Sep 3, 2009

मेरे गुरु...5 : फिल्मों के ब्रह्मांड-कोश

श्री पी0 के0 नायर
-अजय मलिक
'या जुल -जुलाल, आई बला को टाल " -बस इतना भर बोलने की ही भूमिका मिली थी मुझे। सातवीं या आठवीं में पढ़ता था...महाराणा प्रताप का कोई नाटक था। फिर अभिनेता बनने की सनक चढ़ी। एक पंचसितारा होटल में किसी फिल्म की कास्टिंग का विज्ञापन छपा था। मैं भी पहुँच गया -इंटरव्यू या ऑडिशन के लिए। कुल चार-पांच लोग इंतज़ार करते मिले। मेरा नंबर आया। अन्दर जाकर देखा- तीन लोग थे चयनकर्ता ।
उन्होंने पूछा '-ज़रा अभिनय करके दिखाओ।'
मैंने दिखा दिया और ऐसा अभिनय किया कि चयनकर्ताओं से मुस्कान रोके न रुकी। वो हाथ-पैर मटकाए कि क्या कहने। अच्छा हुआ कि उन्होंने धक्के देकर नहीं निकाला। एक्टर बनने का भूत फिर भी नहीं उतरा।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से फॉर्म मँगा लिया। फॉर्म भरकर स्वयं जमा करने गया...वहां की साज-सज्जा में खो गया। किशोरावस्था का अपना अलग ही नशा होता है।
दशकों बाद फिर एक दिन फिल्म एवं दूरदर्शन संस्थान, पुणे से दाखिले का पत्र मिला। फिल्म रसास्वादन कोर्स के लिए जब वहां गया तो मानों जन्नत पा ली। वह बोधि-वृक्ष देखा जिसके नीचे ऋत्विक घटक कक्षाएं चलाया करते थे. जाने कितने विद्यार्थी उसकी छाया में सोते रहते...इस आशा में कि शायद ऋत्विक घटक की आत्मा का आर्शीवाद उन्हें भी मिल जाए और वे भी उन जैसे महान फिल्मकार बन जाएं।
पाँच-छः सप्ताह में सौ-सवा सौ से ज्यादा लघु-वृत्त-कथा फिल्में देखीं गईं। सुबह नौ बजे से शाम साढ़े पाँच तक व्याख्यान होते और उसके बाद रात ग्यारह- बारह बजे तक फिल्म संग्रहालय के थियेटर में फिल्मों का प्रदर्शन होता,चर्चाएँ चलतीं। कोई छुट्टी नहीं होती थी ...शनिवार-रविवार को भी नहीं। अनेक फिल्मकारों के भी व्याखान हुए। महान फिल्मकार मृणाल सेन जी से प्रमाण-पत्र मिला।
इस दौरान हमें सबसे ज्यादा चिंता रहती थी श्री पी0 के0 नायर जी के व्याख्यान की। उनके व्याख्यान का अधिकाँश भाग मेरे सिर के ऊपर से निकल जाता। आप सोचेंगे उनके व्याख्यान में कोई कमी होगी !! मगर बात बिलकुल उलटी थी। हम ही आधे-अधूरे-चौथाई जैसे कुछ थे और श्री पी0 के0 नायर का मतलब फिल्मों के चलते-फिरते ब्रह्मांड-कोश (विश्वकोश बहुत छोटा शब्द होगा) ...आप सिर्फ नाम लीजिए संसार की किसी भी देश-भाषा-प्रांत की फिल्म का -नायर साहब आपको उसके निर्देशक-कलाकारों-प्रदर्शन के वर्ष- कथावस्तु आदि के बारे में सब कुछ बता देंगे।
उनका व्याख्यान हमारे स्तर से बहुत सी ऊँचा होता था। वे भारतीय फिल्म संग्रहालय के निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए थे। उन्होंने कैसे और किन परिस्थितियों में फिल्म संग्रहालय को संमृद्ध बनाया ये उनके अलावा कोई न बता सकता है... न समझ सकता है। वहां हर व्यक्ति उनका आदर करता था और वे हर व्यक्ति में एक महान फिल्मकार देखते थे।
फिल्म संस्थान से निकलने के बाद फिल्म समारोहों में जब भी नायर साहब से मुलाक़ात हुई उनका पहला सवाल होता "- तुम्हारी भी कोई फिल्म इसमें आई है क्या ?"
गोवा में पहली बार हुए भारत के अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव तक मैं समारोहों में जाता रहा और उनका सवाल सुनकर ख्यालों में खोता रहा "क्या मैं भी कभी फिल्मकार बन पाऊँगा ?"
यह सपना हर बार देखा और आँखें खुलने पर यथार्थ के कठोर धरातल ने हमेशा गहरे घाव दिए। परन्तु नायर साहब द्वारा दिखाया जाने वाला यह सपना आज भी आकर्षित करता है। शायद...

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