यह ग़ज़ल भी हमें यूनिकोड, रोमनागरी और सरल हिंदी से लिंक दर लिंक जाकर मिली।
(website on shayari से साभार )
कही सुनी पे बोहत एतबार करने लगे
मेरे ही लोग मुझे संगसार* करने लगे
[*संगसार=पत्थर मारना, getting brickbats]
पुराने लोगों के दिल भी हैं खुशबुओं की तरह
ज़रा किसी से मिले, एतबार करने लगे
नए ज़माने से आँखें नहीं मिला पाये
तो लोग गुज़रे ज़माने से प्यार करने लगे
कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे
हमारी सादामिजाजी कि दाद दे कि तुझे
बगैर परखे तेरा एतबार करने लगे
-वसीम बरेलवी
वासिम बरेलवी जी की एक ग़ज़ल जो पिछले दिनों चेन्नै में उन्होंने सुनाई थी -
मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा
यह एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चिराग नहीं हूँ जो फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊं उस से रिश्ता वसीम
जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा
-वसीम बरेलवी
Aug 9, 2009
वसीम बरेलवी जी की दो गज़लें जो भुलाई नहीं जातीं
Posted by:AM/PM
हिंदी सबके लिए : प्रतिभा मलिक (Hindi for All by Prathibha Malik)
at
8/09/2009 01:04:00 PM
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