इस ब्लॉग को बड़ी उम्मीदों के साथ सृजित करने की कोशिश की थी। पहले यही विचार था कि रोज कम से कम एक चिट्ठा इस पर चश्पा किया जाएगा और यह क्रम कभी नहीं टूटेगा। पर ऐसा क्रम बनने से पहले ही बिखरने लगा। फिर भी कोशिश जारी रखी कि रोज न सही तीन दिन में या फिर सप्ताह में एक चिट्ठा जरूर पोस्ट करेंगे मगर अब अंतराल लगभग तीन माह का हो गया। अगर खानापूर्ति के लिए डाली गई पोस्ट को छोड़ दिया जाए तो शायद पिछले छह माह में कोई गंभीर चर्चा हिंदी सबके लिए पर नहीं की जा सकी। कारण बहुत सारे गिनाए जा सकते हैं मगर सबसे प्रमुख है उस विश्वास का पूरी तरह टूट जाना जो देश की भाग्य विधाता बड़ी-बड़ी सस्थाओं पर था। मार्च 2014 में हुई एक घटना ने सब कुछ इतना अविश्वसनीय बना दिया कि फिर किसी भी संस्था पर विश्वास करने का मन नहीं हुआ। अपनी पुरानी प्रकृति के अनुरूप चुनौती देने का मन भी हुआ मगर फिर निष्कर्ष यही निकाला कि मुर्दे को चुनौती का कोई प्रतिफल नहीं हो सकता । ज़िंदों से लड़ा जा सकता है, सुधारा जा सकता है मगर मुर्दों को कुछ नहीं किया जा सकता।
हिंदी के नाम पर जिसे भी देखा - दंतहीन, पोपले मुंह वाला पाया। ऐसे मुँह से सिर्फ पतला-पतला सा हलुआ ही खाया जा सकता है। हिंदी और हलुआ ... बस मन भर गया। हिंदी के लिए हरेक निर्णय हिंदी न जानने वाला करता है, हिंदी जानने वाला सिर्फ हलुआ बना सकता है। हिंदी न जानने वाला हिंदी के शोध प्रबंध तक बिना पढे ही समझ लेता है और हलुआ खाकर मस्त हो जाता है। हिंदी के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें कर हिंदी को लघु से लघुतर तक पहुंचाने के लिए दिन रात अँग्रेजी की ताल पर गाल बजाए जाते हैं, गोलबंदी की जाती है। हिन्दी के नाम पर जो दीवारें दिखाई देती हैं वे टीन की जंग लगी चादरें हैं जो अँग्रेजी के महल में चल रहे नए-नए शयन कक्षों के निर्माण कार्य से उठने वाली धूल और आवाजों को बेपरदा होने से रोकने के लिए अस्थायी रूप से लगाई गईं हैं। अंदर चल रहा पुख्ता और गगन चुंबी निर्माण कार्य नई-नई तकनीकों से लैस है और जब थोड़ी सी भी हवा चलती है तो टीन की पुरानी चादरें हिलने लगती हैं और उनसे खड़खड़ाहट उठने लगती है।
मैं समझ सकता हूं इस मानसिकता को....
ReplyDeleteपर हम पीछे नहीं जा सकते ....मुंह आगे को ही रखना है...
कभी तो महाभारत होगा....
सादर