हाँ, मैं अछूत हूँ
सबसे अलग हूँ
मेरे पिता के
पिताओं के पिता
भी वही थे
न जाने मनीषी थे
कि मनु थे
किसी ने कहा
वे भी थे, शायद
माँ धरती थी
वे अंबर थे
महाप्रलय पर
बस वे ही बचे थे
और सदियों बाद
अब फिर से
अकेला मैं बचा हूँ
मीलों मील
मेरे आसपास
पेड़-पौधे-जानवर
जीव-जन्तु-कीट
मीन-मृग-मारीचिका
सब साथ हैं, बस
सात समंदर पार तक
आदमी कोई नहीं है
मैं अकेला
बचा हूँ
और मैं अछूत हूँ
मैं छूता हूँ तो
पत्थर जाग जाते हैं
मैं छूता हूँ तो
पौधे फाग गाते हैं
मैं छूता हूँ तो
बिजली कौंध जाती है
मैं छूता हूँ तो
भँवरे राग गाते हैं
मैं छूता हूँ तो
मन में प्यास जगती है
मैं छूता हूँ तो
जग में आस जगती है
पर सभी को हर समय
बेवजह मैं नहीं छूता
कभी नहीं छुआ
और वे मेरे अपने
कुंदन होना चाहकर भी
नहीं छू पाए मुझे
मुझे छूने से
वे सदा डरते रहे
मुझसे और मेरी
छाया से भगते रहे
भूख से तड़पे और
प्यास से मरते रहे
हाँ मैं अछूत हूँ
मैं प्रकृति का चितेरा
मेरे पास सभी कुछ खास
अनमोल मोतियों से
लबालब उफनती
कलकलाती
चाँदी से चमकते
नित धूप से बरसों तपे
निर्मला जल से भरी
नदियाँ
मुक्त साँसों से
महकती धूप
सिर से पाँव तक के
पसीने से सिंचित
आँगन का पोर-पोर
फला, फूलों से भरा
बादलों का सुर
बूंदों की ताल
हवा का गीत
मोर की पुकार
स्वर्ग सा साकार
मेरे आसपास स्वयं
ब्रह्म का सा वास
हँसती हुई धरा
सभी कुछ खास
पर मैं अछूत हूँ
और इस धरा पर
अब अकेला हूँ
ब्रह्मांड है तो
ब्रहम हैं कि नहीं हैं
न जानता हूँ -
मानता हूँ ।
यह सब सोचता हूँ तो
फिर कौन हूँ मैं ?
अकेला होकर मैं अछूत हूँ ?
अकेला ब्रह्मांड को कैसे चलाऊँ
कहाँ से कैसे यह दुनिया बसाऊँ
किस जगत से, किस जतन से
फिर कुछ आदमी वापस बुलाऊँ
पर मैं अछूत अकेला
यह सोचता हूँ तो
फिर मैं कौन हूँ ?
अकेला होकर मैं अछूत हूँ ?
किसलिए बस मैं बचा हूँ
मोह से, मन से,
किस सोच से
बस मैं बचा हूँ ?
मैं अछूत
अकेला सृष्टि का उकेरा
कल जो जन्मेंगे, अजन्मे
वो मेरे सब अपने अछूते
सब अनौखे सब अकेले
सब अनछुए, अनछुई सी
इक छुअन को तरसते
कौन किसका
और उनका
साथ देगा,
छांव देगा
ठौर देगा
जब कोई नहीं तो
कौन होगा !
मैं अछूत अकेला
-यह सोचता हूँ -
निपट अकेला हूँ और
मैं अछूत हूँ ?
हाँ मैं अछूत हूँ
अकेला
सबसे अलग
-अजय मलिक (c)
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