May 11, 2020

पचपन के पार :: यादें बचपन की ...


यूँ आता जाता तो अब भी कुछ नहीं है, पर तब तो कुछ भी नहीं जानता था। सन् 1963-64 की बात है। उम्र यही कोई दो या अढ़ाई साल रही होगी। महाराष्ट्र का एक नगर अहमदनगर... जहाँ तक याद पड़ता है वहाँ पानी की समस्या रहा करती थी। छावनी में टेंकर से पानी आता था और चाय की एल्यूमिनियम की अधिकतम आधा लीटर की एक केतली में हमें भी पानी भरवाने में अहम भूमिका निभाकर अपार संतुष्टि का अनुभव शायद हुआ करता होगा।

पिताजी फौज में थे और अपने जन्म के बाद पहली और आखरी बार हम और हमारी माताजी, जो तब तक हमारी बहन की भी माताजी बन चुकी थीं, पिताजी के साथ अहमदनगर में थे। उसके बाद 1965 के युद्ध में पिताजी हम सब को गाँव छोड़कर अपने टैंकों के साथ मोर्चे पर चले गए थे। फिर कभी अहमदनगर जाना कभी नसीब नहीं हुआ। बस एक बार रेलवे स्टेशन पर पैर रखने का अवसर जरूर मिला। अहमदनगर की कई यादें हैं ...संयुक्त शौचालय में ततैये के छत्ते से छेड़खानी के बाद ततैये के डंक का भरपूर मजा ...


एक शाम पिताजी के आने से पूर्व माँ की नज़रों से छुपा कर चुपके से आधा किलो ग्लूकोस के पूरे पैकेट को दो गिलास पानी में घोल कर रख देना कि पिताजी आने पर पी लेंगे...फिर दो झापड़ का मजा... और हाँ एक दिन एक लोहे की पौने इंच की कील (चोभिया) का गटक जाना... उसके बाद पुणे के सेना चिकित्सालय में भर्ती किया जाना... एक्सरे के लिए लिटाने पर गला फाड़ कर चिल्लाना... चिकित्सकों का जबर्दस्ती अंडे खिलाना और ईश्वर कृपा से ऑपरेशन की तिथि से सिर्फ एक दिन पहले कील का शौच के साथ पेट से निकल जाना... चिकित्सालय का एक फव्वारा ...चुपके से जाकर उसे चलाना और फिर एक नर्स का गुस्सा ...
   
दो-अढ़ाई साल की उम्र की यादों में जो सबसे अमिट रहीं वो छावनी में खुले आसमान के तले शायद रविवार को दिखाई जाने वाली फिल्में... गंगा-जमुना, मुझे जीने दो, दिल एक मंदिर, भरोसा, तेरे घर के सामने, ताजमहल, एक दिल और सौ अफसाने, नागिन, फागुन, कण कण में भगवान, पारसमणि, शिकारी, उस्तादों के उस्ताद, फिर वही दिल लाया हूँ, हरिश्चंद्र-तारामती, संगम, दोस्ती, जिद्दी, राजकुमार, हकीकत, लीडर, अपने हुए पराये, बेटी बेटे, मैं भी लड़की हूँ, साँझ और सवेरा, संत ज्ञानेश्वर, शहनाई, वो कौन थी, यादें, जिद्दी, बीस साल बाद, एक मुसाफिर एक हसीना, प्रोफेसर, हरियाली और रास्ता, असली नकली, चाइना टाउन, बीस साल बाद, रंगोली, साहब बीवी और गुलाम, सन ऑफ इंडिया, टावर हाउस, हम दोनों, अनुराधा, प्यार का सागर, मुगल-ए-आजम, बरसात की रात, दिल अपना और प्रीत पराई, जिस देश में गंगा बहती है, छलिया, अनाड़ी, दिल्लगी, धूल का फूल, भाभी इत्यादि फिल्मों की हैं। 

ये फिल्में शायद 1955 से 1964 के बीच बनी थीं और इनके नाम या शीर्षक बिलकुल भी याद नहीं थे...बस याद थे तो कुछ दृश्य या गीत... अविस्मरणीय संगीत।

इनमें से हरिश्चंद्र तारावती, टावर हाउस, यादें (सुनील दत्त अभिनीत) और कण कण में भगवान दुबारा देखना अभी तक नसीब नहीं हो सका । यादें इसलिए याद है कि कुछ समझ ही नहीं आया था कि एक पगला सा आदमी सारी फिल्म में भटकता सा क्यूँ फिर रहा है... शायद हम सब फिल्म के बीच में ही उठकर चले आए थे।

ऐसी ही एक फिल्म का गीत घोड़ा पिस्सोरी मेरा, ताँगा लाहौरी...बैठो जी बैठो मियाँ लाला...मैं हूँ अलबेला ताँगे वाला... ये कभी नहीं भुलाया जा सका। फिल्म के कुछ क्षणिक दृश्य ...ताँगे वाले की माँ का बीमार अवस्था में पत्थर ढोते हुए गिर कर मर जाना वगैरा स्मृति में बसे रहे। फिल्मों से लगाव की नींव शायद अहमदनगर छावनी के उस खुले आसमानी सिनेमाघर से ही पड़ी थी।

गूगल और एंड्रायड टीवी ने और कुछ दिया हो या नहीं पर घोड़ा पिस्सौरी... को फिर से देख पाने का अवसर जरूर दिया। आज बचपन की उस फिल्म को बेहद धुंधले प्रिंट के साथ उनसठ की उम्र में देखकर रोना आ गया। राजकुमार, हेलन, जॉनीवाकर, धूमल, निशी, नाज़, अभिनीत तथा नरेश सहगल निर्देशित इस फिल्म का नाम था- प्यार का बंधन ...। 

यदि गूगल 28 साल पहले होता तो इस फिल्म के संगीतकार रवि के साक्षात्कार के समय मैं उनसे जरूर पूछता कि ये घोड़ा पिस्सौरी मेरा... की धुन का राज़ क्या था ? मुझे पता ही नहीं था कि इस फिल्म के संगीतकार रवि थे...लाहौरी तांगे वाला "राजकुमार" था और फिल्म का शीर्षक प्यार का बंधन था...
-अजय मलिक           

2 comments:

  1. आपके बचपन की स्मर्ति मुझे अपने बचपन की यद् दिलती है महोदय
    अंतर बस वक्त का है वरना यादे कभी बदलती कहा।

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  2. आपका परिचय भी होता तो और भी अच्छा होता...

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