Nov 10, 2010

तीन दिनों के दो बड़े अनुभव

एक बात खुशी की है और एक दुख की ... किसे पहले बताऊँ !!
        परंपरा का निर्वाह करना हमेशा कठिन रहा है और बेबाकी का खामियाजा भी खूब उठाया है। जो खामियाजा भुगता है वह दिखाई नहीं देता... मगर हर दिखाई न देने वाली चीज़ का कोई अस्तित्व ही न हो, यह तो नहीं माना जा सकता। कितने ही वायरस आम आदमी को दिखाई नहीं देते मगर उनके फैलाए जानलेवा रोग अच्छे अच्छों की छुट्टी कर देते हैं। अब यह तो हर आदमी का अपना शगल है याकि अदा है कि कोई चोट खाकर खुश है तो कोई घाव देखर शुकून का अनुभव करता है। 'आन' फिल्म के एक गीत की पंक्तियाँ हैं-"बेदर्द से ए दिल प्यार न कर, तड़पे जा यूंही फरियाद न कर... क्यूँ रहम करे कातिल ही तो है ...
         बहरहाल, कोरिन होर्नी के मनोवैज्ञानिक सिद्धांत को यहीं छोड़कर परम्परा का निर्वाह करने की कोशिश करते हुए मैं पहले आपको सुखद अनुभव से ही रूबरू कराता हूँ.
आज चेन्नै के एक प्राइवेट यानी गैर सरकारी  उच्चतर  माध्यमिक विद्यालय में लगभग दो घंटे तक चले हिंदी दिवस समारोह में शामिल होने का अवसर मिला. तमिलनाडु की राजधानी चेन्नै स्थित १८५२ में स्थापित इस विद्यालय के छात्रों ने हिंदी में कई सारगर्भित भाषण दिए, कई रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किए. न कोई लाग, न लपेट, न कोई रिपोर्ट भेजने की चिंता, न दिखावे की दिक्कत... सब कुछ बेहद सहज और सादगी भरा... दिलों  में अपनी हिंदी भाषा के प्रति श्रृद्धा  और अपनी अघोषित राष्ट्रभाषा के प्रति कर्तव्य का भाव. हिन्दू उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, ट्रिप्लिकेन, चेन्नै में आयोजित आज का हिंदी दिवस समारोह अच्छा लगा और महसूस हुआ कि हिंदी के प्रति लगाव के कारण भले ही कुछ समझदार लोग मुझे मूर्ख का दर्जा दें मगर हिंदी हारी नहीं है. हाँ, मैं जरूर अब कुछ बूढ़ा होने लगा हूँ. 
       दूसरा अनुभव सोमवार शाम का है. उस दिन यानी ८ नवम्बर को एक बड़े सरकारी अधिकारी को एक सरकारी बिल्डिंग के भूतल पर दो लोगों से एक बैनर दीवार के पास पकड़वाकर  फोटो उतरवाते हुए देखा.  बैनर पर लिखा था- 
"हिंदी पखवाड़ा समापन समारोह २०१०."
समारोह तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा था मगर बैनर का फोटो झूठ कैसे बोल सकता है भला!!      

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