Jun 25, 2011

जाने क्यों अच्छे लगते हैं घनानंद के ये छंद

परकाजहि देह को धारि फिरौ, परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि-नीर सुधा के समान करौ, सबही बिधि सज्जनता सरसौ।
घनआनँद जीवन दायक हौ, कछू मेरियौ पीर हियें परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन, मो अँसुवानहिं लै बरसौ॥

’घनाआनँद’ जीवन मूल सुजान की, कौंधनि हू न कहूँ दरसैं ।
सु न जानिये धौं कित छाय रहे, दृग चातक प्रान तपै तरसैं ॥
बिन पावस तो इन्हें थ्यावस हो न, सु क्यों करि ये अब सो परसैं।
बदरा बरसै रितु में घिरि कै, नितहीं अँखियाँ उघरी बरसैं ॥

अति सूधो सनेह को मारग है, जेहुं नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ इहैं एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥

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