Oct 21, 2009

लक्षद्वीप की सैर - 2

-अजय मलिक
पहाड़ , झरने, नदियाँ ... वहाँ इन सब की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। छोटे से हवाई अड्डे या कि छोटी सी हवाई पट्टी के दोनों ओर हल्का नीला सागर हिलोरें ले रहा था। द्वीप पर हर ओर सफ़ेद बालू बिखरी हुई थी। ऐसी बालू जिसमें हाथ गंदे होने का कोई खतरा नहीं था। सागर का पारदर्शी निर्मल मगर खारा लहराता पानी... एक अजीब सा आकर्षण था उसमें , नज़रें बरबस ही दूर तक उठती चली जाती थीं।

सुबह के दस या ग्यारह बजे होंगे। कुल पंद्रह बीस यात्री थे। दस मीटर घूमकर हवाई अड्डे से बाहर गए और फिर से भीतर आ गए। पूछताछ करने पर पता चला कि आगे की यात्रा हेलीकाप्टर से पूरी होगी। अस्सी रूपए का टिकट मुझे भी मिल गया। हेलीकाप्टर आया और आठ-दस यात्रियों को लेकर उड़ गया। मुझे फिर थोड़ा डर सा लगने लगा ... पता नहीं ये हेलीकाप्टर मुझे क्यों छोड़ गया? किसी ने समझाया-"चिंता मत करो अभी पंद्रह मिनट में आ जाएगा। पर्यटकों को बंगारम छोड़कर फिर आप सब को कवरत्ती ले जाएगा।

मैं पहले से ही कवरत्ती जैसे अटपटे नाम से परेशान था। अब एक और टेढ़ा सा शब्द बंगारम ! हेलीकाप्टर का बोर्डिंग पास लेकर फिर से अन्दर आ गया। हेलीकाप्टर में एक यात्री के लिए मात्र 10 किलो सामान ले जाने की अनुमति थी। मेरे पास अस्सी-पिचासी किलो सामान था। मुझे परेशान होता देख किसी ने कहा - "घबराइए नहीं, अगर आज नहीं तो कल आपका सामान पहुँच जाएगा।" मेरे खादी के कुर्ते-पाजामे के बेतुकेपन को समझ कर एक गोरे-चिट्टे, बेहद स्मार्ट सज्जन पास आए और मेरा हालचाल-परिचय वगैरा पूछने लगे। मैंने बड़े ही संकोच के साथ अपना परिचय और हाले-दिल बयान किया। वे खिलखिलाकर हंस पड़े। फिर बोले-"आइए, सामान-वामान की चिंता छोड़िए।"
मैं उनके साथ ही हेलीकाप्टर में बैठ गया। मेरा सामान आदि कैसे अपने आप लदा, इसका बयान करने की जरूरत नहीं है। सागर की अथाह गहराइयों का अहसास कराने वाला नज़ारा दिखाता हुआ हेलीकाप्टर हमें तीर की तरह उड़ा ले चला। रास्ते में उन्होंने अपना पूरा परिचय दिया- " मेरा नाम के.के.शर्मा है, मैं यहाँ कलेक्टर-कम-डिवेलपमेंट कमिश्नर हूँ।"
मैं हैरान रह गया...
पंद्रह मिनट में हम लोग कवरत्ती पहुँच गए। शर्मा जी की जीप में मुझे और मेरे सामान को भी जगह मिल गई थी। उन्होंने मुझे सर्किट हाउस में उतार दिया और वहां रहने का प्रबंध भी करा दिया। सब कुछ अपने आप होता जा रहा था।
नारियल के पेड़ों की छाँव में छोटी छोटी पगडंडियों से चलते हुए कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। जो भी मिलता हल्की सी मुस्कान पीछे छोड़ जाता। शाम को चलते-चलते दूर निकल आया था। कहीं से बड़े-बड़े इंजिनों के चलने की आवाज आ रही थी। मैं उसी दिशा आगे बढ़ गया । पास जाने पर देखा - बिजली के जेनरेटर चल रहे थे। उस छोटे से गांवनुमा कसबे में जिसे लक्षद्वीप की राजधानी या सचिवालय कहा जाता था, विद्युत आपूर्ति इन्हीं जनरेटरों से होती थी। शाम होने को थी इसलिए मैं लौटने लगा। रास्ता और पगडंडियाँ कुछ नई सी लग रही थीं। मैं रास्ता भटक गया था। मैं चलता गया और आधे घंटे में ऐसी जगह पहुँच गया जहां से सर्किट हाउस साफ़ नज़र आ रहा था। वास्तविकता ये थी कि पहाड़, झरने, नदियों से अछूता यह टापू केवल इतना ही बड़ा था कि तेज चलते हुए मात्र दो घंटे में इसकी परिक्रमा की जा सकती थी। उस समय वहां की कुल आबादी मात्र सात या आठ हजार थी। पूरे टापू पर कौआ या कुत्ता कहीं नज़र नहीं आया था। केवल दो ही ऐसी इमारतें थीं जो दो मंजिला थीं। न कोई सिनेमा, न थियेटर... चाय की एक दो दुकाने जो नारियल के खपच्चों पर टाँगी गई चादर के नीचे मिल्क पाउडर से बनी चाय, कांच के बेहद तंग गिलास में उपलब्ध कराती थीं. अगले दिन मैं सबसे बड़ी दो मंजिला इमारत में ...
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