May 13, 2020

वो नौ-दो ग्यारह के नौ दिन -1


जी हाँ, खटारा साइकिल पर ही भागे थे... एक सेकेंडहैंड साइकिल पर दो यार।

शोले तो बाद में देखी थी और ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे गाना भी बाद में ही देखा-सुना गया था। गाँव से करीब पाँच मील दूर था  छोटा सा शहर सिकंदराबाद...दो सिनेमाघर वाला "भराही" के मेले वाला अपना शहर।

हमारे इस शहर, जो उस जमाने में हमारी तहसील भी हुआ करता था,सिकंदराबाद तक जाने के लिए परिवहन के साधन के रूप में बहुत छुटपन में तो हमारे हरपाल बाबा (ताऊ जी) के कंधे की सवारी के सिवाय कुछ और होता नहीं था। अति छुटपन से छुटकारे के बाद जो सहज साधन उपलब्ध था उसे बैलगाड़ी कहा जाता था। वह एक मौसमी या फ़सली सवारी हुआ करती थी यानी जब कोई अपना गुड, गेहूँ, मक्का वगैरह बेचने जाने वाला होता तो गाड़ीवान अर्थात गाड़ी के मालिक से अनुनय-विनय के बाद बैलगाड़ी की सवारी करने का सौभाग्य मिल जाता था। 

बड़े तगड़े नियम कायदे हुआ करते थे इस सवारी के। सुबह मुंह अधेरे उठकर तैयार होना पड़ता था। नाश्ते-पानी यानी पूरे दिन की रोटी शोटी का बंदोबस्त करके ही निकलना हो सकता था। शहर मेन होटल या ढाबे में खाने की अपनी औकात होती नहीं थी, बस एक चवन्नी के पाँच पानी के पटाखे (गोलगप्पे/पानीपूरी)खाने का जुगाड़ जरूर रो-धोकर या गाड़ीवाले का अनाज ढोकर कर लिया जाता था। वापसी का कोई समय निश्चित नहीं होता था। अगर फसल की बिक्री आढ़ती ने जल्दी करा दी तो शाम ढलने तक, वरना तो रात। कुल मिलाकर बैलगाड़ी की सवारी भरोसे की सवारी नहीं कही जा सकती थी।

उस जमाने में अपनी सबसे भरोसे की सवारी थी सूखे चमड़े की लोहा बन चुकी गद्दी वाली एक पुरानी साइकिल, जिसमें दो-चार बार फट चुके टायर गठाई के बाद हाथी कि सवारी के हिचकोलों का मुफ्त में मज़ा दिलाते थे। फटे हुए स्थान पर सिलाई कराने के बाद अंदर एक पुराने टायर का टुकड़ा डाला जाता था। इसी प्रकार जब टायर गलने पर रिम में फँसने वाला तार अलग हो जाता था तो मेलमिलाप उसे रेक्सीन के टुकड़े के साथ दस-पंद्रह पैसे में सिलवा कर किया जाता था।

साइकिल के साथ हमेशा टायर में हवा भरने का छोटा पंप रहा करता था। जिसकी उपलब्धता हवा भरते समय हमारे पाजामे पर लगे कुछ काले निशानों से सुनिश्चित होती थी। हमारे पाजामे के नीचे का हिस्सा जिसे मोहरी भी कह सकते हैं , साइकिल की चेन में फँसकर दस-पाँच बार यदि छिद्रित नहीं होता था तो हमें कच्चे लड़कपनियाँ साइकिल सवार से ज्यादा मान्यता नहीं दी जाती थीऔर ये हमें किसी कीमत पर मंजूर नहीं होता था। कभी कभार पंचर-संचर लगाने का सामान भी, जो वजन में पाव भर से ज्यादा नहीं होता था, रख लिया जाता था। सच कहें तो आज जो ये कंप्यूटर शम्प्यूटर की ठोक बजाई करना सीख गए हैं ये सब उसी पंचर लगाने और साइकिल की चेन पर ग्रीस लगाने के अभ्यास की बदौलत है।   

ये वो दौर था जब नई साइकिल की सवारी करने का अधिकार मात्र नवविवाहितजी..ओं को ही हुआ करता था, उनके कंधे पर लटकता, बार-बार सरकता, खड़खड़ाहट के साथ बजता ट्रांज़िस्टर और हाथ में फौजी केंटीन से खरीदी गई एचएमटी की घड़ी दूर से ही महासूर्य की तरह दमकती कम और सप्रयास दमकायी अधिक जाती थी।

हम जो कि नवीं कक्षा में सहानुभूतिपूर्वक पास/उत्तीर्ण कर दिए गए थे और दसवीं की बोर्ड की परीक्षा लिखने के बाद भी पूरे दम-खम से नवविवाहित होने से बचने के लिए सीना ठोक कर लड़ रहे थे, अत: पुरानी सेकेंड हैंड खटारा साइकिल के साथ जीने को मजबूर हुआ करते थे। एक बार उसके हेंडिल की नाल टूटने पर चुपके से मरम्मत कराने पर हुए दस रुपए के खर्चे पर एक बड़े महाभारत के बाद हमारी भी जबर्दस्त मरम्मत हो चुकी थी। 

तब हमारे गाँव में यह रिवाज था कि जाट का लौंडा जब दसवीं में दाखिला पा लेता था तो उसकी धूमधाम से शादी शायद इसी उद्देश्य से जबर्दस्ती कर दी जाती थी कि उसके बाद वह और आगे दौड़ने के ख्वाबों से सदा के लिए मुक्त हो जाए... दसवीं में फेल होने की जाटीय परंपरा को बदस्तूर जारी रखे और खेती बाड़ी करने में मन लगाए...ताकि अगली पीढ़ी के लौंडे भी दसवीं की दहलीज़ तक पहुँच सकें... हमारे गाँव के जाट के अधिकांश लौंडे दसवीं या उसके नीचे की किसी 'कलास' में फेल हुए ही हुआ करते थे। अगर कोई ग्यारहवीं में चला गया तो समझो हाथ से निकल गया...

हमारी सबसे प्यारी मौंसी का दृढ़ विश्वास था कि जो सोलहवीं पास कर लेता है, वो पागल हो जाता है। इसीलिए हमारे दोनों मामाओं ने दसवीं-बारहवीं के आगे का कोई झंझट ही नहीं पाला। हमारे गाँव के एकमात्र आईपीएस भी ग्यारह-बारह करते-करते हाथ और गाँव दोनों से निकल गए थे...ये और बात है कि जब वे रिटायर हुए तो गाँव गौतम बुद्ध नगर जिले में धकेल दिया गया और वे नोएडा में बस गए...        

हम इतने किस्मत वाले थे कि पाँचवीं और आठवीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा के बाद बोर्ड की तीसरी परीक्षा जिसे दसवीं कहते थे, भी लिख चुके थे। अब चूँकि बोर्ड की परीक्षाओं का पुराना अनुभव था और हमारे ततेरे (चचेरे की तर्ज़ पर ताऊ के बेटे के लिए नया शब्द) भाई दसवीं में पूरे तीन बार फेल होने के बाद बोर्ड को ही फेल कर चुके थे, तो बोर्ड की परीक्षाओं का डर ही स्वयं हमसे पूरी तरह डर कर भागने में ही भलाई समझता था। हम थे कि निडर होकर बोर्ड की परीक्षा के दौरान रोजाना बीस-पच्चीस मील अपनी खटारा साइकिल पर सहयात्री सहित जोशीली यात्रा करते और अपने जिले बुलंदशहर में होने का गौरव हासिल करते हुए कभी- कालीचरण, कभी- आशिक हूँ बहारों का, कभी- परवरिश...प्रतिज्ञा जैसी फिल्में थर्ड क्लास में सबसे आगे की सीट पर बैठकर देखा करते थे।
         
दामोदर और बंसल ये ही नाम थे हमारी तहसील सिकंदराबाद के सिनेमा घरों के। अपना फिल्मी होश संभालने के बाद सिकंराबाद में पहली बार रुपहले परदे पर जो फिल्म देखी गई, वह थी नवीन निश्चल अभिनीत वो मैं नहीं... मगर यह घटना तो बरसों पहले की थी।

हमारा लँगोटिया यार तो देवेन्द्र था, जिसे प्रतिज्ञा देखने के बाद एक पुलिसिया टोपी पहनने का शौक चढ़ा, जिसे बातों बातों में प्रतिज्ञा फिल्म के संवाद ...मुझे भी पुलिस बनाओ बोलने पर एक अंजान बुढिया ने आशीर्वाद स्वरूप कह दिया था-बेटा, ताने क्यों देता है, भगवान बनाए रखे... एक दिन पुलिस भी बन जाएगा। ... सचमुच वो दिल्ली पुलिस का हिस्सा बना और पिछले साल दरोगाई से रिटायर भी हो गया।

एक दूसरा यार था जो पॉकेट बुक्स के उपन्यास पढ़वाता था। आयु में आठ-दस साल बड़ा था, मगर इब्ने शफी बी ए, ओमप्रकाश शर्मा, कर्नल रंजीत, मनोज बाजपेई आदि के रेलवे स्टेशन पर बिकने वाले उपन्यास पढ़ने का दमदार नशीला चस्का जिस यार ने लगाया, उसका नाम था केहरी सिंह... । सच कहूँ तो जाने अनजाने किताबों से यानी पढ़ने से जुड़ाव उसी केहरी सिंह ने पैदा किया था। 

बिलकुल हवाला के कारोबार की तरह चलता था उपन्यासों के आदान प्रदान का वह परोपकारी सिलसिला...। कानों-कान किसी को खबर नहीं होने देनी है कि हम उपन्यास रखते-पढ़ते हैं...उपन्यास के लतैड़ियों के बीच आज के सोफ्टवेयर्स के लाइसेन्स की शर्तों को स्वीकारने जैसा अनिवार्य मगर अलिखित समझौता हुआ करता था और इसका पूरी ईमानदारी से पालन करना हम सब बेईमान उपन्यासबाज़ लड़कों का परम धर्म हुआ करता था। घेर की कच्ची कोठरी की दीवार में बनी तथाकथित अलमारी में सुरंगनुमा गड़ढा बनाया गया था उपन्यास छुपाने के लिए...इस मामले में सच मायनों में हम किसी "किम जोंग उन" से कम नहीं हुआ करते थे...   

तो जिस पुरानी साइकिल से भागे थे, वो देवेन्द्र की थी और भागे थे ....बनने के लिए...
(- जारी ) 

-अजय मलिक 

4 comments:

  1. अरे वाह खटारा साइकिल की यात्रा एवं लगभग 35-40 वर्ष बाद उसका ऐसा सजीव चित्रण..आनंद आ गया.. वाह आपके लगोटिए.. केहरी सिंह ... यह विल्कुल सच है कि पढ़ने का चस्का उन्ही उपन्यासों से लगता है...। इसी श्रंखला में और लिखते रहिए... आभार

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  2. मामा जी नमस्कार 🙏 हर किसी में ये हिम्मत नहीं होती ।

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  3. किशोरावस्था के उन अनुभवों की उसी अंदाज में शानदार और भावपूर्ण प्रस्तुति। रचनाधर्मिता का अनुपम उदाहरण... हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। गतांक से आगे की प्रतीक्षा है सर।

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