Feb 7, 2014

"पर्दे पर्दे में बहुत मुझ पे तेरे वार चले" - मुबारक अज़ीमाबादी

पर्दे पर्दे में बहुत मुझ पे तेरे वार चले
साफ़ अब हल्क़ पे ख़ंजर चले तलवार चले

दूरी-ए-मंज़िल-ए-मक़सद कोई हम से पूछे
बैठे सौ बार हम उस राह में सौ बार चले

कौन पामाल हुआ उस की बला देखती है
देखता अपनी ही जो शोख़ी-ए-रफ़्तार चले

बे-पिए चलता है यूँ झूम के वो मस्त शबाब
जिस तरह पी के कोई रिंद-ए-कद़ह-ख़्वार चले

चश्‍म ओ अब्रू की ये साज़िश जिगर ओ दिल को नवेद
एक का तीर चले एक की तलवार चले

कुछ इस अंदाज से सय्याद ने आज़ाद किया
जो चले छुट के कफ़स से वो गिरफ़्तार चले

जिस को रहना हो रहे क़ैदी-ए-ज़िंदाँ हो कर
हम तो ऐ हम-नफ़सो फाँद के दीवार चले

फिर ‘मुबारक’ वही घनघोर घटाएँ आई
जानिब-ए-मै-कदा फिर रिंद-ए-क़दह-ख़्वार चले
-मुबारक अज़ीमाबादी  

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