- अजय मलिक
आज हम चर्चा कर रहे है कला
फिल्मों के कला पक्ष की। यह विषय कई मायनों में बेहद मौजू भी है। वजह बड़ी साफ है 03 मई, 2013 को बॉम्बे टॉकिज़ फिल्म के प्रदर्शित
होने के साथ ही भारतीय सिनेमा 100 साल का गबरू
जवान हो गया। मई 1913 में मौन फिल्म राजा हरिश्चंद्र के माध्यम से जिस भारतीय
सिनेमा की नींव दादा साहेब फाल्के ने डाली थी उसने पिछले 100 वर्षों से हर
शुक्रवार जहां निर्माता-निर्देशकों और कलाकारों के दिल की धड़कने बेकाबू कीं वहीं
दूसरी ओर आम आदमी यानी दर्शकों के मनबहलाव के लिए नित नई दुनियाँ रची।
दादासाहेब फाल्के ने जिनका
वास्तविक नाम धुंडिराज गोविन्द फाल्के था, 1913 में मोहिनी भस्मासुर का निर्माण भी किया। 14 मार्च 1931 को भारतीय
सिनेमा जगत की पहली सवाक फिल्म आलम
आरा पदर्शित हुई। नितिन बोस
के निर्देशन में साल 1935 मे प्रदर्शित फिल्म धूपछांव से हिंदी फिल्मो
मे पार्श्वगायन की शुरूआत हुई। धीरे-धीरे
इन चलती-फिरती
तस्वीरों को कैद करने वालों की फेहरिश्त में आर्देशिर इरानी, बाबू राव पेंटर, धीरेन्द्र गांगुली, नरेश मित्रा, केदार शर्मा, वी शांताराम, अमय चक्रवर्ती, गुरूदत्त, चेतन आनंद, राजकपूर, महबूब खान, कमाल अमरोही जैसे अनेक महान फ़िल्मकारों के
नाम जुडते चले गए।
इन 100 वर्षों में फिल्में सिर्फ
चलती-फिरती तस्वीरें भर नहीं रह गईं बल्कि कलात्मक अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम
भी बनकार उभरीं। कला, संस्कृति, इतिहास, साहित्य, गीत, संगीत, ध्वनि यानी साउंड, अदाकारी, फोटोग्राफी, प्रलेखीकरण आदि सभी कुछ फिल्मों के जरूरी तत्व बनते चले गए। मूक
फिल्मों के बाद बोलती फिल्मों का दौर आया, फिर एक दिन श्वेत-श्याम
फिल्में रंगिनियों से भर गईं। फिल्मों के त्रियामीं दौर यानी 3 डी तक पहुँचते-पहुँचते
तकनीक के विकास के कारण ध्वनि के स्तर पर भी मोनो, स्टीरियो, डिजिटल जैसे अनेक सफल
प्रयोग हुए। सिनेमा मनोरंजन का बहुत बड़ा उद्योग बन गया। कुल मिलाकर इन सौ सालों
में चमकते-दमकते सिनेमा में अगर कुछ जोड़ना बाकी बचा है तो वह है सुगंध यानी महक। फिल्म एक कृत्रिम
यथार्थ है। एक ऐसी वास्तविकता जो कभी थी ही नहीं और शायद कभी हो भी नहीं सकती है मगर
फिर भी रच दी गई है और अंधेरे में रुपहले परदे पर जीवंत प्रदर्शित की जा सकती है,
वह फिल्म है।
पिछले 100 सालों में यह प्रश्न बार - बार
उठाया गया है कि आखिर फिल्म बनाई क्यों जाती है, किसके लिए बनाई जाती है? कोई भी
निर्माता या फ़िल्मकार या कलाकार अपनी बात अपने तक सीमित रखने के लिए कोई रचना या
अभिव्यक्ति नहीं करता। वह अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से अपनी अनुभूति को दूसरों तक
पहुंचाने के लिए सृजन करता है। कला जीवन की साधना है, जीविका का साधन नहीं। कला जब कलाकार
की जीविका का साधन भर तक सीमित होने लगती है तो व्यवसाय बन जाती है।
सबसे पहले तो प्रश्न उठता है कि आखिर यह कला
क्या है। मेरे विचार में किसी भी माध्यम से की गई सौंदर्यबोध की अभिव्यक्ति
कला है। कलाकार वह है जो चीजों को अलग ढंग से देखता है, अलग ढंग से महसूस
करता है और अलग ढंग से... जरा लीक से हटकर कुछ कहने यानी अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है। कलाकार रट्टा लगाकर कुछ नहीं
कहता। वह हर घटना को भोगता है और फिर उसे
अपने नजरिए से दुनियाँ तक पहुंचाने की कोशिश करता है।
फिल्म जगत में लंबे समय से लीक से हटकर फिल्में बनाने का चलन रहा है। इसे कभी स्वतंत्र फिल्म का नाम दिया जाता है तो कभी प्रयोगवादी, यथार्थवादी, विशुद्ध फिल्म का नाम दिया जाता है। ऐसी फिल्म दर्शक की मांग की परवाह नहीं करती बल्कि जिंदगी के सभी वास्तविक रंगों को सम्पूर्ण अभिव्यक्ति के साथ फ़िल्मकार के नज़रिये से रुपहले परदे पर जीवंत करने का प्रयास करती है। यहाँ यह जानना जरूरी है कि एक जमाने में अमेरिका में कामुक यानी सेक्स आधारित फिल्मों को कला फिल्म कहा जाता था लेकिन यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि कला सिर्फ मनुष्य का नंगा शरीर भर नहीं है, उस नंगे शरीर में अगर चेतना नहीं है, अनुभूति नहीं है, संवेदना-प्रतिक्रिया नहीं है तो वह शरीर कला और कलाकार के लिए नहीं है। - और जिंदगी सिर्फ एक दस्तावेज़ भर नहीं है। जिंदगी की किताब के हरेक पन्ने पर नए अनुभव, नई पीड़ाएँ, नई चुनौतियाँ, नई संभावनाएं लिखी होती हैं। इन सबको ईमानदारी से जिस फिल्म में उकेर दिया जाता है वही फिल्म कला फिल्म बन जाती है। फिल्म में उपन्यास कहानी, गीत, संगीत, साजसज्जा, वेशभूषा, चित्रकला- पेंटिंग और जीवन सभी कुछ एक साथ होता है। जिस फिल्म में यह सब ईमानदारी से, सहजता और सजगता से अपनी संपूर्णता के साथ प्रभावशाली ढंग से ढाल दिया जाता है वह कला फिल्म बन जाती है।
फिल्म जगत में लंबे समय से लीक से हटकर फिल्में बनाने का चलन रहा है। इसे कभी स्वतंत्र फिल्म का नाम दिया जाता है तो कभी प्रयोगवादी, यथार्थवादी, विशुद्ध फिल्म का नाम दिया जाता है। ऐसी फिल्म दर्शक की मांग की परवाह नहीं करती बल्कि जिंदगी के सभी वास्तविक रंगों को सम्पूर्ण अभिव्यक्ति के साथ फ़िल्मकार के नज़रिये से रुपहले परदे पर जीवंत करने का प्रयास करती है। यहाँ यह जानना जरूरी है कि एक जमाने में अमेरिका में कामुक यानी सेक्स आधारित फिल्मों को कला फिल्म कहा जाता था लेकिन यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि कला सिर्फ मनुष्य का नंगा शरीर भर नहीं है, उस नंगे शरीर में अगर चेतना नहीं है, अनुभूति नहीं है, संवेदना-प्रतिक्रिया नहीं है तो वह शरीर कला और कलाकार के लिए नहीं है। - और जिंदगी सिर्फ एक दस्तावेज़ भर नहीं है। जिंदगी की किताब के हरेक पन्ने पर नए अनुभव, नई पीड़ाएँ, नई चुनौतियाँ, नई संभावनाएं लिखी होती हैं। इन सबको ईमानदारी से जिस फिल्म में उकेर दिया जाता है वही फिल्म कला फिल्म बन जाती है। फिल्म में उपन्यास कहानी, गीत, संगीत, साजसज्जा, वेशभूषा, चित्रकला- पेंटिंग और जीवन सभी कुछ एक साथ होता है। जिस फिल्म में यह सब ईमानदारी से, सहजता और सजगता से अपनी संपूर्णता के साथ प्रभावशाली ढंग से ढाल दिया जाता है वह कला फिल्म बन जाती है।
फिल्मों का कलापक्ष सिर्फ निर्देशक की
परिकल्पना तक सीमित नहीं है बल्कि उस परिकल्पना
को एक अदाकार ने किस स्तर तक आत्मसात किया है, एक फोटोग्राफर ने उसे
कैसे फिल्माया है, मेकअप मैन ने कलाकार को
पात्र मेँ कैसे ढाला है, कास्ट्यूम डिजाइनर ने कास्ट्यूम्स तैयार करने मेँ कितनी
सच्चाई बरती है, ध्वनिकार ने एक्शन्स के हर क्षण को कितना जीवंत बनाया है, संगीतकार के संगीत का
दृश्य से कितना समायोजन है...ये सब किसी भी कला फिल्म के कला पक्ष के लिए
जिम्मेदार होते हैं।
सर्गेई
आइन्स्टाइन निर्देशित 1925 में बनी मूक फिल्म बैटलशिप पोटमकिन कला फिल्मों का पहला
उदाहरण कही जा सकती है। यह फिल्म बिना शब्दों के भी खूब बोलती है। विक्टोरिया द
सीका की बाइसिकल थीफ़, अकीरा कुरोसावा की राशोमन, बिमल राय की दो बीघा
जमीन, ऋत्विक घटक की मेघे ढाका तारा, सत्यजीत राय की पाथेर
पंचाली, मृणाल सेन की भुवन शोम, गुरुदत्त की प्यासा, श्याम बेनेगल की अंकुर, तपन सिन्हा
की काबुलीवाला गुलजार की इजाजत, अदूर गोपालकृष्णन की एलिपत्तायम, शाजी क़ारून की पैरवी, जॉन अब्राहम की अम्मा
अरीयन, एमएस सत्यू की गरम हवा, महेश भट्ट की सारांश, मुजफ्फर अली की उमराव
जान,
गिरीश कसरावल्ली की माने, मणि कौल की दुविधा, गोविंद निहलानी की अर्धसत्य, कुन्दन शाह की जाने भी
दो यारो, कौशिक गांगुली की पिछले साल बनी बांग्ला फिल्म शब्दो तथा
गुरबिंदर सिंह की पंजाबी फिल्म अंधे घोड़े का दान आदि कुछ ऐसी कला फिल्मों के
उदाहरण हैं जिनमें फ़िल्मकार ने अपनी अनुभूति के सौंदर्य बोध को संपूर्णता के साथ
फिल्माभिव्यक्ति दी है। इतना सब कुछ होने के बावजूद आज 100 वर्ष बाद भी सिनेमा की
परिभाषा स्पष्ट नहीं है। बिना कला के सिनेमा संभव नहीं है मगर कला के पारखियों तक
सीमित रहकर व्यवसाय नहीं हो सकता और बिना व्यवसाय किए फिल्म नहीं बन सकती। फिल्म
यदि व्यवसाय करती है तभी सिनेमा की जवानी में रंग भरते हैं नहीं तो सिनेमा अचानक
मर जाता है।
व्यावसायिक फिल्मों की कहानी में काल्पनिकता
अधिक हावी होती है वहीं कला फिल्मों की कहानी में वास्तविकता पर आधारित होती है. मनोरजक
फिल्म दर्शक को काल्पनिक दुनिया में ले जाती है जबकि कला फिल्म अपने दर्शक को यथार्थ
से रूबरू कराती है. सारांश फिल्म का नायक अपने बेटे की अस्थियाँ पाने के लिए
रिश्वत देने को मजबूर किया जाता है मगर वह व्यावसायिक फिल्म के महानायक की तरह
ढिसुम-ढिसुम पर नहीं उतर आता.
कला फिल्म में अभिनय स्वाभाविक तथा सहज होता
है जबकि मनोरंजक फिल्म में अभिनय में अस्वाभाविकता, किसी विशेष अंदाज़ या
अदा को अधिक महत्व दिया जाता है. जागते रहो फिल्म में राजकपूर का अभिनय संगम के
राजकपूर के अभिनय से बिल्कुल भिन्न है. संगम में राजकपूर का अंदाज़ अधिक प्रबल है
जबकि जागते रहो में एक प्यासे देहाती का किरदार राजकपूर के अंदाज पर हावी है. कला
फिल्म का नायक अपने किरदार में पूरी तरह समा जाता है जबकि व्यावसायिक सिनेमा में
नायक पात्र पर हावी रहता है. अंकुश और अर्धसत्य दोनों ही फिल्मों में ओमपुरी ने
अभिनय किया है मगर दोनों फिल्मों में बिल्कुल भिन्न किरदार हैं और फिल्म के अंत
में ओमपुरी याद नहीं रहते बल्कि किरदार अमर हो जाते हैं. कला फिल्म का किरदार
अभिनेता से बड़ा बन जाता है जबकि मनोरंजक फिल्म अभिनेता के आधार पर किरदार सृजित
कराती है और दाम दिलवाती है.
व्यावसायिक फिल्मों की फोटोग्राफी में
चमत्कार और ट्रिक यानि तकनीक का बोलबाला रहता है. जबकि कलाफ़िल्म में काइमरामैन इन
दोनों ही चीज़ों से बचना चाहता है. दो बीघा जमीन में बलराज साहनी ने गाँव के गरीब
किसान और शहर में जाकर रिक्शा खीचने वाले मजदूर का किरदार निभाया है. दोनों ही जगह
उन्हों ने बिना मेक अप के अपनी सच्ची बेबस मुस्कान और स्वाभाविक पीड़ा को उजागर
किया है लेकिन दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे का शाहरुख खान जिस गाँव में आता वह
किसी भी कोण से गाँव नज़र नहीं आता है. क्या गाँव की परिभाषा सिर्फ सरसों के खेतों
में झूमते पीले फूलों तक सीमित की जा सकती है!
व्यावसायिक सिनेमा जहाँ दर्शक को सोचने का
समय तक नहीं देता वहीं दूसरी ओर कला फिल्म के दृश्य छोटी से छोटी चीज़ को भी दर्शक
की नज़र में लाते हैं। यही वजह है कि कला फिल्मों के शाट्स अक्सर लंबे तथा गति थोड़ी
धीमी होती है।
व्यावसायिक फिल्मों में रंगों की भरमार होती
है। इनकी प्रकाश व्यवस्था कुछ इस तरह की होती है कि सभी कुछ उजाला नजर आता है। कई
बार रात के दृश्य तक दिन के उजाले से अधिक रोशन दिखा दिए जाते हैं। कला फिल्मों की
प्रकाश व्यवस्था शाट्स की आवश्यकता तथा कहानी का हिस्सा होती है। प्यासा फिल्म का
वह दृश्य इसका बेहतरीन उदाहरण है जब नायक की परछाई उसके जीवन और लंबाई से बहुत बड़ी
हो जाती है।
व्यावसायिक सिनेमा में गीत और संगीत आज की
फिल्मों के प्रचलित आइटम नंबर की तरह होते हैं। ऐसे गीतों का अक्सर फिल्म के कथानक
से कोई सीधा संबंध नहीं होता। अधिकांश मामलों में वितरक या निर्माता की मांग पर
आइटम नबर डाल दिए जाते हैं जबकि कला फिल्मों में गीत और संगीत भी कहानी कहते हैं।
गुलजार की इज़ाजत फिल्म का एक गीत (नज़्म) ‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे
पास पड़ा है...’ इसका बेहतरीन उदाहरण है। कई बार पूरी की पूरी फिल्म ही
गीतात्मकता लिए होती है। पुरानी फिल्म हीर राँझा इसी तरह की फिल्म है।
व्यावसायिक फिल्मों के सम्पादन में फिल्म को
आकर्षक बनाने के लिए तेज कट्स लगाए जाते हैं जिससे गति बेहद तेज़ हो जाती है और
दर्शक तथ्य/कथ्य की बजाय गति में घूम जाता है। जबकि कला फिल्मों में स्वाभाविकता
पर बल दिया जाता है तथा सम्पादन में सहज संपूर्णता बनाए रखने संबंधी प्रयोग किए
जाते हैं।
व्यावसायिक फिल्मों में निर्देशक का मूल
उद्देश्य फिल्म को किसी भी तरह टिकट खिड़की पर सफलता दिलवाना होता है जिसके लिए हर
फिल्म के किसी भी पक्ष से समझोते किए जा सकते हैं। कई बार तो कहानी, पटकथा और संवाद तक
शूटिंग के समय ही लिखे जाते हैं। कई फिल्म निर्देशक फोन पर भी निर्देशन करने के
लिए जाने जाते हैं। लेकिन कला फिल्म निर्देशक कहानी, पटकथा, संवाद, दृश्य आदि को अंतिम रूप
देने के बाद ही शूटिंग शुरू करता है। यहाँ तक कि सभी दृश्यों के रेखाचित्र तक बना
लिए जाते हैं। कहा जा सकता है कि फिल्म की शूटिंग से पहले ही कला फ़िल्मकार कागज पर
फिल्म बना चुका होता है।
व्यावसायिक फिल्म का दर्शक अक्सर पहले से
जानता है कि फिल्म का अंत यानी क्लामेक्स क्या होगा। अक्सर यह सुखांत होता है।
मनोरंजन की भरमार के कारण फिल्म के क्लामेक्स तथा पूरी फिल्म का ही प्रभाव सिनेमा
हाल से निकलते ही समाप्त हो चुका होता है। जबकि कला फिल्म चरमोत्कर्ष तक
पहुँचते-पहुँचते दर्शक को झकझोर चुकी होती है। उसका प्रभाव दर्शक के मन-मस्तिष्क
पर अमित छाप छोड़ता है। इन फिल्मों का क्लाइमेक्स अक्सर अप्रत्याशित होता है।
कला फिल्म निर्माता और मनोरंजक और
व्यावसायिक फिल्म निर्माता दोनों ही फिल्में बनाते दर्शकों के ही लिए हैं मगर जहां
दर्शक महत्वपूर्ण हो जाता वहाँ व्यवसाय हावी हो जाता और जहां फ़िल्मकार हावी हो
जाता है वहाँ फिल्म बनाना ही असंभव हो जाता है यही वह बिन्दु है जहां से मनोरंजन
के लिए फिल्म बनाने वाला व्यवसायी और सच्चा फ़िल्मकार अलग-अलग राह के मुसाफिर बन
जाते हैं और यदि दोनों का कभी कहीं सामना होता है तो एक दूसरे के सामने तलवार लिए
खड़े मिलते हैं। यदि ये दोनों सुलह कर लेते हैं तो व्ही शांताराम, बिमल राय, चेतन आनंद, गुरुदत्त, राजकपूर, हृषिकेश मुखर्जी जैसे
फ़िल्मकार सामने आते हैं। अगर इनमें सुलह नहीं हो पाती है तो ऋत्विक घटक, सत्यजीत राय, श्याम बेनेगल, अदूर गोपालकृष्णन, जी अरविंदन, मृणाल सेन, मनी कौल जैसे फ़िल्मकार
सामने आते हैं। एक तीसरे तरह का भी वर्ग है जो सिर्फ दर्शकों के लिए अनकी काल्पनिक
दुनिया को साकार करने के माध्यम के रूप में फिल्म बनाता रहा है। इस वर्ग में यश
चोपड़ा जैसे फ़िल्मकार आते हैं।
फिल्म विधा एक जटिल विधा है जिसमें हर कदम
पर चुनौती है और यह चुनौती एक आयामी न होकर बहुआयामी है। फिल्म बनाने से भी बड़ी
चुनौती है उसे प्रदर्शित करना और यहाँ कलाकार और कला दोनों ही मार खा जाते हैं।
लेकिन कोई व्यवसायी यदि फ़िल्मकार और वितरक भी है तो फिर फिर कलात्मक फिल्मों और
उनमें कला दोनों के लिए ही संभावनाएं रहती हैं।
बहुत सुन्दर और सार्थक रचना आभार
ReplyDeleteहिन्दी तकनीकी क्षेत्र की जादूई जानकारियॉ प्राप्त करने के लिये एक बार अवश्य पधारें और टिप्पणी के रूप में मार्गदर्शन प्रदान करने के साथ साथ पर अनुसरण कर अनुग्रहित करें MY BIG GUIDE
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