एक लंबा, उबाऊ अंतराल...सभी कुछ ठहर सा गया है... यह ठहराव अभी भी लगातार जारी है । जब गंभीरता से अपने बारे में सोचता हूँ तो स्वयं को बेहद निराशावादी पाता हूँ। बहुत सारे लोग हैं जो बहुत सारे वादे करते हैं और जब वे वादे कर रहे होते हैं तब भी मेरा निराशावाद पूरी तरह चैतन्य अवस्था में होता है और बार-बार चिल्लाता है- ये झूठ बोल रहे हैं। मैं उसे रोकता हूँ और कहता हूँ - तेरे चिल्लाने से न ये लोग बदलेंगे, न ही मैं बदलूँगा... मैं अपनी आदत से मजबूर हूँ और ये अपनी राजनीति से।
मैं लोगों के खोखले वादों से अपने निराशावाद को मजबूती देता हूँ इतने पर भी वह चिल्लाता रहता है...
लोग झूठ बोलते हैं और यह जानते हुए बोलते हैं कि सुनने वाला भी सब समझ रहा है... मगर फिर भी बोलते है। उनकी अपनी आदत है। बिना झूठ बोले उनके दिल की धड़कने ठहरने लगती हैं। मुझे दुख इस बात का होता है कि मैं अपनी इंसानियत को मार पाने में नाकाम होता हूँ और हर बार, बार-बार होता हूँ... या फिर जिसे मैं इंसानियत समझ रहा हूँ वह मेरा पागलपन भर है जिसका कोई आर पार नहीं है।
कल लिखना चाहा था कि एक बेहद रूखे-सूखे ब्लॉग को एक लाख हिट मिल गए ... यह भी लिखना चाहा था कि कोई दादा बन गया और मुझे भी कहता है कि जब दादा बन गए हो तो दादागीरी दिखाने में क्या हर्ज़ है! दो बातें एक साथ ...दोनों खुशी की ... आजकल अपनी खुशी से भी डरने लगा हूँ...जो लोग मेरी निराशा नहीं झेल पाते, वे मेरी खुशी कैसे झेल पाएंगे भला !
एक मित्र ने पिछले दिनों अचानक आकर कहा- एक बार फिर कलम उठाकर देखो, तुम अब भी लिख सकते हो। मैंने कोशिश की मगर उम्मीद के अनुरूप निराशावादी के निराश मन को निराशा ही हाथ लगी। मित्रवर फिर भी नहीं माने... मैंने फिर कोशिश की...कोई संतुष्टि नहीं मिली। उन्होंने फिर भी हिम्मत नहीं हारी ... उनके मार्गदर्शन में फिर कोशिश की ...कला फिल्मों की कला ... वार्ता शायद प्रसारित हो गई! मेरे पास रेडियो नहीं है...एफ़एम सुनने के बहुत सारे साधन हैं मगर मीडियम वेव्ज पर आकाशवाणी सुनने का कोई उपाय नहीं। बहुत सारी ऑडियो टेप रिकार्डिंग पड़ी हैं, 20 साल पुरानी, मगर उन्हें चलाने के लिए मेरे पास सही टेपरिकार्डर नहीं है... उन्हें डिजिटल में परिवर्तित करना चाहता हूँ मगर...
बहुत लंबे समय से एक फिल्म की तलाश थी - "मिस्टर सम्पत"... कल सिराज का संदेश आया - मिस्टर सम्पत अजय' ले आया हूँ । आज मैंने 28 रुपए की वीसीडी के लिए 150 रुपए खर्च कर दिए... शायद एक दो दिन में आ जाएगी... इन्टरनेट का बाज़ार भी क्या गजब की चीज़ है! मिस्टर सम्पत के साथ दुलारी भी मंगाई है। एक जमाने में संगीतकार रवि का इंटरव्यू करने के लिए मैंने लगभग 450 रुपए खर्च कर मलयालम गानों की कैसेट मंगाई थी और मुझे पारिश्रमिक के बतौर 200 रुपए मिले थे। मलगु और अपने आप में मैं यही अंतर महसूस करता रहा हूँ। मुझे जब कुछ करने में मजा आता है तो मैं उसे अपने मजे के लिए करता हूँ। इससे मुझे बहुत हानि हुई है मगर निराशावादी मन कहता है- हानि और लाभ से मजा कहीं ज्यादा बड़ी, बल्कि बहुत बड़ी चीज़ है।
गुरुओं की कमी बहुत खलती है। अग्रवाल साहब होते तो मैं कदापि स्वयं को इतना अधूरा महसूस नहीं करता। 13 साल हो गए उन्हें ... अचानक यूं भी चुपके से कोई अलविदा कहता है क्या?
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