(1)
जब तन मन
से
बरसी बदली
बिजली चमकी
गरजी कड़की
कुछ पल को धरा
अचम्भित सी
पुलकित परवश
किंचित काँपी
थिरकी थमकर
थककर ठहरी
फिर सँभल गई
- अजय (c)
बरसी बदली
बिजली चमकी
गरजी कड़की
कुछ पल को धरा
अचम्भित सी
पुलकित परवश
किंचित काँपी
थिरकी थमकर
थककर ठहरी
फिर सँभल गई
- अजय (c)
(2)
हाँ, टूटना
अंतिम क्रिया है
पर टूटने तक पहुँचना
टूटने के योग्य बनना
टूटने तक ख़ूब हँसना
बस यही
जीवन हमारा
खेलना और
खिलखिलाना
दिलों की
दीवानगी का
राज बनना
लपलपाती
कौंधती कोई
आग बनना
अंतिम क्रिया है
पर टूटने तक पहुँचना
टूटने के योग्य बनना
टूटने तक ख़ूब हँसना
बस यही
जीवन हमारा
खेलना और
खिलखिलाना
दिलों की
दीवानगी का
राज बनना
लपलपाती
कौंधती कोई
आग बनना
दीपों का
श्रृंगार करना
सहज सब
संस्कार करना
शत्रु का
संहार करना
जीतना औ'
जीतने की
आस रखना
और कभी
हार जाना
फिर टूटने तक
टूटने की चाह में
अनछुए से
पलों का
इंतज़ार करना
सूर्य
जल थल
वायु अग्नि
सभी को
प्रणाम कह
मुस्कुराना
और फिर
टूट जाना
बस यही
जीवन हमारा
-अजय (c)
(3)
ज़िंदगी
की
अनलिखी
किताब को
जब पूरा
पढ़ लिया
फिर अधूरी
कहानियों में
शेष क्या
विशेष क्या
- अजय (c)
अनलिखी
किताब को
जब पूरा
पढ़ लिया
फिर अधूरी
कहानियों में
शेष क्या
विशेष क्या
- अजय (c)
(4)
कुछ सपने
सपने होते हैं
कुछ सपने
सच हो जाते हैं
सच होकर भी
क्यों कुछ सपने
सपने सपने से लगते हैं
- अजय (c)
सपने होते हैं
कुछ सपने
सच हो जाते हैं
सच होकर भी
क्यों कुछ सपने
सपने सपने से लगते हैं
- अजय (c)
(5)
सब से
उधार लूँ
बहुत सारी हँसी
बहुत सारी ख़ुशी
बहुत सारा प्यार
अपना सब भी जोड़ूँ
और सब तुझे दे दूँ
तब भी तेरे समर्पण का
मूल्य चुकता नहीं होगा
-अजय (c)
बहुत सारी हँसी
बहुत सारी ख़ुशी
बहुत सारा प्यार
अपना सब भी जोड़ूँ
और सब तुझे दे दूँ
तब भी तेरे समर्पण का
मूल्य चुकता नहीं होगा
-अजय (c)
(6)
कभी उसके
साथ
कभी इसके साथ
कभी आगे पीछे
और सबके साथ
ज़िंदगी चुपचाप
चली जाती है
ख़ामोश पड़े
चौराहे पर
बाट जोहता
आहटें गिनता
अपनी बारी के
एक अंतहीन से
इंतज़ार में बेबस
थके पाँव खड़ा
पथिक* जाने कब
पथरा गया है
-अजय (c)
(7)
कभी इसके साथ
कभी आगे पीछे
और सबके साथ
ज़िंदगी चुपचाप
चली जाती है
ख़ामोश पड़े
चौराहे पर
बाट जोहता
आहटें गिनता
अपनी बारी के
एक अंतहीन से
इंतज़ार में बेबस
थके पाँव खड़ा
पथिक* जाने कब
पथरा गया है
-अजय (c)
(7)
पाप और
पुण्य का फ़ैसला करें तो ख़ुद आप करें
हमने जो भी किया वो सब तुम्हारे लिए किया
-अजय
हमने जो भी किया वो सब तुम्हारे लिए किया
-अजय
(8)
क्यूँ
बार-बार
सूरज निकलता है
नई सुबह होती है
फिर दिन चढ़ता है
क्यूँ बार- बार
दोपहर ढलती है
नई शाम होती है
सागर की लहरों में
सूरज समाता है
हर सुबह लगता है
कि बहुत ख़ुश है
रोशनी में नहायी
सचमुच ज़िन्दा सी
तरोताज़ा ज़िंदादिल
जीने की उमंगों से
सराबोर सरस सजल
पर शाम ढलने पर
बासी ताजगी लिए
अंततः रात आती है
सोने की चाह लिए
ख़्वाब की मोहताज
बरसों से खुली पलकें
मुँदने से पहले फिर
उजाला जग जाता है
अंधेरे उजाले के
इस सतत खेल में
मैं अपने खोए हुए
पन को ढूँढ रहा हूँ
पर जितना ढूँढता हूँ
उससे कहीं ज़्यादा
तुममें और तुम्हारे
पन में खो जाता हूँ
किस तलाश में में
मैं मुर्दों सा जी रहा हूँ
किस तलाश में मैं
जिंदा मर रहा हूँ
कि मर जाना चाहता हूँ
तुम कौन हो क्या हो
नर, नारी कि नारायण
मैं कुछ नहीं जानता
मैं बस सोचता हूँ कि
तुम हो, मैं तुममय हूँ
आधी रात को अवश सा
हर रोज़ कि हर रात
सोने की चाहत से थका
मैं अपलक अंधेरे के पार
एक छाया देखने लगता हूँ
रोते रोते उसे सँवारता हूँ
सुबह का कर्कश उजाला
मेरी हरेक तस्वीर और
उसकी छाया को
संपूर्णता में खा जाता है
कैनवास लगाने में दिन
रोज़ निकल जाता है
लगता है कि हम है
बहुत कुछ हैं और
फिर कुछ नहीं भी हैं
शायद बिल्कुल नहीं हैं
-अजय (c)
सूरज निकलता है
नई सुबह होती है
फिर दिन चढ़ता है
क्यूँ बार- बार
दोपहर ढलती है
नई शाम होती है
सागर की लहरों में
सूरज समाता है
हर सुबह लगता है
कि बहुत ख़ुश है
रोशनी में नहायी
सचमुच ज़िन्दा सी
तरोताज़ा ज़िंदादिल
जीने की उमंगों से
सराबोर सरस सजल
पर शाम ढलने पर
बासी ताजगी लिए
अंततः रात आती है
सोने की चाह लिए
ख़्वाब की मोहताज
बरसों से खुली पलकें
मुँदने से पहले फिर
उजाला जग जाता है
अंधेरे उजाले के
इस सतत खेल में
मैं अपने खोए हुए
पन को ढूँढ रहा हूँ
पर जितना ढूँढता हूँ
उससे कहीं ज़्यादा
तुममें और तुम्हारे
पन में खो जाता हूँ
किस तलाश में में
मैं मुर्दों सा जी रहा हूँ
किस तलाश में मैं
जिंदा मर रहा हूँ
कि मर जाना चाहता हूँ
तुम कौन हो क्या हो
नर, नारी कि नारायण
मैं कुछ नहीं जानता
मैं बस सोचता हूँ कि
तुम हो, मैं तुममय हूँ
आधी रात को अवश सा
हर रोज़ कि हर रात
सोने की चाहत से थका
मैं अपलक अंधेरे के पार
एक छाया देखने लगता हूँ
रोते रोते उसे सँवारता हूँ
सुबह का कर्कश उजाला
मेरी हरेक तस्वीर और
उसकी छाया को
संपूर्णता में खा जाता है
कैनवास लगाने में दिन
रोज़ निकल जाता है
लगता है कि हम है
बहुत कुछ हैं और
फिर कुछ नहीं भी हैं
शायद बिल्कुल नहीं हैं
-अजय (c)
(9)
मुहब्बत
मुझसे पूछती है करेगा क्या
जामे ज़हर इंतज़ार में है मरेगा क्या
- अजय (c)
जामे ज़हर इंतज़ार में है मरेगा क्या
- अजय (c)
(10)
पत्तियों
का काँपना
चिड़ियों का उड़ जाना
ये सब हवा की बात है
फूलों का नाचना
मौसम का मुस्काना
किसी का रूठना
किसी का मनाना
बोलना न बोलना
मुड़कर न देखना
चुप से चले जाना
आँसुओं का आना
हँसते चले जाना
ये सब हवा की बात है
- अजय (c)
चिड़ियों का उड़ जाना
ये सब हवा की बात है
फूलों का नाचना
मौसम का मुस्काना
किसी का रूठना
किसी का मनाना
बोलना न बोलना
मुड़कर न देखना
चुप से चले जाना
आँसुओं का आना
हँसते चले जाना
ये सब हवा की बात है
- अजय (c)
(11)
इन
पंिछयों की तरह उड़ूँ और आसमान हो जाऊँ
पलक उठें तो देखें मुझे, झुकें तो ख़्वाब हो जाऊँ
तु बेवफ़ा बावफा न हो, मैं वफ़ा की मिसाल हो जाऊँ
हर साँस साथ-साथ रहूँ, मैं हवा समान हो जाऊँ
- अजय (c)
पलक उठें तो देखें मुझे, झुकें तो ख़्वाब हो जाऊँ
तु बेवफ़ा बावफा न हो, मैं वफ़ा की मिसाल हो जाऊँ
हर साँस साथ-साथ रहूँ, मैं हवा समान हो जाऊँ
- अजय (c)
(12)
पाप-पुण्य
के फेर में
कोई तबाह कर गया
हम गुनाह से बच गए
कि वो गुनाह कर गया
तू जन्नत की चाह में
ज़मीं आसमां कर गया
वह एक ख़्वाब टूटकर
ख़्वाबगा ही चर गया
धड़कनें अभी भी हैं
चाहतें अभी भी हैं
दिल का कुछ पता नहीं
कि क्यों गया किधर गया
- अजय (c)
कोई तबाह कर गया
हम गुनाह से बच गए
कि वो गुनाह कर गया
तू जन्नत की चाह में
ज़मीं आसमां कर गया
वह एक ख़्वाब टूटकर
ख़्वाबगा ही चर गया
धड़कनें अभी भी हैं
चाहतें अभी भी हैं
दिल का कुछ पता नहीं
कि क्यों गया किधर गया
- अजय (c)
(13)
हम भी हवा में दौड़ते हैं
पर परोवाले परिन्दे नहीं हैं
हम भी सागर में पैठते हैं
मगर मगर से दरिंदे नहीं हैं
सोचते हो बस तुम्ही कवि हो
उगलते हो पर जिंदे नहीं हो
हम ख़ुद कविता हैं, ग़ज़ल हैं
यक़ीनन काग़ज़ी करिंदे नहीं हैं
- अजय (c)
पर परोवाले परिन्दे नहीं हैं
हम भी सागर में पैठते हैं
मगर मगर से दरिंदे नहीं हैं
सोचते हो बस तुम्ही कवि हो
उगलते हो पर जिंदे नहीं हो
हम ख़ुद कविता हैं, ग़ज़ल हैं
यक़ीनन काग़ज़ी करिंदे नहीं हैं
- अजय (c)
(14)
आज फिर हो
एक सुनामी
और मैं सागर बनूँ
एक सुनामी
और मैं सागर बनूँ
(15)
मन थका
ये तन थका
और ये जीवन थका
पर न हारा हौंसला मेरा
मैं जितना भी चला
जितनी ललक मेरी
मंज़िल को पाने की
बढ़ी, उतनी ही दूर
हटती गई मंज़िले
और उतने ही ज़्यादा
फ़ासले भी बढ़ गए
फिर भी मैं चलता रहा
लड़खड़ाते क़दमों से
टूटी हुई बेदम सी
बैसाखियों के सहारे
और चलता ही रहूँगा
जब तलक ये तन चलेगा
जब तलक ये मन चलेगा
जब तलक जीवन चलेगा
-अजय (c)
ये तन थका
और ये जीवन थका
पर न हारा हौंसला मेरा
मैं जितना भी चला
जितनी ललक मेरी
मंज़िल को पाने की
बढ़ी, उतनी ही दूर
हटती गई मंज़िले
और उतने ही ज़्यादा
फ़ासले भी बढ़ गए
फिर भी मैं चलता रहा
लड़खड़ाते क़दमों से
टूटी हुई बेदम सी
बैसाखियों के सहारे
और चलता ही रहूँगा
जब तलक ये तन चलेगा
जब तलक ये मन चलेगा
जब तलक जीवन चलेगा
-अजय (c)
(16)
हर रोज़ उसको समझाने से बेहतर है
कि किसी रोज़ खुद को समझाया जाए
- अजय
कि किसी रोज़ खुद को समझाया जाए
- अजय
(17)
वे भगवान को बिलकुल नहीं मानते
फिर भी मुफ्त में भगवान मिल जाएँ
तो एतराज नहीं है।
वे मंदिर जाने में विश्वास नहीं करते
फिर भी कोई अपने साथ ले जाए
तो एतराज नहीं है।
वे मन्नत – मनौती कभी नहीं मांगते
फिर भी किसी की मनौती मिल जाए
तो एतराज नहीं है।
वे धर्म को अधर्म से धिक्कारते हैं
फिर भी किसी धर्म से काम बन जाए
तो एतराज नहीं है।
-अजय मलिक (c)
फिर भी मुफ्त में भगवान मिल जाएँ
तो एतराज नहीं है।
वे मंदिर जाने में विश्वास नहीं करते
फिर भी कोई अपने साथ ले जाए
तो एतराज नहीं है।
वे मन्नत – मनौती कभी नहीं मांगते
फिर भी किसी की मनौती मिल जाए
तो एतराज नहीं है।
वे धर्म को अधर्म से धिक्कारते हैं
फिर भी किसी धर्म से काम बन जाए
तो एतराज नहीं है।
-अजय मलिक (c)
(18)
और बहुमत अन्याय के साथ है
.
अन्याय के विरूद्व लड़ते हुए
अब मैं रोज
स्वयं अपने साथ
अन्याय करने लगा हूँ.
.
इस लड़ाई में
मैं सिर्फ़ अल्पमत में ही नहीं, बल्कि
नितांत अकेला पड़ गया हूँ.
अन्याय सहने वाले सभी
विपक्ष में हैं
और बहुमत अन्याय के साथ है.
-- अजय मलिक
.
अन्याय के विरूद्व लड़ते हुए
अब मैं रोज
स्वयं अपने साथ
अन्याय करने लगा हूँ.
.
इस लड़ाई में
मैं सिर्फ़ अल्पमत में ही नहीं, बल्कि
नितांत अकेला पड़ गया हूँ.
अन्याय सहने वाले सभी
विपक्ष में हैं
और बहुमत अन्याय के साथ है.
-- अजय मलिक
(19)
मैं काँटों को भी दर्द का अहसास कराना चाहता हूँ
( एक बहुत पुरानी कविता )
.
जी हाँ ,
काँटे बोता हूँ मैं
और अंकुरित होने पर
सींचता भी हूँ उन्हें खूब
और मालूम है
उनके उग आने पर
चलता भी हूँ उन पर खूब।
.
फिर-फिर सींचता हूँ उन्हें
और काँटों की प्यास बुझने पर
अपने रक्त रंजित पैरों के ज़ख्मों को
सहलाता भी हूँ
मुस्कुराते हुए।
.
फिर एक-एक कर सारे काँटों को
संभालकर निकालता हूँ
मरहम लगाने से मुझे भी
चैन मिलता है
मगर काँटों को बुरा लगता है।
.
मगर पाँव ठीक होने पर जब मैं
फिर से काँटे बोता हूँ
फिर से वही सब दोहराता हूँ
तो हर बार मेरे पाँवों से
रक्त बह जाता है
और दर्द रह जाता है।
.
पता नहीं काँटों को
खून में मिले दर्द को पीने में
मज़ा क्यूं नहीं आता ?
पर मैं काँटों को भी दर्द का अहसास कराना चाहता हूँ।
जाने क्यूं...
जाने क्यूं?
- अजय मलिक (c)
( एक बहुत पुरानी कविता )
.
जी हाँ ,
काँटे बोता हूँ मैं
और अंकुरित होने पर
सींचता भी हूँ उन्हें खूब
और मालूम है
उनके उग आने पर
चलता भी हूँ उन पर खूब।
.
फिर-फिर सींचता हूँ उन्हें
और काँटों की प्यास बुझने पर
अपने रक्त रंजित पैरों के ज़ख्मों को
सहलाता भी हूँ
मुस्कुराते हुए।
.
फिर एक-एक कर सारे काँटों को
संभालकर निकालता हूँ
मरहम लगाने से मुझे भी
चैन मिलता है
मगर काँटों को बुरा लगता है।
.
मगर पाँव ठीक होने पर जब मैं
फिर से काँटे बोता हूँ
फिर से वही सब दोहराता हूँ
तो हर बार मेरे पाँवों से
रक्त बह जाता है
और दर्द रह जाता है।
.
पता नहीं काँटों को
खून में मिले दर्द को पीने में
मज़ा क्यूं नहीं आता ?
पर मैं काँटों को भी दर्द का अहसास कराना चाहता हूँ।
जाने क्यूं...
जाने क्यूं?
- अजय मलिक (c)
(20)
चुप भी नहीं चलेगी
बोलना भी जरूरी है
बस शर्त इतनी है कि
मुंह खोलना मना है
-अजय
बोलना भी जरूरी है
बस शर्त इतनी है कि
मुंह खोलना मना है
-अजय
(21)
इन छह महीनों में क्या होगा वो भी देखते हैं
घनी हरियाली में पतझड़ का मौसम देखते हैं
-अजय
घनी हरियाली में पतझड़ का मौसम देखते हैं
-अजय
(22)
सच्चाई से
गले मिलकर
बुराई को भी
अच्छा लगा
सूखे आसमां में
बादल सा फटा
महासागर बना
- अजय
गले मिलकर
बुराई को भी
अच्छा लगा
सूखे आसमां में
बादल सा फटा
महासागर बना
- अजय
(23)
स्वर्ग के द्वार तक आ गया हूँ
लगता है कि मोक्ष पा गया हूँ
और जन्मों की क्यों हो लालसा
इसी जन्म में सभी पा गया हूँ
-अजय
लगता है कि मोक्ष पा गया हूँ
और जन्मों की क्यों हो लालसा
इसी जन्म में सभी पा गया हूँ
-अजय
(24)
रात तो चली गई
पर सुबह नहीं हुई
अंधेरा घना हुआ
कफ़न सा तना हुआ
रास्ते थे मोड़ थे
हम भी बेजोड़ थे
पर न चयन हो सका
नहीं शयन हो सका
बढ़े क़दम न मुड़ सके
न टूटे बचे न जुड़ सके
हुआ बहुत शोर
बहुत धुँध छा गई
रात तो चली गई
-अजय (c)
पर सुबह नहीं हुई
अंधेरा घना हुआ
कफ़न सा तना हुआ
रास्ते थे मोड़ थे
हम भी बेजोड़ थे
पर न चयन हो सका
नहीं शयन हो सका
बढ़े क़दम न मुड़ सके
न टूटे बचे न जुड़ सके
हुआ बहुत शोर
बहुत धुँध छा गई
रात तो चली गई
-अजय (c)
(25)
जवाँ सरसों के हरे भरे
पत्तों की किलकारियाँ
पीले फूलों से लकदक
मदभरी सब क्यारियाँ
काली नम कोमल मिट्टी से
सजी इक सेज पर अलसाई
लहरा रही मुस्कान सी
बीजने झल रहीं पुरवाइयां
- अजय
पत्तों की किलकारियाँ
पीले फूलों से लकदक
मदभरी सब क्यारियाँ
काली नम कोमल मिट्टी से
सजी इक सेज पर अलसाई
लहरा रही मुस्कान सी
बीजने झल रहीं पुरवाइयां
- अजय
(26)
किसी क्यों का कोई
जवाब क्या देगा
एहसास हैं कोई
अल्फ़ाज़ क्या देगा
जान पर खेलकर
उड़ान भरते हैं
ये उनकी अदाएँ,
हिसाब क्या लेगा
- अजय
जवाब क्या देगा
एहसास हैं कोई
अल्फ़ाज़ क्या देगा
जान पर खेलकर
उड़ान भरते हैं
ये उनकी अदाएँ,
हिसाब क्या लेगा
- अजय
(27)
कई बरसों से
मैं रोज़ सोता हूँ
जब बेहोश होता हूँ
-अजय
मैं रोज़ सोता हूँ
जब बेहोश होता हूँ
-अजय
(28)
गले मिलने से कपड़ों की क्रीज़ बिगड़ जाती है
हाथ मिलने से तबीयते तहज़ीब बिगड़ जाती है
दुआ सलाम करो तो बिगड़ जाते हैं साहब बड़े
शहर की आबो-हवा में हर चीज़ बिगड़ जाती है
- अजय
हाथ मिलने से तबीयते तहज़ीब बिगड़ जाती है
दुआ सलाम करो तो बिगड़ जाते हैं साहब बड़े
शहर की आबो-हवा में हर चीज़ बिगड़ जाती है
- अजय
(29)
बात वो है जो बन जाती है
और कभी नहीं भी बनती
लोग हैं कि बात बनाते हैं
ये कभी बनाई नहीं जाती
बात है जो बन जाती है
तो बन जाता है आदमी
बात है जो नहीं बनती है
तो बल खाता है आदमी
बात है जो बनती है तो बनाती है
बात है बिगड़ती है तो गिराती है
बातें करते-करते जुड़ जाते हैं लोग
बातों-बातों में बिछड़ जाते हैं लोग
बात है बात में कि बात बनाती है
बात की बात फिर नई बात लाती है
किसी की बातों पर फ़िदा हो जाता है दिल
फिर बात होती है कि चुपके से आ गले मिल
बात होती है तो बिन बोले भी समझ आती है
बात चुपचाप बुलाती है, रुलाती है, हंसाती है
बात को ज़बान की ज़रूरत नहीं होती
ये भी सच है कि ये चुपचाप नहीं होती
किसी की बात पर बात करने से पहले
पता हो क्यों हुई, क्यों है, क्यूँ नहीं होती
- अजय (c)
और कभी नहीं भी बनती
लोग हैं कि बात बनाते हैं
ये कभी बनाई नहीं जाती
बात है जो बन जाती है
तो बन जाता है आदमी
बात है जो नहीं बनती है
तो बल खाता है आदमी
बात है जो बनती है तो बनाती है
बात है बिगड़ती है तो गिराती है
बातें करते-करते जुड़ जाते हैं लोग
बातों-बातों में बिछड़ जाते हैं लोग
बात है बात में कि बात बनाती है
बात की बात फिर नई बात लाती है
किसी की बातों पर फ़िदा हो जाता है दिल
फिर बात होती है कि चुपके से आ गले मिल
बात होती है तो बिन बोले भी समझ आती है
बात चुपचाप बुलाती है, रुलाती है, हंसाती है
बात को ज़बान की ज़रूरत नहीं होती
ये भी सच है कि ये चुपचाप नहीं होती
किसी की बात पर बात करने से पहले
पता हो क्यों हुई, क्यों है, क्यूँ नहीं होती
- अजय (c)
(30)
उसे इतना तो वक़्त दे कि वो ग़म खा सके
अफ़सोस करने से क्या भूखा पेट भरता है
बस अपनी सुनाता है कुछ उसकी भी सुन
इक ख़ुदगर्ज़ है तू झूठ है कि उसपे मरता है
- अजय
अफ़सोस करने से क्या भूखा पेट भरता है
बस अपनी सुनाता है कुछ उसकी भी सुन
इक ख़ुदगर्ज़ है तू झूठ है कि उसपे मरता है
- अजय
(31)
न थीं कुछ भी कभी
मजबूरियाँ उसकी
मिटने-मिटाने को
बनी थीं दूरियाँ उसकी
वो एक दौर था जब
बेवफ़ाई का चलन था
- अजय
मजबूरियाँ उसकी
मिटने-मिटाने को
बनी थीं दूरियाँ उसकी
वो एक दौर था जब
बेवफ़ाई का चलन था
- अजय
(32)
जब आँखें हुईं चार
तो दिल गया हार
फिर झूठी तकरार
और बन गए यार
कुछ मान मनुहार
स्वप्नों की दरकार
हूक उठी, पुकार
यूँ हो गया प्यार
- अजय (c)
तो दिल गया हार
फिर झूठी तकरार
और बन गए यार
कुछ मान मनुहार
स्वप्नों की दरकार
हूक उठी, पुकार
यूँ हो गया प्यार
- अजय (c)
(33)
छूं छुकीं हुई वो हरी मिर्च
तेरी माँ लोनी लिपटी रोटी
कभी याद कर पो लेता हूँ
कुछ पल चुप से रो लेता हूँ
- अजय
तेरी माँ लोनी लिपटी रोटी
कभी याद कर पो लेता हूँ
कुछ पल चुप से रो लेता हूँ
- अजय
(34)
कुछ रास्ते ऐसे भी थे
जो कभी नहीं चले गये
जो कभी न बाट बन सके
न दिल के कपाट बन सके
कुछ मंज़िले उनकी भी थीं
कि ख़्वाहिशें उनकी भी थीं
-अजय (c)
जो कभी नहीं चले गये
जो कभी न बाट बन सके
न दिल के कपाट बन सके
कुछ मंज़िले उनकी भी थीं
कि ख़्वाहिशें उनकी भी थीं
-अजय (c)
(35)
फूल में हर पत्ती में
इक बूँद से सागर तलक
जो कण कण में विद्यमान है
ये तीर उसी का और वही कमान है
ये जीत है या हार की हार हो
छोड़ता हूँ फल- प्रतिफल सब तेरे लिए
मुझे तो इन मुस्कुराहटों पर नाज़ है
जिसे न-हो कि मुहब्बत समझ रहे हैं आप
मुसािफर हूँ मुझे उसी मुहब्बत से प्यार है
-अजय (c)
इक बूँद से सागर तलक
जो कण कण में विद्यमान है
ये तीर उसी का और वही कमान है
ये जीत है या हार की हार हो
छोड़ता हूँ फल- प्रतिफल सब तेरे लिए
मुझे तो इन मुस्कुराहटों पर नाज़ है
जिसे न-हो कि मुहब्बत समझ रहे हैं आप
मुसािफर हूँ मुझे उसी मुहब्बत से प्यार है
-अजय (c)
(36)
बस यही तो तकरार है कि
दिल में उसके घर बसा है
और मुझको घर से प्यार है
- अजय
दिल में उसके घर बसा है
और मुझको घर से प्यार है
- अजय
(37)
खंडहर बनी
ये इमारत और
इसकी नींव भी
बहुत मज़बूत थी
इक बिजली गिरी
और खंडहर बनी
-अजय
ये इमारत और
इसकी नींव भी
बहुत मज़बूत थी
इक बिजली गिरी
और खंडहर बनी
-अजय
(38)
मेरे प्यार पर भारी पड़ीं मज़बूरियाँ उसकी
फिर इस बहाने से बढ़ीं सब दूरियाँ उसकी
- अजय
फिर इस बहाने से बढ़ीं सब दूरियाँ उसकी
- अजय
(39)
तुम बनो
फिर से सुनामी
और मैं सागर बनूँ
तुम बनो
पन्हीं का आँचल
और मैं गागर बनूँ
तुम बनो
पनघट या प्याऊ
और मैं वो जल बनूँ
तुम बनो
घर की मर्यादा
और मैं वो घर बनूँ
-अजय (c)
फिर से सुनामी
और मैं सागर बनूँ
तुम बनो
पन्हीं का आँचल
और मैं गागर बनूँ
तुम बनो
पनघट या प्याऊ
और मैं वो जल बनूँ
तुम बनो
घर की मर्यादा
और मैं वो घर बनूँ
-अजय (c)
(40)
पाप-पुण्य के फेर में
कोई तबाह कर गया
हम गुनाह से बच गए
कि वो गुनाह कर गया
तू जन्नत की चाह में
ज़मीं आसमां कर गया
वह एक ख़्वाब टूटकर
ख़्वाबगा ही चर गया
धड़कनें अभी भी हैं
चाहतें अभी भी हैं
दिल का कुछ पता नहीं
कि क्यों गया किधर गया
- अजय (c)
कोई तबाह कर गया
हम गुनाह से बच गए
कि वो गुनाह कर गया
तू जन्नत की चाह में
ज़मीं आसमां कर गया
वह एक ख़्वाब टूटकर
ख़्वाबगा ही चर गया
धड़कनें अभी भी हैं
चाहतें अभी भी हैं
दिल का कुछ पता नहीं
कि क्यों गया किधर गया
- अजय (c)
(41)
पत्तियों का काँपना
चिड़ियों का उड़ जाना
ये सब हवा की बात है
फूलों का नाचना
मौसम का मुस्काना
किसी का रूठना
किसी का मनाना
बोलना न बोलना
मुड़कर न देखना
चुप से चले जाना
आँसुओं का आना
हँसते चले जाना
ये सब हवा की बात है
- अजय (c)
चिड़ियों का उड़ जाना
ये सब हवा की बात है
फूलों का नाचना
मौसम का मुस्काना
किसी का रूठना
किसी का मनाना
बोलना न बोलना
मुड़कर न देखना
चुप से चले जाना
आँसुओं का आना
हँसते चले जाना
ये सब हवा की बात है
- अजय (c)
(42)
तू बता
फिर से
तेरे लिए
क्या जन्म लेना
तू तो एक आत्मा भर
और मैं परमात्मा में
लीन होकर
क्यों रखूँगा
आत्मा की चाह
या फिर लौटने का मोह
पर अगर परमात्मा भी
तेरी तपन से तड़पकर
तोड़ देगा मोक्ष बंधन
तोड़ लेगा तार-तार
टूटकर भी न जुड़ूँगा
देह न धारण करूँगा
आदमी न फिर बनूँगा
तू बता
तेरे लिए
क्यों जन्म ये
काफ़ी नहीं है
ये जनम मेरा नहीं क्या !
ये जनम तेरा नहीं क्या !
- अजय
फिर से
तेरे लिए
क्या जन्म लेना
तू तो एक आत्मा भर
और मैं परमात्मा में
लीन होकर
क्यों रखूँगा
आत्मा की चाह
या फिर लौटने का मोह
पर अगर परमात्मा भी
तेरी तपन से तड़पकर
तोड़ देगा मोक्ष बंधन
तोड़ लेगा तार-तार
टूटकर भी न जुड़ूँगा
देह न धारण करूँगा
आदमी न फिर बनूँगा
तू बता
तेरे लिए
क्यों जन्म ये
काफ़ी नहीं है
ये जनम मेरा नहीं क्या !
ये जनम तेरा नहीं क्या !
- अजय
(43)
पूछ तो
इन आँधियों से
क्यूँ चलीं,
क्यों उठा
तूफान मन में
-अजय
इन आँधियों से
क्यूँ चलीं,
क्यों उठा
तूफान मन में
-अजय
(44)
कब सुबह हो गई
रात को पता नहीं
सारा जग जग गया
रोशनी से भर गया
रात को पता नहीं
- अजय
रात को पता नहीं
सारा जग जग गया
रोशनी से भर गया
रात को पता नहीं
- अजय
(45)
एक खुली किताब
हरेक पन्ना
साफ़-सुथरा, खुला
मोतियों से चमकते
अक्षरों से भरा
चहकता हुआ
कुलाँचे भरता
ढेर सारे हमसफ़र पन्ने
एक छोर से बँधे
एक छोर से उड़ते
फड़फड़ाते
पलट जाने को
तरसते तडपते पन्ने
अक्षरों से
क्या शब्द बने
नहीं देखे,
किसने क्या लिखा
कवाली कविता कि कथा
हर पन्ना हमेशा खुला
जो था जैसा
ठीक वैसा, सच्चा
किससे कब
क्या पढ़ा गया और
किसने क्या समझा
उलटा जाता रहा
हरदम हरेक
खुला उड़ता पन्ना
कुछ उँगलियों ने
दबाया हल्का
कसा छोड़ा
खुरदरा सा स्पर्श
किसी ने मोड़ा
पर सबने पढ़ें
बस कुछ पन्ने
कुछ मटमैले
जिनके कोने
कभी लगा कि
हँसा खिलखिलाया
कभी रोया
कभी बहुत उदास हुआ
वो भी खुला था,
खुली किताब का
अछूता आखरी पन्ना
पढ़ा जाने को कसकता
बेबसी से भरा
एक खुली किताब
हमेशा से खुली पूरी
अनपढ़ी ठहरी, खुलेआम
खुलेपन के रहस्य से
सराबोर, डराती सी
एक खुली किताब
बचकर भागते भगाते
दूर से देखते जिज्ञासु
शक्की सहमे हुए
अपने-अपने
डरों में बंद
सदियों की
काइयों पर
फिसलते
बंद घरों में ठहरे
ये ठहरे हुए लोग
- अजय (c)
हरेक पन्ना
साफ़-सुथरा, खुला
मोतियों से चमकते
अक्षरों से भरा
चहकता हुआ
कुलाँचे भरता
ढेर सारे हमसफ़र पन्ने
एक छोर से बँधे
एक छोर से उड़ते
फड़फड़ाते
पलट जाने को
तरसते तडपते पन्ने
अक्षरों से
क्या शब्द बने
नहीं देखे,
किसने क्या लिखा
कवाली कविता कि कथा
हर पन्ना हमेशा खुला
जो था जैसा
ठीक वैसा, सच्चा
किससे कब
क्या पढ़ा गया और
किसने क्या समझा
उलटा जाता रहा
हरदम हरेक
खुला उड़ता पन्ना
कुछ उँगलियों ने
दबाया हल्का
कसा छोड़ा
खुरदरा सा स्पर्श
किसी ने मोड़ा
पर सबने पढ़ें
बस कुछ पन्ने
कुछ मटमैले
जिनके कोने
कभी लगा कि
हँसा खिलखिलाया
कभी रोया
कभी बहुत उदास हुआ
वो भी खुला था,
खुली किताब का
अछूता आखरी पन्ना
पढ़ा जाने को कसकता
बेबसी से भरा
एक खुली किताब
हमेशा से खुली पूरी
अनपढ़ी ठहरी, खुलेआम
खुलेपन के रहस्य से
सराबोर, डराती सी
एक खुली किताब
बचकर भागते भगाते
दूर से देखते जिज्ञासु
शक्की सहमे हुए
अपने-अपने
डरों में बंद
सदियों की
काइयों पर
फिसलते
बंद घरों में ठहरे
ये ठहरे हुए लोग
- अजय (c)
(46)
कोयला
जलता है
उष्मा देता है
जलाता है
अपनी आग में
ख़ुद पहले
जलता है
पिघलता नहीं
पिघलाता है
खोलते स्नेह से
तेज़ लौ का तेज़
कितना तेज़ है
उसका स्नेह
कितनी ललक
प्यार की पराकाष्ठा
लांघता है सब
सारी सीमाएँ तोड़ता
अपनी सारी उष्मा
परायों को देता
काला कुच-कुच कोयला
बहुत लुभाता है
कितने घने
कितने गहरे
इंद्रधनुषी रंग
गहरा लाल
लपलपाती
लीलती लौ
काला कुच-कुच कोयला
कभी अपना रंग
नहीं छोड़ता
जो भी छूता है
उसके रंग में
रंग जाता है
जो कभी नहीं छूटता
कुंदन बन जाता है
-अजय (c)
जलता है
उष्मा देता है
जलाता है
अपनी आग में
ख़ुद पहले
जलता है
पिघलता नहीं
पिघलाता है
खोलते स्नेह से
तेज़ लौ का तेज़
कितना तेज़ है
उसका स्नेह
कितनी ललक
प्यार की पराकाष्ठा
लांघता है सब
सारी सीमाएँ तोड़ता
अपनी सारी उष्मा
परायों को देता
काला कुच-कुच कोयला
बहुत लुभाता है
कितने घने
कितने गहरे
इंद्रधनुषी रंग
गहरा लाल
लपलपाती
लीलती लौ
काला कुच-कुच कोयला
कभी अपना रंग
नहीं छोड़ता
जो भी छूता है
उसके रंग में
रंग जाता है
जो कभी नहीं छूटता
कुंदन बन जाता है
-अजय (c)
(47)
दर्द दे तो इतना दे
कि दवा न बचे कोई
और कसक इतनी दे
कि दुआ न बचे कोई
ये सलीका तो बता
कि घाव तो देता है
नासूर नहीं देता
-अजय (c)
कि दवा न बचे कोई
और कसक इतनी दे
कि दुआ न बचे कोई
ये सलीका तो बता
कि घाव तो देता है
नासूर नहीं देता
-अजय (c)
(48)
पत्तियों का काँपना
चिड़ियों का उड़ जाना
ये सब हवा की बात है
फूलों का नाचना
मौसम का मुस्काना
किसी का रूठना
किसी का मनाना
बोलना न बोलना
मुड़कर न देखना
चुप से चले जाना
आँसुओं का आना
हँसते चले जाना
ये सब हवा की बात है
- अजय (c)
चिड़ियों का उड़ जाना
ये सब हवा की बात है
फूलों का नाचना
मौसम का मुस्काना
किसी का रूठना
किसी का मनाना
बोलना न बोलना
मुड़कर न देखना
चुप से चले जाना
आँसुओं का आना
हँसते चले जाना
ये सब हवा की बात है
- अजय (c)
(49)
बस !
नहीं
थोड़ा
और
चाहिए
ये राशन
थोड़े ही है
प्यार है
इससे
पेट
नहीं भरता
मन
नहीं भरता...
-अजय (c)
नहीं
थोड़ा
और
चाहिए
ये राशन
थोड़े ही है
प्यार है
इससे
पेट
नहीं भरता
मन
नहीं भरता...
-अजय (c)
(50)
छलका एक छोटा
मधुर मीठा कुआँ
खारे समंदर से
यारी कर बैठा
शर्त कुछ ऐसी कि
कुआँ कुछ नहीं देगा
मीठेपन के सिवाय
और सिर्फ़ वो लेगा
जो मिठास नहीं है
उसके पास नहीं है
सागर ने कहा
वो भी लेगा तो
मिठास भर लेगा
जो उसके पास नहीं
और ख़ुशी से देगा
भरेगा खारेपन से
कुएँ को लबालब
अंजाम इस पाक
मुहब्बत का हुआ
वही जो होना था
कुआँ न रहा
न बची कहीं
मिठास उसकी
सागर गरजता
हँसता रहा बेख़ौफ़
लोग प्यासे मरते रहे
फिर इक िदन
मिठास की उदासी पर
सागर का दिल धड़का
छन-छन छलक पड़े
बेबस से बेहिसाब
आँसू और बरसे बादल
मीठे पानी का बना
फिर एक नया कुँआ
सच्चे सागर से
यारी कर बैठा
जब पानी घटता
कुँआ सागर के
गले लग मुस्कुराता
सागर हँसता, बरबस
छलक जाते आँसू
बहुत मीठे, निर्मल
निश्कलंक, निःस्वार्थ
मीठे पानी और
मोतियों से भरा
एक नया कुआँ
- अजय (c)
मधुर मीठा कुआँ
खारे समंदर से
यारी कर बैठा
शर्त कुछ ऐसी कि
कुआँ कुछ नहीं देगा
मीठेपन के सिवाय
और सिर्फ़ वो लेगा
जो मिठास नहीं है
उसके पास नहीं है
सागर ने कहा
वो भी लेगा तो
मिठास भर लेगा
जो उसके पास नहीं
और ख़ुशी से देगा
भरेगा खारेपन से
कुएँ को लबालब
अंजाम इस पाक
मुहब्बत का हुआ
वही जो होना था
कुआँ न रहा
न बची कहीं
मिठास उसकी
सागर गरजता
हँसता रहा बेख़ौफ़
लोग प्यासे मरते रहे
फिर इक िदन
मिठास की उदासी पर
सागर का दिल धड़का
छन-छन छलक पड़े
बेबस से बेहिसाब
आँसू और बरसे बादल
मीठे पानी का बना
फिर एक नया कुँआ
सच्चे सागर से
यारी कर बैठा
जब पानी घटता
कुँआ सागर के
गले लग मुस्कुराता
सागर हँसता, बरबस
छलक जाते आँसू
बहुत मीठे, निर्मल
निश्कलंक, निःस्वार्थ
मीठे पानी और
मोतियों से भरा
एक नया कुआँ
- अजय (c)
(51)
तेरी याद रहे न रहे
तेरी चाह रहे न रहे
तेरी आहटों की गंध हो
तेरी हँसी की सुगंध हो
पर तू आ न सके
इसी जहां में रहे
उम्र भर ढूँढे पर
कभी पा न सके
-अजय (c)
तेरी चाह रहे न रहे
तेरी आहटों की गंध हो
तेरी हँसी की सुगंध हो
पर तू आ न सके
इसी जहां में रहे
उम्र भर ढूँढे पर
कभी पा न सके
-अजय (c)
(52)
कोई क़सम खाता है
फिर मुकर जाता है
राह चलते चलते
बदल जाते हैं लोग
कोई आता है
कोई जाता है
- अजय
फिर मुकर जाता है
राह चलते चलते
बदल जाते हैं लोग
कोई आता है
कोई जाता है
- अजय
(53)
फिर ये मौसम
ज़रूर बलदेगा
फिर सभी खेत
लहलहाएंगे
कोपलें नई
निकलेंगी
हरियाली भी
फिर छाएगी
ये घटाएँ
फिर गरजेंगीं
ख़ूब बरसेंगी
दिन ढलेगा,
रात आएगी
फिर सुबह होगी नई
कुछ बात होगी नई
फिर उसके घर
कोई आएगा
द्वार धड़कनों से
खटखटाएगा
वो भी हँसेगी
गुनगुनाएगी
ख़ुद को रोकेगी
पर न किसी वश
रोक पाएगी
द्वार खोलेगी
दौड़ी आएगी
हवाएँ ये बहेंगी
यूँ ही बिखरेंगी
ख़ुशनसीबियाँ
दिलों को भाएँगीं
मैं सितारों से
सब ये देखूँगा
पलकें मूँदेगी
तब नज़र आऊँगा
ज़मीं आसमां होंगे
वो रखे इनको,
मैं चला
इन सितारों से परे
और भी जहाँ होंगे
- अजय (c)
ज़रूर बलदेगा
फिर सभी खेत
लहलहाएंगे
कोपलें नई
निकलेंगी
हरियाली भी
फिर छाएगी
ये घटाएँ
फिर गरजेंगीं
ख़ूब बरसेंगी
दिन ढलेगा,
रात आएगी
फिर सुबह होगी नई
कुछ बात होगी नई
फिर उसके घर
कोई आएगा
द्वार धड़कनों से
खटखटाएगा
वो भी हँसेगी
गुनगुनाएगी
ख़ुद को रोकेगी
पर न किसी वश
रोक पाएगी
द्वार खोलेगी
दौड़ी आएगी
हवाएँ ये बहेंगी
यूँ ही बिखरेंगी
ख़ुशनसीबियाँ
दिलों को भाएँगीं
मैं सितारों से
सब ये देखूँगा
पलकें मूँदेगी
तब नज़र आऊँगा
ज़मीं आसमां होंगे
वो रखे इनको,
मैं चला
इन सितारों से परे
और भी जहाँ होंगे
- अजय (c)
(54)
मुझे इस दिल की
सफ़ाई करनी है
सभी यादों की रिहाई करनी है
सितारों से परे दूर कहीं जाना है
ये किसी और का ठिकाना है
तेरी साँसों से सराबोर सिलवटें सारी
हरेक कोना, हर दीवार और फ़र्श-छत भारी
तेरी आहटें, चाहते, गिले-शिकवे-सनकें
तेरी धड़कनों से अटा पड़ा ये घर सारा
मुझे इस घर की
धुलाई करनी है
मुझे इस दिल की
सफ़ाई करनी है
सभी यादों की रिहाई करनी है
- अजय (c)
सफ़ाई करनी है
सभी यादों की रिहाई करनी है
सितारों से परे दूर कहीं जाना है
ये किसी और का ठिकाना है
तेरी साँसों से सराबोर सिलवटें सारी
हरेक कोना, हर दीवार और फ़र्श-छत भारी
तेरी आहटें, चाहते, गिले-शिकवे-सनकें
तेरी धड़कनों से अटा पड़ा ये घर सारा
मुझे इस घर की
धुलाई करनी है
मुझे इस दिल की
सफ़ाई करनी है
सभी यादों की रिहाई करनी है
- अजय (c)
(55)
एक फूल
मुस्कुराया
बहुत देर
हँसता रहा
शोख़ चंचल
ख़ुशबू लिए
प्रतीक्षारत
कुम्हलाई
पंखुड़ियाँ
कराहीं
अंततः
ओस सी
झर गईं
एक एक कर
हौले हौले
उस राह
गुज़रा
न कोई
एक चींटी
और कुछ
मधुमक्खियों के
सिवाय
- अजय (c)
मुस्कुराया
बहुत देर
हँसता रहा
शोख़ चंचल
ख़ुशबू लिए
प्रतीक्षारत
कुम्हलाई
पंखुड़ियाँ
कराहीं
अंततः
ओस सी
झर गईं
एक एक कर
हौले हौले
उस राह
गुज़रा
न कोई
एक चींटी
और कुछ
मधुमक्खियों के
सिवाय
- अजय (c)
(56)
कोई हँसी बेचने आया था
और दर्द थमाकर चला गया
जीने की तमन्ना क्या कर ली
वो मौत थमाकर चला गया
जैसे भी थे हम पर ज़िंदा थे
ख़ुद पर न कभी शर्मिंदा थे
कट जातीं थी शामें वीरानी
पी लेते थे चुप हर नाकामी
सूरज के उजाले का सपना
घुप रात थमाकर चला गया
कोई हँसी बेचने आया था
और दर्द थमाकर चला गया
- अजय (c)
और दर्द थमाकर चला गया
जीने की तमन्ना क्या कर ली
वो मौत थमाकर चला गया
जैसे भी थे हम पर ज़िंदा थे
ख़ुद पर न कभी शर्मिंदा थे
कट जातीं थी शामें वीरानी
पी लेते थे चुप हर नाकामी
सूरज के उजाले का सपना
घुप रात थमाकर चला गया
कोई हँसी बेचने आया था
और दर्द थमाकर चला गया
- अजय (c)
(57)
हर रोज़ नई-नई कई यादें जोड़ लेता हूँ
पुराने को मिटाता हूँ पर पहले सहेज लेता हूँ
इस लाइलाज बीमारी का हकीम हँसता है
जब-जब उससे बचता हूँ नज़रें फेर लेता हूँ
- अजय (c)
पुराने को मिटाता हूँ पर पहले सहेज लेता हूँ
इस लाइलाज बीमारी का हकीम हँसता है
जब-जब उससे बचता हूँ नज़रें फेर लेता हूँ
- अजय (c)
(58)
रोज़
नई-नई
कई यादें
जुड़ती हैं और
पुरानी होती हैं
कोई तो
बताए या
ईजाद करे
भूल जाने का
बेचूक तरीक़ा कोई
- अजय
नई-नई
कई यादें
जुड़ती हैं और
पुरानी होती हैं
कोई तो
बताए या
ईजाद करे
भूल जाने का
बेचूक तरीक़ा कोई
- अजय
(59)
मुहब्बत लिखता हूँ तो
दोस्तों को बुरा लगता है
नफ़रतों के लिखने से
रब को शिकायत होती है
-अजय (c)
दोस्तों को बुरा लगता है
नफ़रतों के लिखने से
रब को शिकायत होती है
-अजय (c)
(60)
समय
फिर गुज़रा
वसुंधरा डोली
गिरे पेड़ अनेक
फिर उनके तले
नए पत्तों की टोली
मुरझाए
धूप से झुलसे चेहरे
मेह की बूँद से
धुले-चमके
हँसी, मुस्कानें कई
और फिर
हर बार की तरह
वही ज्वालामुखी का
फटना
रक्त रंजित खोलते
गाढ़े लाल लावे का
उफनना
बहना
आसमान को
ढकना
हरियाली
घर द्वार
साँकल-कुंडी
शहतीर, खंबे
छत, शामियाने
अंधेरे रोशनदान
टिमटिमाते दिए
सब पर
छा जाना
और फिर से
समय का
गुज़र जाना
-अजय (c)
फिर गुज़रा
वसुंधरा डोली
गिरे पेड़ अनेक
फिर उनके तले
नए पत्तों की टोली
मुरझाए
धूप से झुलसे चेहरे
मेह की बूँद से
धुले-चमके
हँसी, मुस्कानें कई
और फिर
हर बार की तरह
वही ज्वालामुखी का
फटना
रक्त रंजित खोलते
गाढ़े लाल लावे का
उफनना
बहना
आसमान को
ढकना
हरियाली
घर द्वार
साँकल-कुंडी
शहतीर, खंबे
छत, शामियाने
अंधेरे रोशनदान
टिमटिमाते दिए
सब पर
छा जाना
और फिर से
समय का
गुज़र जाना
-अजय (c)
(61)
बात होती है
पर चुपचाप होती है
शोर होता है
जब मुलाक़ात होती है
-अजय (c)
पर चुपचाप होती है
शोर होता है
जब मुलाक़ात होती है
-अजय (c)
(62)
मैं सुख में सुमिरन किया और दुख में साधा मौन
सुख सब मैंने भोग लिया फिर दुख भोगेगा कौन
- अजय
सुख सब मैंने भोग लिया फिर दुख भोगेगा कौन
- अजय
(63)
तुमसे क्या माँगू
क्या उधार लूँ
क्या चुकाने को कहूँ
जो तुम्हारे पास है
वो मेरे पास अब भी है
जितना तुमने माँगा
उससे कई गुना
जितना तुम्हें दिया,
जितना बिन माँगे
अपार उससे पाया
जो मैं चाहता हूँ
जिसके लिए इतना
चला, दौड़ा, तड़पा
ग्रह नक्षत्र नभ नापा
नृप से निरा नर बना
और नराधम हुआ
धरा तक आया
वो तेरे पास नहीं है
कभी था ही नहीं
न हुआ बस होना
तुम्हें लगता रहा
कि था कि है, होगा
मुझे लगता रहा
हम कि मैं
और तुम
और वो
हँसते रहे,
वो हँसाता रहा
वो हँसाता,
हम हँसते और
हमारे हँसने पर
फिर से वो हँसता
हमें हँसाने पर भी वो हँसता
और हमारी हँसी के होने पर भी
तुम्हें लगता कि
तुम्हें हँसता देख
हँसेंगे लोग कि कैसे
चुपके से रो लेते हो
मुझे लगता कि कैसे
तुम्हें हँसाने पर
हँसेंगे लोग कि कैसे
रुलाया होगा
वो हँसता कि कैसे
कितना भारी है हमें
लोगों के हँसने का ख़ौफ़
उसपर, उसकी हँसी
और हँसाने पर
सारी हँसियों पर
लोगों की पहरेदारी
वो हँसाता रहा
हर पल, हर दौर
हँसी देता रहा
हम हर पल जिए
रोने की ललक लेकर
हँसी के पल सारे
बंद दरवाज़ों के परे
हँसी से सिमटे सहमे
खिलखिलाहटों पर रोते
कंकरीट की
दीवारों के पार
देखने वाले काल्पनिक लोग
और उनकी छद्म हँसी से
ख़ुद को छलते
हर मोड़ गली
हर नुक्कड़ पर
हँसी के नाम पर
हँसी के ख़ौफ़ से
अकूत भरे भंडार
न कोई ताला
न कोई दीवार
तुमसे क्या माँगू
क्या उधार लूँ
क्या चुकाने को कहूँ
बस मेरी बेख़ौफ़ हँसी हँसो
और ख़ौफ़नाक हँसी के डर को
मुझे दो, चाहे उधार ही सही
कभी न लौटाने के लिए
- अजय (c)
क्या उधार लूँ
क्या चुकाने को कहूँ
जो तुम्हारे पास है
वो मेरे पास अब भी है
जितना तुमने माँगा
उससे कई गुना
जितना तुम्हें दिया,
जितना बिन माँगे
अपार उससे पाया
जो मैं चाहता हूँ
जिसके लिए इतना
चला, दौड़ा, तड़पा
ग्रह नक्षत्र नभ नापा
नृप से निरा नर बना
और नराधम हुआ
धरा तक आया
वो तेरे पास नहीं है
कभी था ही नहीं
न हुआ बस होना
तुम्हें लगता रहा
कि था कि है, होगा
मुझे लगता रहा
हम कि मैं
और तुम
और वो
हँसते रहे,
वो हँसाता रहा
वो हँसाता,
हम हँसते और
हमारे हँसने पर
फिर से वो हँसता
हमें हँसाने पर भी वो हँसता
और हमारी हँसी के होने पर भी
तुम्हें लगता कि
तुम्हें हँसता देख
हँसेंगे लोग कि कैसे
चुपके से रो लेते हो
मुझे लगता कि कैसे
तुम्हें हँसाने पर
हँसेंगे लोग कि कैसे
रुलाया होगा
वो हँसता कि कैसे
कितना भारी है हमें
लोगों के हँसने का ख़ौफ़
उसपर, उसकी हँसी
और हँसाने पर
सारी हँसियों पर
लोगों की पहरेदारी
वो हँसाता रहा
हर पल, हर दौर
हँसी देता रहा
हम हर पल जिए
रोने की ललक लेकर
हँसी के पल सारे
बंद दरवाज़ों के परे
हँसी से सिमटे सहमे
खिलखिलाहटों पर रोते
कंकरीट की
दीवारों के पार
देखने वाले काल्पनिक लोग
और उनकी छद्म हँसी से
ख़ुद को छलते
हर मोड़ गली
हर नुक्कड़ पर
हँसी के नाम पर
हँसी के ख़ौफ़ से
अकूत भरे भंडार
न कोई ताला
न कोई दीवार
तुमसे क्या माँगू
क्या उधार लूँ
क्या चुकाने को कहूँ
बस मेरी बेख़ौफ़ हँसी हँसो
और ख़ौफ़नाक हँसी के डर को
मुझे दो, चाहे उधार ही सही
कभी न लौटाने के लिए
- अजय (c)
(64)
तुमसे क्या माँगू
क्या उधार लूँ
क्या चुकाने को कहूँ
जो तुम्हारे पास है
वो मेरे पास अब भी है
जितना तुमने माँगा
उससे कई गुना
जितना तुम्हें दिया,
जितना बिन माँगे
अपार उससे पाया
जो मैं चाहता हूँ
जिसके लिए इतना
चला, दौड़ा, तड़पा
ग्रह नक्षत्र नभ नापा
नृप से निरा नर बना
और नराधम हुआ
धरा तक आया
वो तेरे पास नहीं है
कभी था ही नहीं
न हुआ बस होना
तुम्हें लगता रहा
कि था कि है, होगा
मुझे लगता रहा
हम कि मैं
और तुम
और वो
हँसते रहे,
वो हँसाता रहा
वो हँसाता,
हम हँसते और
हमारे हँसने पर
फिर से वो हँसता
हमें हँसाने पर भी वो हँसता
और हमारी हँसी के होने पर भी
तुम्हें लगता कि
तुम्हें हँसता देख
हँसेंगे लोग कि कैसे
चुपके से रो लेते हो
मुझे लगता कि कैसे
तुम्हें हँसाने पर
हँसेंगे लोग कि कैसे
रुलाया होगा
वो हँसता कि कैसे
कितना भारी है हमें
लोगों के हँसने का ख़ौफ़
उसपर, उसकी हँसी
और हँसाने पर
सारी हँसियों पर
लोगों की पहरेदारी
वो हँसाता रहा
हर पल, हर दौर
हँसी देता रहा
हम हर पल जिए
रोने की ललक लेकर
हँसी के पल सारे
बंद दरवाज़ों के परे
हँसी से सिमटे सहमे
खिलखिलाहटों पर रोते
कंकरीट की
दीवारों के पार
देखने वाले काल्पनिक लोग
और उनकी छद्म हँसी से
ख़ुद को छलते
हर मोड़ गली
हर नुक्कड़ पर
हँसी के नाम पर
हँसी के ख़ौफ़ से
अकूत भरे भंडार
न कोई ताला
न कोई दीवार
तुमसे क्या माँगू
क्या उधार लूँ
क्या चुकाने को कहूँ
बस मेरी बेख़ौफ़ हँसी हँसो
और ख़ौफ़नाक हँसी के डर को
मुझे दो, चाहे उधार ही सही
कभी न लौटाने के लिए
- अजय (c)
क्या उधार लूँ
क्या चुकाने को कहूँ
जो तुम्हारे पास है
वो मेरे पास अब भी है
जितना तुमने माँगा
उससे कई गुना
जितना तुम्हें दिया,
जितना बिन माँगे
अपार उससे पाया
जो मैं चाहता हूँ
जिसके लिए इतना
चला, दौड़ा, तड़पा
ग्रह नक्षत्र नभ नापा
नृप से निरा नर बना
और नराधम हुआ
धरा तक आया
वो तेरे पास नहीं है
कभी था ही नहीं
न हुआ बस होना
तुम्हें लगता रहा
कि था कि है, होगा
मुझे लगता रहा
हम कि मैं
और तुम
और वो
हँसते रहे,
वो हँसाता रहा
वो हँसाता,
हम हँसते और
हमारे हँसने पर
फिर से वो हँसता
हमें हँसाने पर भी वो हँसता
और हमारी हँसी के होने पर भी
तुम्हें लगता कि
तुम्हें हँसता देख
हँसेंगे लोग कि कैसे
चुपके से रो लेते हो
मुझे लगता कि कैसे
तुम्हें हँसाने पर
हँसेंगे लोग कि कैसे
रुलाया होगा
वो हँसता कि कैसे
कितना भारी है हमें
लोगों के हँसने का ख़ौफ़
उसपर, उसकी हँसी
और हँसाने पर
सारी हँसियों पर
लोगों की पहरेदारी
वो हँसाता रहा
हर पल, हर दौर
हँसी देता रहा
हम हर पल जिए
रोने की ललक लेकर
हँसी के पल सारे
बंद दरवाज़ों के परे
हँसी से सिमटे सहमे
खिलखिलाहटों पर रोते
कंकरीट की
दीवारों के पार
देखने वाले काल्पनिक लोग
और उनकी छद्म हँसी से
ख़ुद को छलते
हर मोड़ गली
हर नुक्कड़ पर
हँसी के नाम पर
हँसी के ख़ौफ़ से
अकूत भरे भंडार
न कोई ताला
न कोई दीवार
तुमसे क्या माँगू
क्या उधार लूँ
क्या चुकाने को कहूँ
बस मेरी बेख़ौफ़ हँसी हँसो
और ख़ौफ़नाक हँसी के डर को
मुझे दो, चाहे उधार ही सही
कभी न लौटाने के लिए
- अजय (c)
(65)
जो ये प्यार का रिश्ता
बस बिस्तर तलक होता
नई तहदार चादर सा
मैं हर दिन बदल लेता
अगर बस साँस लेना ही
सबूत ए ज़िंदगी होता
क्यों कोई कसक होती
सीना चाक दिल होता
- अजय (c)
बस बिस्तर तलक होता
नई तहदार चादर सा
मैं हर दिन बदल लेता
अगर बस साँस लेना ही
सबूत ए ज़िंदगी होता
क्यों कोई कसक होती
सीना चाक दिल होता
- अजय (c)
(66)
हँसी की चाह में
मैं अपनी दुनिया से
जिस नई दुनिया में
बहुत दूर चला आया हूँ
वहाँ सिर्फ वीराना है
और अब अपनी दुनिया
लौटना नामुमकिन है
-अजय (c)
मैं अपनी दुनिया से
जिस नई दुनिया में
बहुत दूर चला आया हूँ
वहाँ सिर्फ वीराना है
और अब अपनी दुनिया
लौटना नामुमकिन है
-अजय (c)
(67)
मेरा भी
एक बड़ा
हमदर्द था
अफसोस
बस इतना
कि जमीं
थी ही नहीं
और जो
समंदर था
वो ठिठुरा था
बड़ा ही सर्द था
-अजय मलिक (c)
एक बड़ा
हमदर्द था
अफसोस
बस इतना
कि जमीं
थी ही नहीं
और जो
समंदर था
वो ठिठुरा था
बड़ा ही सर्द था
-अजय मलिक (c)
(68)
यूँ ही हर दिन ज़िंदगी का गुज़र जाता है
रोज शाम होने पर जब घुप अंधेरा छाता है
कोई दर्द हँसकर कोई ज़ख़्म गुनगुनाता है
किसी के ख़्वाब में कोई और नज़र आता है
- अजय (c)
रोज शाम होने पर जब घुप अंधेरा छाता है
कोई दर्द हँसकर कोई ज़ख़्म गुनगुनाता है
किसी के ख़्वाब में कोई और नज़र आता है
- अजय (c)
(69)
हर किसी से
हर दिल नहीं मिलता
लोग तो रोज़ मिलते हैं
बस दिलबर नहीं मिलता
- अजय (c)
हर दिल नहीं मिलता
लोग तो रोज़ मिलते हैं
बस दिलबर नहीं मिलता
- अजय (c)
(70)
शायद तुम प्रेम करती हो
शायद मैं प्रेम करता हूँ
हाँ या नहीं जो भी है पर
तुम प्रेम को पहचानती हो
उसकी गहराई समझती हो
मैं सिर्फ तुम्हें जानता हूँ पर
समझना, पहचानना चाहता हूँ
ताकि एक दिन अपनी लघुता
और तुम्हारे अतुल्य प्रेम को
अन्तर्मन से महसूस कर सकूँ
और फिर तुम्हें तुम्हारे ही
नज़रिए से प्रेम कर सकूँ
-अजय (c)
शायद मैं प्रेम करता हूँ
हाँ या नहीं जो भी है पर
तुम प्रेम को पहचानती हो
उसकी गहराई समझती हो
मैं सिर्फ तुम्हें जानता हूँ पर
समझना, पहचानना चाहता हूँ
ताकि एक दिन अपनी लघुता
और तुम्हारे अतुल्य प्रेम को
अन्तर्मन से महसूस कर सकूँ
और फिर तुम्हें तुम्हारे ही
नज़रिए से प्रेम कर सकूँ
-अजय (c)
(71)
बेबस
मुसाफ़िर
रात-दिन
चलता रहा
सब मंज़िलें
अलसाई सी
मुस्कुराकर
पुकारती हुईं
अपनी जगह
ठहरी रहीं
-अजय (c)
मुसाफ़िर
रात-दिन
चलता रहा
सब मंज़िलें
अलसाई सी
मुस्कुराकर
पुकारती हुईं
अपनी जगह
ठहरी रहीं
-अजय (c)
(72)
दीवार पर
ठहरी हुई
तस्वीर सा
ज़िंदगी का
हर लम्हा
तन्हा खड़ा
अनकही
लंबी किसी
तहरीर सा
-अजय (c)
ठहरी हुई
तस्वीर सा
ज़िंदगी का
हर लम्हा
तन्हा खड़ा
अनकही
लंबी किसी
तहरीर सा
-अजय (c)
(73)
क्यूँ बार-बार
सूरज निकलता है
नई सुबह होती है
फिर दिन चढ़ता है
क्यूँ बार- बार
दोपहर ढलती है
नई शाम होती है
सागर की लहरों में
सूरज समाता है
हर सुबह लगता है
कि बहुत ख़ुश है
रोशनी में नहायी
सचमुच ज़िन्दा सी
तरोताज़ा ज़िंदादिल
जीने की उमंगों से
सराबोर सरस सजल
पर शाम ढलने पर
बासी ताजगी लिए
अंततः रात आती है
सोने की चाह लिए
ख़्वाब की मोहताज
बरसों से खुली पलकें
मुँदने से पहले फिर
उजाला जग जाता है
अंधेरे उजाले के
इस सतत खेल में
मैं अपने खोए हुए
पन को ढूँढ रहा हूँ
पर जितना ढूँढता हूँ
उससे कहीं ज़्यादा
तुममें और तुम्हारे
पन में खो जाता हूँ
किस तलाश में में
मैं मुर्दों सा जी रहा हूँ
किस तलाश में मैं
जिंदा मर रहा हूँ
कि मर जाना चाहता हूँ
तुम कौन हो क्या हो
नर, नारी कि नारायण
मैं कुछ नहीं जानता
मैं बस सोचता हूँ कि
तुम हो, मैं तुममय हूँ
आधी रात को अवश सा
हर रोज़ कि हर रात
सोने की चाहत से थका
मैं अपलक अंधेरे के पार
एक छाया देखने लगता हूँ
रोते रोते उसे सँवारता हूँ
सुबह का कर्कश उजाला
मेरी हरेक तस्वीर और
उसकी छाया को
संपूर्णता में खा जाता है
कैनवास लगाने में दिन
रोज़ निकल जाता है
लगता है कि हम है
बहुत कुछ हैं और
फिर कुछ नहीं भी हैं
शायद बिल्कुल नहीं हैं
-अजय (c)
सूरज निकलता है
नई सुबह होती है
फिर दिन चढ़ता है
क्यूँ बार- बार
दोपहर ढलती है
नई शाम होती है
सागर की लहरों में
सूरज समाता है
हर सुबह लगता है
कि बहुत ख़ुश है
रोशनी में नहायी
सचमुच ज़िन्दा सी
तरोताज़ा ज़िंदादिल
जीने की उमंगों से
सराबोर सरस सजल
पर शाम ढलने पर
बासी ताजगी लिए
अंततः रात आती है
सोने की चाह लिए
ख़्वाब की मोहताज
बरसों से खुली पलकें
मुँदने से पहले फिर
उजाला जग जाता है
अंधेरे उजाले के
इस सतत खेल में
मैं अपने खोए हुए
पन को ढूँढ रहा हूँ
पर जितना ढूँढता हूँ
उससे कहीं ज़्यादा
तुममें और तुम्हारे
पन में खो जाता हूँ
किस तलाश में में
मैं मुर्दों सा जी रहा हूँ
किस तलाश में मैं
जिंदा मर रहा हूँ
कि मर जाना चाहता हूँ
तुम कौन हो क्या हो
नर, नारी कि नारायण
मैं कुछ नहीं जानता
मैं बस सोचता हूँ कि
तुम हो, मैं तुममय हूँ
आधी रात को अवश सा
हर रोज़ कि हर रात
सोने की चाहत से थका
मैं अपलक अंधेरे के पार
एक छाया देखने लगता हूँ
रोते रोते उसे सँवारता हूँ
सुबह का कर्कश उजाला
मेरी हरेक तस्वीर और
उसकी छाया को
संपूर्णता में खा जाता है
कैनवास लगाने में दिन
रोज़ निकल जाता है
लगता है कि हम है
बहुत कुछ हैं और
फिर कुछ नहीं भी हैं
शायद बिल्कुल नहीं हैं
-अजय (c)
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