जी हाँ, देवेन्द्र की खटारा
साइकिल पर ही भागे थे।
वास्तव
में उस खटारा के जलवे हुआ करते
थे और उन जलवों का मजा लेना
सिर्फ हम दोनों ही जानते थे। खटारा होते हुए भी वह कभी रुकी
नहीं थी। कभी-कभार कुछ चें पें करती तो हम लोग ठेठ भारतीय अंदाज में लात घूंसों के जरिए उसके कान अच्छे से मरोड़
देते थे। उसके बाद खटारा की हिम्मत जवाब दे जाती और फिर वह चुपचाप हमारे वश में हो जाती थी। उसे अच्छी
तरह मालूम था कि ज्यादा चें-पें करने पर उठाकर पटके जाने की संभावनाओं को साकार
होने से नहीं रोका जा सकता । शुरू-शुरू में उसने दो-चार बार नखरे दिखाए भी थे, लेकिन बहुत जल्द उसे समझ आ गया था कि हम लोग उसके नखरे झेलने वालों में से नहीं हैं, नखरों का जवाब उठा-पटक से ही दिया जाता जाएगा ।
उठा
पटक के बाद मरगाड़ (मडगार्ड) तो मुड़ता ही था, अतिरिक्त घाव के रूप में रिम से एक दो
तिल्लियों के बाहर आ जाने, ब्रेक टूट जाने या पैडल के तिरछा हो जाने जैसी दयनीय स्थिति का सामना वह बेचारी खटारा कई बार कर चुकी थी। बड़ी भली बन गई थी
वह, पूरी संस्कारी । अब वह हर पैडल पर चेन कवर पर घिस्सा खाकर बस कराह भर लेती थी। दो पंद्रह-सोलह बरस के लौंडों के सामने उसकी एक न चलती, इसलिए वह धड़ल्ले से दौड़ती थी।
साइकिल पर भागना तो दूर, उस समय पैदल भागना भी फिल्म “हैप्पी भाग जाएगी” की हैप्पी के पाकिस्तान तक भाग जाने की तरह नहीं होता था। हमारे बड़े-बूढ़े बड़ी चिंता करते और खुफिया पुलिस से भी ज्यादा चौकन्नी नजर रखते थे। खटारा के गुणा-भाग से दो-तीन साल पहले एक बार देवेन्द्र के पिताजी के ट्रक पर
बैठकर एक रात, जो बेचारी अधेरे–उजाले के दलदल के बीच अभी सही से अपने होने का खुद भी
अहसास नहीं कर पाई थी, हम अपनी ननिहाल, जो हमारे गाँव से बस इतनी ही दूर थी, जितना सिकंदराबाद से गाजियाबाद के बीच का अंतराल । यह बात अलग थी कि इस अंतराल को पाताल लोक की यात्रा से भी दीर्घ होने की सहज सामूहिक और पूरी तरह
सामाजिक स्वीकृति मिल चुकी
थी।
गाजियाबाद में
घुसने से पहले एक नाली (छोटा नाला/ सिंचाई विभाग की नहर से गाँव-गाँव तक पानी पहुंचाने का साधन) बहा करती थी और वहाँ तक पहुँचना भी बड़े नसीब की बात मानी जाती थी, क्योंकि कोट का पुल पार करने के बाद दुजाने के पास सादोपुर की झाल को भी सही सलामत लांघ आना हम जैसे
बच्चे तो दूर बड़ों के लिए भी हँसी-ठट्टा नहीं माना जाता था। इस राह पर होने वाला जान लेने-देने का खुले आम तथाकथित कारोबार आमतौर पर देहात के आस-पास के सभी गांवों में शाम की चौधराहट भरी हुक्केबाजी के दौरान अत्यंत महत्वपूर्ण चर्चा का विषय होता था। अर्नब गोस्वामी की उबकाऊ बहस और रविश कुमार की निद्राऊ चिकचिक उस गरमागरम नित नए मिरच-मसाले के साथ चिलम दर चिलम उड़ेली
जाने वाली ख़ासमख़ास टोनिकाऊ बक-बक के सामने पानी भरती, उपले पाथती सी नजर आती है।
कई बार चिलम ठंडी होने से पहले ये बक-बक लाठियों की चांद्फ़ुटाऊ ठका-ठक का रंगीन रूप धारण कर लेती थी। गाँव वाले अदालत-पुलिस के चक्कर में पड़ने से पहले तुरत दान
महाकल्याण में विश्वास रखते हुए, किसकी लाठी में ज्यादा तेल पेला गया है, साबित करने में विलंब करना पूरे गाँव की तौहीन समझते थे। इस सारी लट्ठ्म लट्ठा के कई चश्मदीद गवाह हुआ करते थे, जो बाद में तहसील सिकंराबाद की कचहरी में कई पक्षों के बिदकाऊ गवाह बनते और गवाही
के बाद दाल फ्राई और सपेशल सब्जी (आलू-टमाटर की सब्जी) के साथ जीमकर ही गाँव वापस लौटते।
तो हमारे खटारा साइकिल पर भागने से कई बरस पहले जब हम उन दो मोर्चों को, जहाँ जिंदा आदमी को लाश बनाकर बहा दिए जाने के गब्बर सिंह से भी ज्यादा
खौफनाक सदियों से चले आ रहे किस्सों को मात देकर तीसरे मोर्चे लाल कुआं को भी लांघ गए और चिपयाने के प्रवेश द्वार के जोहड़ (तालाब) किनारे खड़े भुतहा पेड़ के नीचे से दिन ढलने के बाद भी किशोरावस्था अर्थात एक ऐसी अवस्था से गुजरते हुए, जिसमें भूत सबसे ज्यादा हमला करते हैं, नानी के दरबार में बेखौफ जिंदा पहुंच गए तो घंटों इस बात
पर चर्चा होती रही कि ये लौंडा तो घणा पगला गया है, पता नहीं क्या
करके छोड़ेगा... इसे किसी की परवाह नहीं है। ये अलग बात है कि हम बाकायदा अपनी माताजी के भेजे हुए ही ताऊ चतरु के ट्रक में चिपियाना गाँव के अंदर तक आए थे।
अंत में नानी ने
यह कहकर जिरह को अगले दिन तक के लिए मुल्तवी कर दिया था कि इस बार आने दो इसकी महतारी को
...उसे अच्छे से न बताया तो कहना...।
अगले दिन सुबह छोटे मामा के साथ, जो हमसे बस दो साल ही बड़ा था, हम उसकी गेंदें की बगिया की तीर की तरह नाक को चीरती खुशबू का चबेना करने के बाद कंचों के खेल
में मस्त हो गए थे। मस्ती के इस टेस्ट मैचनुमा
दौर में अपनी बोरियत दूर करने की खातिर व्यवधान डालने का काम बड़े मामा का हुआ करता था, जिसकी शादी हो चुकी थी। बड़े मामा की शादी में हमने अपने जीवन में पहली बार एक छोटी सी बोतल में नलकी डालकर कुछ रंगीन ठंडा-ठंडा पानी सा खींचा था, जो तत्काल दिमाग को झनझनाता हुआ नाक से बाहर आ गया था। लोगों ने बताया था कि उसे कोकाकोला कहते थे, जिसे अंग्रेज़ लोग बड़े रोब के साथ पीते थे।
वही छोटा मामा, झक्कास चीनी
कोराना कांड के वर्तमान दौर में लॉकडाउन शुरू
होने से ठीक तीन दिन पहले फिर से नौकरी करने कानपुर चला गया है और पंद्रह-बीस करोड़ का पति (करोड़पति) होते हुए भी 'मर गए-मर गए' की रट के मंत्र के साथ, मोह-माया त्याग पिछले दो माह से कानपुर में खुद रोटियाँ थेपकर संतुष्ट हो रहा है या पता नहीं कहीं और हथौड़ा बजा रहा है...
कंचों का दौर नानी के डंडा बजाने के बाद ही अस्थायी विराम पाता था। भरपूर गालियाँ बड़े मामा पर भी बिन माँगें क्यों मिलती थीं, यह प्रश्न नानी के मरने के बाद अनुत्तरित ही रह गया । रोने धोने का दौर कच्चे आम की गुड़ घुले गरम पानी में
नमक-मिर्च के साथ उबले पानी, जिसे खटाई कहा जाता था, के साथ दो तीन रोटियाँ भसकने और फिर मझली मौसी के दुलार से निद्रारत होने के बाद सदैव रफूचक्कर हो जाता था।
फिर शाम को घर से पचासेक गज दूर घेर में जाना
होता था। छोटे मामा की एक बहुत लंबी रेल हुआ करती थी, जिसे वह जालिम कभी भी छूना तो दूर देखने तक नहीं देता था। आज उनसठिया जाने के बावजूद उस रेल को नजर भर देख लेने की लालसा आज भी मन में
मौजें मारती है। वह रेल जो भुस भरी कोठारी की कच्ची दीवार में बनी
अलमारी में बुलेट ट्रेन से भी तेजी से दौड़ा करती थी और जो सिर्फ और सिर्फ छोटे मामा द्वारा ही देखी, चलाई, घुमाई जा सकती थी। उस अदृश्य रेल का चालक, संवाहक और हरेक स्टेशन का स्टेशन मास्टर भी सिर्फ छोटा
मामा ही था...
छोटे मामा के अनुसार वह रेल मामा के एक इशारे पर सर रर से जमीन में नीचे पाताल तक जाती थी। हमारा दुर्भाग्य यह था कि जब तक हम भुस पर गिरते-पड़ते-रपटते अलमारी तक पहुँचते, मामा फट से अलमारी के पट बंद कर ताला ठोक देता था। एक दिन मौसी की एक पिन्न (सेफ़्टी पिन) हाथ लग गई और हम नाना के साथ चुपके से घेर में चले आए लेकिन पिन से ताला तोड़कर रेल निकाल लेने की कोशिश में लगे ही थे कि जालिम मामा फिर आ पहुँचा...
बहुत गंभीरता से समझाते हुए बोला- “तुझे पता नहीं है, इस रेल को मैं इसलिए तुझे नहीं दिखाता हूँ, क्योंकि रेल के सारे डिब्बों में बहुत सारे भूत भरे हुए हैं।“ इतना सुनते ही भूत के भाय से हमारा ताला तोड़ने का रहा सहा जोश भी बेहोश हो गया था।
मामा बिलकुल सच
बोलता है, इसका बहुत पहले से हमें भरोसा था। एक दिन रेल की पटरी पार कर
खेतों पर जाते हुए मामा ने सचमुच का भूत दिखाया था। पटरी के पास फ़ारिग होना, हमें बहुत भाता था। उस जमाने में उससे स्वच्छ कोई जगह हमें नजर ही नहीं आती थी, इस नेक काम के लिए, जिसे करने-न करने पर हमारा कोई अधिकार नहीं था। राजा हरिश्चंद्र जैसा सदा सच बोलने वाला मामा उस शांत माहौल को भूत दिखाकर अशांत करने में महा पारंगत था।
उस दिन जब मामा
ने भूत दिखाया था तो वह बिजार (साँड) की शक्ल में था। बहुत लंबा चौड़ा विशाल बिजार, दूर पटरी के दूसरी ओर झूमता चला आ रहा था। तभी एक मालगाड़ी आ गई थी। मालगाड़ी के गुजरते ही भूत ने साँड से बदलकर गधे का रूप धर
लिया था। भूत से बचने के लिए मामा ने चिल्लाकार कहा था- अपनी चोटी ज़ोर से खींच कर पकड़े रखना वरना भूत खा जाएगा। एक हाथ से चोटी को भरपूर ताकत के साथ ज़ोर से खींचकर पकड़े हुए और दूसरे से
निक्कर का नाड़ा पकड़े उस दिन हम रेल की पटरियों से अर्धफारिग अवस्था में जो
भागे थे तो बस सीधे मौसी के पास आकर ही
दम लिया था।
हमारा और हमारे निक्कर का स्वच्छता अभियान पूरा करने के बाद मौसी ने पूरी कहानी सुन कर कितना तो समझाया था कि भूत-वूत कुछ नहीं होता, ये तुझे डराने के लिए ये सब कहता है ..., मगर हमें हमेशा मामा की सत्यनिष्ठा गोपनीय रिपोर्टों की सत्यनिष्ठा से भी अधिक हर तरह के संदेह से परे नजर आती थी। अगर मामा कहता है कि भूत है तो है...और उस दिन जब सचमुच दिखा भी दिया तो ...न होने का प्रश्न ही नहीं उठता था ...
हमारा और हमारे निक्कर का स्वच्छता अभियान पूरा करने के बाद मौसी ने पूरी कहानी सुन कर कितना तो समझाया था कि भूत-वूत कुछ नहीं होता, ये तुझे डराने के लिए ये सब कहता है ..., मगर हमें हमेशा मामा की सत्यनिष्ठा गोपनीय रिपोर्टों की सत्यनिष्ठा से भी अधिक हर तरह के संदेह से परे नजर आती थी। अगर मामा कहता है कि भूत है तो है...और उस दिन जब सचमुच दिखा भी दिया तो ...न होने का प्रश्न ही नहीं उठता था ...
यकीन मानिए, न तो हम गंजे थे, न ही सदाबहार गंजे...हमारे घने काले लहराते बालों से नया-नया धोनी तो क्या इंदुलेखा केश तेल वाले भी ईर्ष्या कर सकते थे... मगर ये तो मामा की सत्यनिष्ठा पर कभी संदेह न करने की हमारी नैतिक अडिगता का परिणाम था कि भूत से बचते रहने के लिए लगातार सोते-जागते बरसों तक चोटी खींच-खींच कर हमने
ऋषि-मुनियों की तरह अपने सिर के सारे बाल धीरे-धीरे खुद ही नोच डाले...और बन गए सदाबहार गंजे... ।
मामा ने भूत से बचने के और भी कई अचूक उपाय बताए थे पर उनका विवरण यहाँ देना, भ्रम की स्थिति पैदा कर सकता है।
सन् 1976 में खटारा साइकिल पर भागने वाले दिन हम यह भूल गए थे कि जीवन
में सबसे अधिक प्यार देने वाले बूढ़े बाबा (दादाजी) उन दिनों सख्त बीमार चल रहे थे।
बूढ़े बाबा हमारे असली गुरु थे। लिखना पढ़ना छोड़कर, वे बाकी सब कुछ जानते थे। पता नहीं कैसे उन्हें संपूर्ण रामचरितमानस मुँह-ज़बानी याद था।
नल-दमयंती हो या आल्हा-ऊदल या फिर राजा विक्रमादित्य...इन सब के किस्से
बाबा ने ही सुनाये थे... बूढ़े बाबा सारे वेद, पुराण और उपनिषद की
कहानियों के ब्रह्मांडकोश थे । हम दूसरी बोर्ड की अर्थात आठवीं की परीक्षा पास करने तक बूढ़े बाबा के बिल्लौरी यानी सबसे लाड़ले हुआ करते थे। उनके साथ के बिना हम सो ही नहीं पाते थे। बाबा को उम्र के कारण नींद नहीं आती थी। वे रात भर चौपाइयाँ गाते रहते और
हम उनके पहलू में सुख की नींद लेते हुए वे सारी चौपाइयाँ सुनते गुनते रहते...
खटारा साइकिल पर भागने और लापताई के वो नौ दिन बीतने पर जब हम लौटे तो
बूढ़े बाबा...
(-जारी)
-अजय मलिक
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