Dec 31, 2010

विदाई को मन नहीं चाहता फिर भी नए का स्वागत है

         कुछ ऐसा भी है जो सबसे परे है, अपार है, विशाल है, अद्भुत है... जो लोग सोचते हैं कि वे बड़े हैं, वे बड़े हो भी सकते हैं और नहीं भी....मगर जो लोग ये नहीं सोचते हैं उनके बारे में दूसरे सोचते हैं कि शायद वे बड़े हैं...कुछ  उन्हें दिल से बड़ा मान लेते हैं तो कुछ उनके बड़प्पन से खौफ खाए अपने बोनेपन के एहसास से त्रस्त किसी न किसी तरह उन्हें छोटा साबित करने की चाह में उन्हें कुछ और बड़ा बना देते हैं.

         मैं आज अपने कुछ बड़ों के बारे में बात करना चाह रहा हूँ और उनमें सबसे पहले उस बड़े भाई, मित्र, मार्गदर्शक और गुरु की बात करूंगा जो अपने बेदाग़, बेजोड़, बेहद अनुशासित और गौरवपूर्ण सेवाकाल के बाद वर्ष 2010 के इस आखरी दिन  सेवामुक्त हो रहे हैं. उनसे पहली मुलाक़ात मुंबई में 1990 में हुई थी. वे एंटोप हिल में रहते थे. उनसे मेरी मुलाक़ात मिस्टर एंड मिसेज़ गुप्ता सकूरबस्ती वाले ने कराई थी. गुप्ता जी पर सकूबस्ती की पूरी छाप थी इसलिए उनकी हर बात के हज़ारों अर्थ हुआ करते थे. मैं तब तक  बहु अर्थी का महारथी नहीं था मगर मनोविज्ञान का छात्र होने के कारण ज्यादा चीजों में अच्छाई ढूंढा करता था. हम उनके घर गए थे और श्री जयप्रकाश जी से मिलने के बाद यह तय हो गया था कि उनसे मेरी यह अंतिम मुलाक़ात नहीं है और कभी होगी भी नहीं.
           मिस्टर एंड मिसेज़ सकूरबस्ती वाले के गिरगिटी स्वभाव के कारण ही शायद जयप्रकाश जी से मेरी मित्रता हुई. वैसे शर्माजी से भी परिचय और मित्रता के माध्यम सकूरबस्ती वाले ही थे. रंग बदलने वाले ये नहीं जानते कि वे समानरंगियों को मिलाने के अनजाने में ही माध्यम बनते चले जाते हैं.  
          भाभी जी के स्थानान्तरण के कारण जयप्रकाश जी हैदराबाद चले गए. मुझे बहुत ज्यादा जानकारी अपने कैडर वगैरा के बारे में नहीं थी उधर पांचवे वेतन आयोग की घोषणा हो चुकी थी. एस टी डी बहुत महँगी थी और वेतन बहुत कम मिलता था. वे तीन दिन की छुट्टी लेकर मुंबई आए और तीन दिन - तीन रात लगे रहकर हमने अभ्यावेदन तैयार किया.  
           यह अजीब विडम्बना है कि हम  चार लोग जो न्याय के लिए लड़े उन सभी के यहाँ केंसर से किसी न किसी प्रियजन की मृत्यु हुई. भाभी जी के स्वर्गवास के बाद वे अकेले  पड़ गए मगर पारिवारिक दायित्वों और कार्यालयीन दायित्वों को उन्होंने जिस सम्पूर्णता के साथ निभाया वह अपने-आप में एक उदाहरण है.  
          आज दुबे जी की भी याद आ रही है, मेरे रंगरेज़ मित्रों ने अपने अंग्रेज़ीपन के जरिए दुबे जी के मन में मेरी एक हिप्पीकट छवि बना दी थी. मेरे साथ यह अजीब संयोग है कि मेरे पेंटर मित्रों को अपने डेमों के लिए मुझसे बेहतर मॉडल नहीं मिल पाता है इसलिए मेरी हर रंग-ढंग की तस्वीरें वे आवश्यकतानुसार समय-समय पर जारी करते रहते हैं.  दुबे जी ने जयप्रकाश जी से इस बारे में बात की और उसके बाद दुबे जी का हर तरह का मार्गदर्शन मुझे मिला.   
          मुझे इस बात का सर्वाधिक दुःख है कि हमारे कैडर के सर्वाधिक काबिल अधिकारी को आज बिना उस मुकाम को पाए सेवानिवृत होना पड़ रहा है जिसके वे दशकों पूर्व हक़दार थे मगर भगत सिंह को भी तो बिना आज़ादी देखे जाना पडा था.  आज़ादी का सपना आज़ादी से कहीं ज्यादा सुकून देने वाला होता है.
          आज दिल्ली के आस-पास होते हुए भी मैं उनके विदाई समारोह में चाहकर भी नहीं जा पाऊंगा.  सच तो ये है कि  इस 2010 को जिसने ज्ञात-अज्ञात अनेक समस्याएँ भी दी हैं, विदा करने को मन नहीं चाहता  क्योंकि दफ्तर में बिना जयप्रकाश जी के आने वाला 2011 वो स्फूर्ति नहीं दे पाएगा. आने वाला  आकर रहेगा इसलिए उसका स्वागत तो करना ही है फिर भी ... आज उनकी विदाई के समय कपड़ों की रंगाई छोड़कर कुछ ऐसे अँग्रेज़ी की दीवार रंगने वाले रंगरेज़ भी हैं जिन्हें जयप्रकाश जी से, उनकी विद्वता, स्पष्टवादिता और न्यायप्रियता से आज भी  ईर्ष्या है और सदा रहेगी मगर वे भी अगर चाहें तो अब भी जयप्रकाश जी के सहारे सीखने की शुरुआत कर सकते हैं.
         गुरु को शिष्यों से कभी ईर्ष्या नहीं होती. 
   

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