Jan 25, 2015

एक बड़ी और परिपक्व फिल्म है "बेबी" :: फिल्म समीक्षकों की समीक्षा की समीक्षा

रोज ही हम बेहद सनसनीखेज, गजब की मिर्च-मसालेदार, सच्चाई के नाम पर सच्चाई की कब्र खोदकर झूठ का परचम लहराती खबरें अधिकांशत: मज़बूरी में देखते हैं। सुबह से शाम तक सैकड़ों चैनल्स पर एक ही दृश्य की कतरन की अविराम बमबारी करती खबरें कब जिज्ञासा शांत करने की बजाय तनाव का कारण बन जाती हैं और बिना बात रातों की नींद हराम कर देती हैं पता तक नहीं चलता। पिछले डेढ़-दो महीने से अपना घर बिना चैनल वाले टीवी का बना हुआ है और यकीन मानिए काफी हद तक मानसिक शांति है। समाचार अभी इंटरनेट और अख़बार के जरिए पढ़े जा रहे हैं। मन चाहता है कि इन सब को भी कुछ दिन के लिए बंद किया जाना चाहिए। एक साधारण नागरिक को इतनी सारी खबरों की क्या आवश्यकता है? आज ओबामा दिल्ली में उतरेंगे, इससे चेन्नै अथवा कोलकाता के सामान्य व्यक्ति पर क्या फर्क पड़ने वाला है ? दिल्ली में ट्रैफिक बंदोबस्त के कारण दिल्ली के निवासियों को अपने रास्ते बदलने पड़ेंगे इसलिए उन्हें फर्क पड़ सकता है। इन सब खबरों का आँखों देखा हाल सुनने से एक आम आदमी को क्या हासिल होगा? याद कीजिए मुंबई में हुए आतंकी हमले के समय सबसे ज्यादा हानि इन्हीं टीवी चैनल्स की आँखों देखी खबरों के जीवंत प्रसारण से हुई थी। मेरा मानना है कि देश हित में किसी भी चटखारे भरी खबर के जीवंत प्रसारण पर कम से कम तीन-चार घंटे तक न दिखाए जाने की पाबंदी लगाई जाए। सरकार स्वयं वीडियो फुटेज बनाकर जारी करे।
आप सोच रहे होंगे कि सुबह-सुबह इस सदाबहार गंजे को हो क्या गया है? वास्तव में बात एक समाचार पत्र में फिल्म "बेबी" की बेतुकी समीक्षा से उपजी खीज से जुड़ी है। मेरी राय में हर फिल्म समीक्षक की समीक्षा की समीक्षा जरूर होनी चाहिए। 
मैं फिल्म पत्रकारिता सा जुड़ा रहा हूँ और ये अच्छी तरह जानता हूँ कि मैंने अधिकांश समीक्षाएं ऐसे समय लिखीं थी जब मुझे फिल्मों की कोई समझ नहीं थी। जब फिल्मों को समझने की कोशिश हुई तो सबसे ज्यादा गुस्सा अपने आप पर आया। अपनी नासमझी पर हँसना और भी त्रासद भरा साबित हुआ। मुझे याद है जब मैंने जाने-माने फ़िल्मकार गुलजार साहब का साक्षात्कार किया था तो मेरे सारे प्रश्न बेहद बचकाने किस्म के थे। आज 22 साल बाद मुझे यह अहसास होता है कि उस समय, यह सोचने की बजाय कि मैं एक महान फ़िल्मकार से मिलने का सौभाग्य पा रहा हूँ और मुझे उनसे कुछ सीखने की जरूरत है, मैंने अपने प्रकृति प्रदत्त गंजेपन की ठसक में एक फिल्म पत्रकार (?) होने के दंभ में सिर्फ बेतुके प्रश्न किए थे। यह और बात है कि वह साक्षात्कार जनसत्ता के चारों संस्करणों में छपा था और काफी सराहा गया था।
फिल्म एवं टीवी संस्थान, पुणे में संयोग से मुझे भी फिल्म रसास्वादन पाठ्यक्रम करने का सौभाग्य मिला। सेल्यूलाइड मैन श्री पीके नायर, जिन्हें फिल्मों के चलते-फिरते विश्वकोश की संज्ञा दी जाती है, उपर्युक्त पाठ्यक्रम के दौरान हमारे गुरुजनों में शामिल थे। पाठ्यक्रम पूरा होने के बाद जो एक बात सबसे अच्छी तरह समझ में आई वह सिर्फ इतनी थी कि फिल्मों के बारे में मेरा ज्ञान न सिर्फ अधूरा था बल्कि उसे अधूरेपन की पराकाष्ठा कहा जा सकता था। तब से लगातार फिल्मों के बारे में सीखने का दौर जारी है। फिल्म देखने के बाद फिल्म के बारे में कुछ भी कहने से पहले बहुत झिझक होती है क्योंकि फिल्म निर्माता ने फिल्म क्यों और क्या सोचकर बनाई है यह समझना बेहद कठिन काम है। कोई भी महान फिल्मकार अपनी फिल्म का पहला और सबसे बड़ा समीक्षक होता है। उसे फिल्म को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए कितने समझौते करने पड़ते हैं? दर्शकों से पहले फिल्म समीक्षक उसकी फिल्म की छीछालेदार करते हैं और अपनी पराबौद्धिकता की छाप ऐसी छोड़ते हैं कि फ़िल्मकार उनकी धूल मिट्टी की गर्त में खो जाता है। इन समीक्षकों की समीक्षा की सुव्यवस्थित समीक्षा का भी कुछ प्रबंध होना चाहिए।

आज की यह बात अक्षय कुमार अभिनीत निर्देशक नीरज पांडे की ताज़ा प्रदर्शित फिल्म “बेबी” की समीक्षा पढ़कर हुई खीज से शुरू हुई। समीक्षक के अनुसार अगर मुंबई में किसी सुनसान सड़क पर भी दिन-दहाड़े गोली-बारी होती है तो कम से कम एक कुत्ता, कोई गाय या बैल, कोई साइकिल चालक, कोई कार या पैदल चलने वाला और नहीं तो कम से कम एक कबूतर तो जरूर मरना ही चाहिए, मगर फिल्म में ऐसा नहीं होता है।

फिल्म समीक्षक को इस बात पर भी एतराज़ है कि अक्षय कुमार की पत्नी और परिवार को भी इसकी जानकारी क्यों नहीं है कि वह एक खुफिया इकाई का सदस्य है? मतलब यह कि खुफिया एजेंट को ढ़ोल पीट-पीटकर सीआईडी सीरियल के पात्रों की तरह सबको बताना चाहिए कि वह अंडरकवर अजेंट है! फिल्म समीक्षक को इस बात पर भी घोर आपत्ति है कि एक सिपाही अपनी ड्यूटी पूरी करने के लिए कुछ भी कैसे कर सकता है? मेरी राय में फिल्म समीक्षक को “आदेश के पालन” के अभिप्राय का अहसास कराने के लिए कुछ दिन सेना में प्रशिक्षण के लिए भेजा जाना चाहिए। तब ही उसे समझ आएगा कि सिपाही का काम आदेशों का पालन करना है, उनकी समीक्षा करना नहीं।

यद्यपि फिल्म समीक्षक ने चार बड़े कॉलम में समीक्षा लिखी है किन्तु सिर्फ 50 प्रतिशत अंक दिए हैं, एक जगह तो फिल्म को बोर तक कह दिया है। यदि यह एक औसत फिल्म है तो अख़बार में इतनी जगह नष्ट करने की क्या औचित्य है ? क्या समीक्षक को फ़िल्मकार के नजरिए के विरुद्ध ही फिल्म देखनी चाहिए? फिल्म में खुफिया इकाई का प्रमुख फिरोज अली खान है, दक्षिणी अलबेरा में खुफिया इकाई की मदद करने वाला अशफाक़ है मगर समीक्षक के अनुसार सभी आतंकवादियों को एक विशेष समुदाय से संबन्धित नहीं दिखाया जाना चाहिए... शायद समीक्षक जी के अनुसार ऐसा करना फिल्म विधा के खिलाफ है!

मैंने भी यह फिल्म देखी है। बेहद कसी-बंधी फिल्म है। सरकारी कामकाज की एक बानगी मंत्री जी के निजी सचिव का किरदार है। जिसके पास सबके लिए एक ही उत्तर है- आज तो मंत्री जी बेहद व्यस्त हैं, डायरी में लिख लिया है जल्दी ही मिलने का समय दिलवाता हूँ। एक दर्शक के मनोरंजन के लिए क्या इतना काफी नहीं है कि 160 मिनट तक फिल्म आपको बेबी के सिवाय कुछ और सोचने का बिलकुल भी मौका नहीं देती। बेहद रोमांचकारी फिल्म “बेबी” दर्शकों को शुरू से आखिर तक बांधे रखती है।

अक्षय कुमार ने अजय सिंह राजपूत नाम के एक अंडरकवर एजंट की भूमिका निभाई है। फिरोज अली खान (डैनी डेंग्जोप्पा), ओम प्रकाश शुक्ला (अनुपम खेर), महिला एजंट प्रिया (तापसी पन्नू) , जय सिंह राठौड़ (राना दग्गूबाती), अजय अपनी पत्नी (मधुरिमा तुली), बिलाल (केके मेनन), आटकवादी/ अलगाववादी सरगना (राशिद राज)... सभी कलाकारों का अभिनय लाजवाब है...
ये फिल्म जरूर देखें और सिनेमा हाल में जाकर देखें ....


अजय मलिक (c)

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