर अनुशासित गुरु की समझ पाना सदैव बेहद कठिन रहा। हर मुश्किल वक्त में उनकी खरखराती सी आवाज़ में कहे गए ये शब्द नि जान फूंक देते थे - " अरे भैया अजय तुम तो बस ..."
शायद मैं एक मात्र ऐसा छात्र था जो अपनी लैसन-प्लान को रोज-बनाने को मज़बूर होता था। मेरी बनाई हरेक प्लान को वे कसाई की तरह काटते जबकि अन्य किसी की प्लान पर उनकी कलम कभी क्रॉस न लगाती। फिर हर शाम उनके घर पर चाय पी जाती। परीक्षा का वह अंतिम दिन आज भी याद आता है जब उन्होंने कहा- "रोते क्यों हो? जाकर उसे सच्चाई बताओ तो सही ... सब ठीक हो जाएगा।"
-किन्तु-परन्तु-लेकिन-पर से घिरी सच्चाई ऐसी की, इतने पर भी बताई न जा सकी।

सात वर्ष बीत जाने पर भी मैं उनके न होने को नहीं स्वीकार पाया। ...और यही वज़ह रही कि उस परिवार की तलाश में खुर्जा तक पहुँचने में इतना समय लगा। खुर्जा से बस इतना ही पता चल पाया कि वह पूरा परिवार कहीं पूना में जा बसा है।
पते और फोन नंबर की अभी भी तलाश है।
तलाश उन बाकी के तीन तिलस्मी तत्कालीन युवाओं यानी शशिकांत शर्मा, चरण सिंह भाटी और कैलाश चन्द्र शर्मा की भी है ।

आप सोच रहे होंगे कि यह एन आर ई सी क्या है ? मुझे भी 1983-84 में इस बारे में कुछ देर से ही पता चल पाया था। नत्थीमल रामसहाय एडवर्ड कोरोनेशन कॉलेज, खुर्जा...बड़ा ही अटपटा सा नाम मगर इस कॉलेज से निकले कितने लोग कितने विश्वविद्यालयों के महान कुलपति बने ...गिनती करना थोड़ा कठिन है ।
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