Nov 13, 2021

राजभाषाओं के नियम और उनका विस्तार: एक व्यक्तिगत विवेचना -अजय मलिक “निंदित”

राजभाषा नियम 1976 वस्तुत: राजभाषाओं के नियम हैं, जो राजभाषा (राजभाषाओं का) अधिनियम 1963 की धारा-8 के तहत प्राप्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए सरकार ने 17 जुलाई 1976 को पारित किए। इन नियमों में दिनांक:24-10-1987, 03-08-2007 तथा 04-05-2011 को संशोधन भी किए जा चुके हैं। वर्ष 1987 का संशोधन मूलत: अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह को “ख” क्षेत्र से “क” क्षेत्र में लाने के लिए किया गया, जबकि 2007 का संशोधन नए राज्यों उत्तराखंड, झारखंड व छत्तीसगढ़ के गठन के कारण किया गया। वर्ष 2011 के संशोधन के जरिए दमन, दीव, दादरा नगर हवेली को “ग” से “ख” क्षेत्र में लाया गया। जम्मू, कश्मीर तथा लद्दाख संघ शासित प्रदेशों के गठन के कारण न सिर्फ राजभाषा नियमों में पुन: संशोधन अपेक्षित है, बल्कि राजभाषा अधिनियम में भी संशोधन आवश्यक है।
राजभाषा नियम, राजभाषा अधिनियम की धारा 3(4) के अंतर्गत आते हैं। अत: जहां अधिनियम लागू है, वहाँ राजभाषा नियम भी लागू हैं। यह कहना सही नहीं है कि राजभाषा नियम तमिलनाडु पर लागू नहीं हैं। जुलाई 1976 में तमिलनाडु में राष्ट्रपति शासन होने के कारण इन नियमों का विस्तार तमिलनाडु को छोड़कर शेष सम्पूर्ण भारत पर रखा गया। वैधानिक रूप से भी तमिलनाडु पर राजभाषा नियमों के लागू न होने का कथन सही नहीं है, क्योंकि राजभाषा अधिनियम की धारा-8 के तहत सरकार को नियम बनाने की शक्तियाँ राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों को क्रियान्वित करने के लिए प्राप्त हैं। सरकार को ऐसे किसी राज्य जिस पर अधिनियम लागू है, अधिनियम के प्रावधानों को क्रियान्वित न किए जाने के लिए नियम बनाने अथवा नियमों में प्रावधान करने की शक्तियाँ धारा-8 के तहत नहीं मिली हैं। राजभाषा नियम वैधानिक रूप से आपातकाल के बाद तमिलनाडु से राष्ट्रपति शासन समाप्त हो जाने के बाद स्वत: तमिलनाडु पर भी विस्तारित हो जाते हैं। मेरा यह मानना है कि नियमों के तमिलनाडु राज्य पर विस्तार न होने के स्थान पर इसे तमिलनाडु राज्य सरकार पर न होना माना जाना चाहिए।
यदि राजभाषा नियमों को तमिलनाडु पर लागू न होने की अवधारणा को सही मान लिया जाए तो तमिलनाडु राज्य को क, ख, ग क्षेत्रों से अलग रखने का प्रावधान करना होगा तथा तमिलनाडु राज्य में कार्यरत केंद्रीय कार्यालयों तथा उनके कार्मिकों के लिए “सरकारी कार्यालय”, “सरकारी कर्मचारी” और “हिंदी के कार्यसाधक ज्ञान” आदि की परिभाषाओं को अलग से परिभाषित करना होगा। ऐसा मानने से राजभाषा संकल्प-1968 तथा इसमें निहित निदेशों के तहत जारी वार्षिक कार्यक्रम के लक्ष्य भी तमिलनाडु राज्य के लिए निष्प्रभावी हो जाएंगे।

इसी के साथ जुलाई 1976 के बाद तमिलनाडु में कार्यरत कार्मिकों को हिंदी प्रशिक्षण के बाद दिए गए वित्तीय प्रोत्साहन और नकद पुरस्कार लेखा परीक्षा आपत्ति के घेरे में आ जाएंगे तथा विकट संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा हो जाएगी। उल्लेखनीय है कि माननीय उच्चतम न्यायालय के “भारत सरकार बनाम मुरासोली मारन” मामले में 06 दिसंबर 1976 को दिए गए विस्तृत आदेशों के अनुपालन में तमिलनाडु में कार्यरत केंद्रीय कार्मिकों के लिए भी राष्ट्रपति के आदेश-1960 के अनुरूप हिंदी भाषा का प्रशिक्षण दिया जाना अनिवार्य है। हिंदी भाषा का प्रशिक्षण उन केंद्रीय कार्मिकों के लिए अनिवार्य है, जिन्हें हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त नहीं है और कार्यसाधक ज्ञान की परिभाषा जुलाई 1976 के बाद के मामलों के लिए राजभाषा नियमों (नियम-10) से इतर कहीं उपलब्ध नहीं है।
सरकार या संसद द्वारा पारित किसी भी विषय से संबंधित नियम (नियमों) में नियम-1 एवं 2 में नाम, क्षेत्राधिकार और परिभाषाएँ होती हैं। नियम-3 से वास्तविक दिशानिर्देश प्रारम्भ होते हैं। राजभाषा नियमों के मामले में नियम-3 अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि नियम-3(1)(2) में “क” व “ख” क्षेत्रों से प्राप्त अँग्रेजी पत्रों के हिंदी में उत्तर दिए जाने का प्रावधान है तथा नियम-3(3) “ग” क्षेत्र में स्थित राज्यों (तमिलनाडु सहित), संघ शासित प्रदेशों की राज्य सरकारों, उनके कार्यालयों और व्यक्तियों अर्थात संबंधित राज्य के निवासियों के साथ केंद्रीय सरकार के कार्यालयों से केवल अँग्रेजी में पत्राचार की बाध्यता/ अनिवार्यता के प्रावधान के लिए है। नियम-3(3) यह भी स्पष्ट करता है कि “ग” क्षेत्र में स्थित किसी भी राज्य पर हिंदी थोपने का आरोप मिथ्या और कोरी कल्पना भर है। यह एक राजनैतिक उद्देश्य के लिए फैलाया जाने वाला भ्रम मात्र है।
राजभाषा नियम-4 विभिन्न क्षेत्रों में स्थित केंद्रीय सरकार के कार्यालयों के बीच आपस में हिंदी में कितना और कैसे पत्राचार होगा, इससे संबंधित है। वार्षिक कार्यक्रम की पहली मद इसी पर आधारित होती है।
नियम-5 के तहत यह प्रावधान किया गया है कि कहीं से भी और किसी से भी, देश से या विदेश से यदि किसी केंद्रीय कार्यालय को हिंदी में पत्र प्राप्त होता है तो उसका उत्तर हिंदी में ही दिया जाना अनिवार्य है। नियम-6 वस्तुत: राजभाषा अधिनियम की धारा-3(3) की इस रूप में पुनरावृत्ति है कि इसके अंतर्गत आने वाले 14 प्रकार के दस्तावेजों के अनिवार्य रूप से एक साथ द्विभाषी में जारी किए जाने के लिए इन पर हस्ताक्षर करने वाला अधिकारी ही स्वयं जिम्मेदार होगा।
राजभाषा नियम-7 के संबंध में विस्तृत व्याख्या के साथ “मिथिलेश कुमार सिंह बनाम भारत सरकार एवं अन्य” मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय का 01 मई, 2013 का आदेश भी आ चुका है, जो राजभाषा नियमों की प्रशासन के लिए अनिवार्यता के संबंध में है। इस नियम के तहत किसी भी कर्मचारी द्वारा प्रस्तुत कोई अपील, अभ्यावेदन या आवेदन पत्र यदि हिंदी में या हिंदी में हस्ताक्षरित है तो उस पर प्रशासन अर्थात संबंधित कार्यालय द्वारा सम्पूर्ण कार्रवाई/ कार्यवाही हिंदी में की जाएगी। उल्लेखनीय है कि हिंदी में हस्ताक्षरित होने की स्थिति में हिंदी में कार्रवाई का यह प्रावधान संबंधित कार्यालय में डायरी होने वाले अर्थात आवक के रूप में दर्ज किए जाने वाले उपर्युक्त मात्र 3 प्रकार के दस्तावेजों के लिए है। किसी कार्यालय से अँग्रेजी पत्रों आदि पर हिंदी में हस्ताक्षर के बाद उसे हिंदी पत्राचार मानने का कोई प्रावधान नियम-7 या अन्य किसी नियम में नहीं है।
नियम-7 (3) के प्रावधानों की माननीय उच्चतम न्यायालय की व्याख्या के अनुसार अनुशासनिक मामलों में कोई भी केंद्रीय कार्मिक हिंदी या अँग्रेजी में दस्तावेजों की मांग का अधिकार रखता है तथा प्रशासन द्वारा संबंधित कार्मिक को ये दस्तावेज़ों अविलंब अपेक्षित भाषा में उपलब्ध कराए जाने की बाध्यता है। मांग करने वाले कार्मिक को संबंधित भाषा आती है या नहीं, इसका निर्णय लेने का अधिकार प्रशासन को नहीं है।
नियम-8 लक्ष्यानुरूप हिंदी में टिप्पण अर्थात नोटिंग से संबंधित है। नियम 8(4) के तहत अधिसूचित कार्यालयों के हिंदी में प्रवीणता प्राप्त कार्मिकों को कार्यालय का शत-प्रतिशत कार्य हिंदी में करने के लिए विधिवत आदेश दिए जाने का प्रावधान है।
नियम-9 में हिंदी में प्रवीणता को परिभाषित किया गया है। नियम-10 हिंदी के कार्यसाधक ज्ञान को परिभाषित करने तथा कार्यालयों को राजपत्र में अधिसूचित कराने से संबंधित है। नियम-9 तथा 10 में यह भी प्रावधान है कि यदि कोई कार्मिक “ निर्धारित प्रपत्र में” हिंदी में प्रवीणता अथवा कार्यसाधक ज्ञान होने की घोषणा प्रामाणिक आधार के उल्लेख के साथ करता है तो प्रशासन को उसे स्वीकारना होगा। लेकिन यह स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि किसी निरक्षर अथवा बिना आधार के ऐसी घोषणा करने का अधिकार अथवा बिना आधार की ऐसी घोषणा के बाद प्रशिक्षण आदि में छूट पाने/देने का प्रावधान नहीं है।
नियम-11 के तहत कोड, संहिताएँ, नामपट्ट, बोर्ड, सभी प्रकार की लेखन सामग्री आदि के द्विभाषी/त्रिभाषी में होने की अनिवार्यता तथा भाषाओं के क्रम के संबंध में व्यवस्था दी गई है। इस संबंध में राष्ट्रपति जी के जनवरी 1992 के आदेशों की मद संख्या-13 में विस्तृत प्रावधान किए गए हैं।
अंतिम नियम-12 है, जिसमें राजभाषा संबंधी प्रावधानों के अक्षरश: अनुपालन करने/कराने की ज़िम्मेदारी संबंधित कार्यालय के प्रशासनिक प्रधान की सुनिश्चित की गई है तथा सरकार को समय-समय पर इसके लिए आवश्यक आदेश पारित करने का अधिकार दिया गया है।
राजभाषा नियमों का गंभीरता से अवलोकन करने पर निष्कर्ष मात्र यह निकलता है कि राजभाषा नियमों में किसी भी तरह की अस्पष्टता अथवा कमी नहीं है, किन्तु सरकारी कार्मिकों की अनाधिकार अपनी अलग व्याख्या करने की प्रवृत्ति के कारण भ्रम की स्थिति जानबूझकर पैदा की जाती है। प्रशासनिक प्रधान को यह स्पष्ट होना चाहिए कि उन्हें राजभाषा अधिनियम अथवा राजभाषा नियमों के प्रावधानों की व्याख्या का अधिकार नहीं है बल्कि उनकी ज़िम्मेदारी इनमें किए गए प्रावधानों के कार्यान्वयन की है, क्योंकि उन्हें सरकार द्वारा राष्ट्रपति की ओर से राष्ट्रपति/ और सरकार के आदेशों/नीतियों के कार्यान्वयन के लिए वेतन पर नियुक्त किया गया है तथा सरकार की नीतियों, नियमों, सेवा शर्तों को स्वयं सहर्ष स्वीकारने के बाद ही उन्होने नौकरी/सेवा स्वीकार की है।

यदि राजभाषा संबंधी संवैधानिक प्रावधानों को सरकारी कार्मिक अन्य नीतियों यथा आयकर अथवा आरक्षण आदि की नीतियों की तरह गंभीरता के साथ समझ कर, अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करें, तो हिंदी के प्रयोग के प्रेरणा और प्रोत्साहन से जुड़े होने कारण भारत भर के केंद्रीय कार्यालयों से अँग्रेजी का वर्चस्व तत्काल समाप्त हो सकता है।
प्रेरणा, प्रोत्साहन हिंदी राजभाषा में कार्य करने, निरंतर इसके प्रयोग को बढ़ाने तथा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए है। इन्हें हिंदी के प्रयोग से बचने के लिए ढाल की तरह प्रयोग करने की प्रवृत्ति पर तत्काल विराम लगाया जाना चाहिए।

 

11 comments:

  1. कई प्रासंगिक मुद्दों का सटीक विश्लेषण किया है आपने, हार्दिक बधाइयाँ ।

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  2. अच्छा व्याख्यात्मक लेख।

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  3. राजभाषा नियमों,अधिनियमों,आयोगों,समितियों में ज्यादा है और कामकाज में बहुत कम,जब तक इस अंतर को मिटाने की कवायद नहीं होगी,उच्च स्तर पर कार्य नहीं होंगे तब तक असमंजस की स्थिति बनी ही रहेगी।

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  4. उपयोगी सामग्री उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद सर।

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  5. उपयोगी सामग्री उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद सर।

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  6. सारगर्भित सहज सुगम और ग्राह्य आलेख के लिए शुक्रिया सर।

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  7. अत्यंत सारगर्भित एवं महत्वपूर्ण जानकारी के लिए बहुत बहुत बहुत धन्यवाद सर

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  8. इतनी महत्वपूर्ण जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद सर

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