एक आलेख में अभी अभी एक मनोवैज्ञानिक उक्ति पढ़ी- "हम वही देखते हैं, जो देखना चाहते हैं"। यदि रावण या कंस कोई अच्छी बात कहें तो हम उस अच्छी बात को नहीं देखते बल्कि रावण और कंस को देखते हैं और अच्छी बात अनदेखी रह जाती है। मैंने रावण या कंस को नहीं देखा मगर एक तस्वीर है जो रावण और कंस की मेरे मन में बनाई जा चुकी है अत: बिना रावण और कंस को देखे, बिना रावण और कंस को आजमाए-परखे मेरे दिमाग में एक पूर्वाग्रह है जो स्वत: ही रावण एवं कंस को ऐसे व्यक्तित्व बना देता है जो अच्छी बात कह ही नहीं सकते और इसके बाद मैं या हम रावण और कंस की अच्छी या बुरी बात पर विचार करने की बजाय हमारे मस्तिष्क में विद्यमान रावण और कंस के सिर्फ कुरूप रूप को देखने तक सीमित हो जाते हैं। ऐसे अनेक लोग हैं जिनसे मैं कभी नहीं मिला, उनसे कभी बात तक नहीं हुई मगर उनकी कल्पना में मेरी एक तस्वीर है जो बड़े ही करीने से बनाई गई है। वह तस्वीर मेरे वास्तविक अच्छे या बुरे व्यक्तित्व की तुलना में हजारों गुना मज़बूत है। अगर मैं उनसे मिलता हूँ तब भी वे मुझे नहीं देखते बल्कि अपने दिमाग में पहले से मौजूद मेरी कृत्रिम मगर ठोस तस्वीर को देखते हैं।
यही स्थिति जातिवाद की है। इंसान और उसके गुण या अवगुण अपनी जगह हैं मगर उनकी पहले से बनाई जा चुकी और निरंतर बनाई जा रही छवियाँ अपनी जगह हैं। फिर भी छवियों की अमिट छाप इतनी प्रबल है कि हमारा स्वभाव छवियों तक सीमित होकर रह गया है। एक पुरानी देहाती कहावत है- सूत न बुनाई, कोली से लट्ठमलट्ठा। मैं अपने बारे में इस बारे में बेहद पूर्वाग्रह देखता हूँ। यह भी हो सकता है मेरे ही दिमाग में कोई ऐसा पूर्वाग्रह अथवा कृत्रिम छवि लोगों की बन गई हो कि लोग मेरे बारे में सिर्फ पूर्वाग्रह रखते हैं। अभी पिछले दिनों एक अपरिचित मित्र ने एक शपथपत्र नुमा दस्तावेज़ में कह दिया कि भारत की राजधानी बगदाद है। मैंने उन तक सूचना भिजवाई कि शायद किसी भूल वश उन्होंने शपथपत्रनुमा दस्तावेज़ में गलत सूचना दे दी है और वे दूसरा शपथ पत्र देकर पुराने को ले जाएँ। मगर जनाब उन्हें यह बात इतनी बुरी लगी कि मुझे संसार का सबसे गंदा, दुराचारी, घृणित, समस्याएँ पैदा करने वाला ...और न जाने क्या-क्या कह डाला। मैंने अंतत: उनका शपथपत्रनुमा दस्तावेज़ पंचायतनुमा जगह जमा करा दिया। अब देखना यह है कि पंचायतनुमा जगह क्या निर्णय होता है क्योंकि वहाँ भी महत्वपूर्ण तथ्य भारत की राजधानी का बगदाद की जगह नई दिल्ली होना नहीं है बल्कि पूर्वाग्रह ग्रस्त एक रावण या कंस की मानिद बनाई गई मेरी बेहद मजबूत और करीने से तराशी गई कृत्रिम तस्वीर है जिसे पचासों लोगों द्वारा बड़ी मशक्कत से रोज सुपर रिन की सफेदी की चमकार से भी अधिक चमकीला बनाने की कोशिश की जाती है। मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा आदमी नहीं हूँ और न ही डॉक्टर-वाक्टर जैसा कुछ हूँ -फिर भी कारलाइल का एक कथन मेरे दिमाग में हमेशा घूमता रहता है- "आँख उसी को देखती है,जिसमें यह क्षमता हो कि वह आँख को दिखा दे"।
-अजय मलिक
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