बरसों पहले
जाने कब ये
चुपके से आया?
जाने कैसे ये
बंद पलकों से घुसा
और पुतलियों में
छुपकर बस गया !
दिखता है, मगर
पकड़ नहीं आता ।
आँसू बह बह कर
हलकान हो चुके हैं,
पलकों के सब पेंच
बेजान हो चुके हैं ।
आँखें, न खुलती हैं
न बंद हो पाती हैं!
कैसे आँखों से
निकालूँ इसको ?
जीने की तमन्ना
और जद्दोजहद
अभी बाकी है ।
-अजय मलिक
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