(सुप्रीम कोर्ट में जीत गई हिंदीः हिंदी अनुवादक तथा फेसबुक से साभार)
राजभाषा का तमगा रखने वाली सब जगह से हार चुकी हिंदी आखिरकार सुप्रीम कोर्ट में जीत गई। सुप्रीम कोर्ट ने विभागीय कार्यवाही और सजा का आदेश सिर्फ इसलिए निरस्त कर दिया कि कर्मचारी द्वारा मांगे जाने पर भी उसे हिंदी में आरोपपत्र नहीं दिया गया, जबकि कानूनन केंद्रीय कर्मचारी हिंदी या अंग्रेजी जिस भाषा में चाहे आदेश या पत्र की प्रति मांग सकता है। साल में एक बार हिंदी पखवाड़ा मनाकर हिंदी के प्रति कर्तव्य की इतिश्री समझने वाले अंग्रेजी दां अफसरों के लिए ये फैसला बड़ी नसीहत है।
सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा जीतने वाले नौसेना के कर्मचारी मिथलेश कुमार सिंह की याचिका केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (कैट) व बांबे हाई कोर्ट ने खारिज कर दी थी। कैट और हाई कोर्ट ने नौसेना की यह दलील मान ली थी कि कर्मचारी अनपढ़ नहीं है। वह स्नातक है और उसने अपना फार्म अंग्रेजी में भरा था, इसलिए आरोपपत्र हिंदी में न दिये जाने के आधार पर विभागीय जांच रद नहीं की जा सकती। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एचएल दत्तू और जस्टिस जेएस खेहर की पीठ ने कर्मचारी के हक में फैसला देते हुए वेतनमान में कटौती का 4 जनवरी 2005 का नौसेना का आदेश निरस्त कर दिया। पीठ ने कैट और हाई कोर्ट का फैसला भी खारिज कर दिया।
केंद्रीय कर्मचारियों के सर्विस रूल 1976 के नियमों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि अगर केंद्र सरकार किसी कर्मचारी की अर्जी,जवाब या ज्ञापन हिंदी में प्राप्त करती है तो उसे उसका उत्तर हिंदी में ही देना होगा। नियम 7 कहता है कि अगर कोई कर्मचारी सेवा से संबंधित किसी नोटिस या आर्डर की प्रति जिसमें विभागीय जांच की कार्यवाही भी शामिल है, हिंदी या अंग्रेजी जिस भाषा में मांगता है उसे बिना देरी वह दी जाएगी। कोर्ट ने कहा कि यह नियम इसलिए बनाया गया, ताकि किसी भी कर्मचारी को हिंदी या अंग्रेजी में निपुण न होने का नुकसान न उठाना पड़े। नेवल डाकयार्ड का 29 जनवरी 2002 का आदेश भी कहता है कि अगर कर्मचारी हिंदी में अर्जी या जवाब देता है और हिंदी में उस पर हस्ताक्षर करता है तो उसका जवाब भी हिंदी में ही दिया जाएगा। लेकिन इस मामले में मांगने पर भी याची को हिंदी में आरोपपत्र की प्रति नहीं दी गई। कोर्ट ने कहा कि कर्मचारी जिस भाषा में चाहे उसे दस्तावेज मुहैया कराना सरकार(नियोक्ता) की जिम्मेदारी है। आरोपपत्र हिंदी में न देने से याचिकाकर्ता को मिले निष्पक्ष सुनवाई एवं नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ है, जिससे वह अपना बचाव ठीक से नहीं कर पाया।
जानिए, क्या था मामला
मुंबई नेवल डाकयार्ड में काम करने वाले मिथलेश को काम के दौरान नाश्ता करने, उच्चाधिकारियों के साथ दुर्व्यवहार और उनका आदेश न मानने पर विभागीय जांच में आरोपपत्र दिया गया। विभाग ने हिंदी में आरोपपत्र की प्रति देने की मांग खारिज कर दी। इस पर मिथलेश ने विभागीय जांच में भाग नहीं लिया। जांच के बाद वेतनमान में कटौती की सजा मिलने पर मिथिलेश ने हिंदी में आरोपपत्र न मिलने को आधार बनाकर विभागीय जांच को रद करने की मांग की थी।
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