Jul 29, 2009

"गुमनामी के नाम" - अशिष्ट

(आज से हम एक उपन्यास "गुमनामी के नाम" की शुरुआत कर रहे हैं. इस उपन्यास की किस्तें मासिक रूप से प्रकाशित की जाएंगी. इस उपन्यास के लेखक ने अपना नाम "अशिष्ट" बताया है. जाहिर है वास्तव में ऐसा कोई नाम संभव नहीं है. शायद लेखक को सभ्य समाज की किसी असभ्यता से शिकायत है. हमें लेखक द्वारा जैसे और जब भी आगामी अंश प्राप्त होंगे हम उन्हें प्रत्येक माह की २९ तारीख या उससे पहले किस्तवार प्रकाशित करते जाएंगे ।)

गुमनामी के नाम


"मगर मामा वो रेलगाड़ी...आज तो मैं देखकर ही रहूँगा." कहते-कहते शान मचलने लगा था. मामा यानी निहार, शान से उम्र में बस दो साल बड़ा मगर जबरदस्त जादूगर अच्छी तरह जानता था कि शान को रेलगाड़ी दिखाने का मतलब है अपनी जमी जमाई साख को स्वाहा कर देना.
 शान के मचलने को नज़रअंदाज कर उसने रोज की तरह एक ही झटके में उस छोटी सी अलमारी को बंद कर ताला डाल दिया. बरसों बीत गए मगर वह रेलगाड़ी शान को कभी देखनी नसीब नहीं हुई. वह घेर और घर भी कब के बड़ी-बड़ी इमारतों के नीचे दफ़न हो गए जिन की मिट्टी की मोटी दीवार में बनी अलमारी में पाताल तक जाती तिलिस्मी रेलगाड़ी का रहस्य कैद था. शान को आज भी निहार की उन जादू भरी बातों का अंदाज बैचेन कर देता है . वह सोचता है काश कि वाकई उस अलमारी में वह रेलगाड़ी होती और वह उसे सिर्फ़ एक बार देख पाता. कितना अच्छा लगता था उस बेतुकी उम्मीद के सहारे रोज सुबह उठकर चुपके से घेर में भाग जाना और भूसा भरे उस कच्ची मिट्टी के कोठे के ताले को खोलकर रेलगाड़ी वाली अलमारी को निहारना. थोडी लम्बाई और होती तो जरूर वह अलमारी का ताला तोड़कर रेलगाड़ी में चढ़ जाता और फ़िर तो बस मजे ही मजे होते ...

गर्मी की छुट्टियां यूंही बीत जाया करती थीं. निहार के लगाए गैंदे के उस छोटे से बगीचे में ढेर सारे फूल होते थे . शान को हर बात की इजाजत थी. जितने चाहे उतने फूल वह तोड़ सकता था. निहार की हर चीज़ उसके लिए मोजूद होती. बस अलमारी की चाबी उसे कभी देखनी तक नसीब नहीं होती. मौसी ने कई बार निहार से कहा था "क्यों इसे परेशान करता है . झूठ बोलकर क्या मिलता है तुझे!" मगर शान को मामा पर जितना भरोसा था उससे कहीं ज्यादा भरोसा रेलगाड़ी के होने का था. दिन में ट्यूबवैल पर जाते हुए रेलवे लाइन पार करनी होती थी. छुक-छुक करती आती रेलगाडी को पास से देखने के लिए कितनी तेज़ी से दौडा करते थे . अक्सर रेलगाड़ी पहले ही निकल जाया करती थी . यदि कभी पहले पहुँच जाते तो पटरी के पास के पत्थर उठाकर रेलगाडी में मारने में बड़ा मजा आता. नाना हौले से डांटते मगर तब शान मौसी की गोद में समा जाता. माँ से कहीं ज्यादा प्यारी थी मौसी. जब छुट्टियां ख़त्म होतीं तो शान अपने गाँव लौट जाता. उस दिन मौसी घंटों रोया करती. मौसी जो सबसे सुंदर थी, उन दिनों बेहद उदास रहती. कई बार माँ ने शान को बिना छुट्टियों के भी ननिहाल भेजा था ताकि मौसी की उदासी दूर हो सके. फ़िर जब मौसी की शादी हो गई और मौसा थोड़े-बहुत चौधराहट वाले आदमी निकले तो सब कुछ बदल गया . मौसी का सौन्दर्य सूख गया . जब तक मौसा की सुधबुध लौटी तब तक ज़माना बदल चुका था . मौसी की सोच बदल चुकी थी .

रेलवे लाइन के पास जाने में डर लगता था क्योंकि वहा भूत रहता था . दूर से पटरी पर शान को कई बार निहार ने भूत दिखाया था. वह बड़ी जल्दी अपना रूप बदल लिया करता था. एक बार एक सांड के रूप में देखा था तो पलक झपकते ही उसने गधे का रूप धर लिया था. फ़िर मामा ने जब आँखे खोलने का इशारा किया तो वह लंगडा आदमी बन चुका था. शान और निहार दोनों उस दिन वहाँ से बचकर भाग आए थे. भूत से डर तो लगता था मगर मामा का बताया हुआ एक उपाय भी था भूत से बचने का . निहार कहता था जैसे ही भूत दिखे अपनी चोटी पकड़ लो भूत पास नहीं आएगा. शान जल्दी से चोटी पकड़ लिया करता और भाग आता. भूत ने बहुत कोशिश की पर शान का कुछ नहीं बिगड़ पाया . बस कई बार चोटी ज़ोर से खिंच जाने से दर्द होता मगर जान के बदले यह बड़ी ही मामूली सी बात थी.
चालीस बरस बाद मामा निहार से क्या रिश्ता बचा इसका पता न शान को था न निहार को . मौसी ने गाँव की औरतों के बीच आह भरते हुए कहा था " अरी बीबी, बेटे ने जहर का इंजेक्सन लगवा दिया अस्पताल में... जीजा जी तभी वहाँ से अगले ही दिन चले आए, जिस माँ ने इतना कुछ किया उसी को ज़हर का इंजेक्सन..." इसके आगे मौसी की बस सुबकियां भर ही सुनाई दी थीं . आखरी बार मामा निहार शान की माँ की मृत्यु के बाद आए थे उसके बाद उनसे मुलाक़ात नहीं हुई . निहार की अपनी सोच थी और बड़ी पक्की थी.

दस- ग्यारह की उम्र की कुछ रोमांटिक बातें भी हुआ करतीं . मामा -भांजे में खूब पटती. ऐश करने के बड़े-बड़े सपने, जिनमें शादी न करना पहली शर्त थी. ये और बात है कि ले दे कर निहार इंटर फेल हो गया और नानी ने उसकी शादी कर दी . तब नाना की तबियत थोड़ी गड़बड़ रहने लगी थी. निहार से बड़ा भी एक मामा था जिसे शादी के बाद वैराग्य ने घेर लिया था . वह जब चाहता गायब हो जाता. महीनों बाद उसका पता चला करता . वापस आकर भी वह अपनी दुनिया में मस्त रहता. दुनिया अपनी अबाध गति से चलती जाती.

नाना की भलमनसाहत ऐसी कि एक बार वैरागी मामा की साइकिल उठाए मीलों चलते रहे . पैडल से पूरा पैर ज़ख्मी हो गया मगर न पैर संभाला जा सका न साइकिल छोड़ी जा सकी . फ़िर एक दिन नाना नहीं रहे . निहार की पत्नी ने सब कुछ संभाल लिया . फ़िर एक दिन नानी भी स्वर्ग सिधार गईं .
इंटर में फेल होने के बाद निहार ने एक बरस तक खेती की. घर बार गृहस्थी को समझा परखा . तब तक शान भी इंटर कर चुका था . गाँव में तो बस प्राइमरी पाठशाला भर थी . पास के गाँव में इंटर कालेज था . इसके बाद अगर कुछ होता था तो वह बीस मील दूर शहर में होता था. इंटर को बारहवीं कहते थे . इसलिए उसके आगे तेरहवीं की पढ़ाई के लिए शहर जाना होता था . मौसी ने कहा था - "सोलहवीं पास करने पर आदमी पागल हो जाता है." मगर वैरागी मामा ने तो सोलहवीं नहीं की है न मौसी - फ़िर वे क्यों पागल हो गए ? इसका जवाब मौसी के पास नहीं होता था.

तेरहवीं का कालेज बहुत बड़ा था। इतना बड़ा भी कालेज होता है शान ने नहीं सोचा था . शहर ननिहाल के पास था . निहार, शान और वो तीसरा विनोद ...मामा का गाँव का दोस्त ॥ शान का भी दोस्त.. विनोद के पिता शान के नाना हो गए और माँ बन गई नानी मगर विनोद सिर्फ़ विनोद रहा. भविष्य से जुड़े हर सपने का साथी विनोद भी हुआ करता था . बड़े कालेज में तीनों ने एडमिशन का चक्कर चलाया था. दो इंटर पास थे मगर तीसरा इंटर फेल था. तीनों ही तेरहवीं में दाखिला चाहते थे . तीनों का दाखिला हुआ भी परन्तु होनी को कुछ और ही मंजूर था ...खेती और घर दोनों की ही जिम्मेदारी इतनी बड़ी बन गई की निहार के लिए तेरहवीं की एक भी क्लास में आना संभव न हो सका . कालेज में आने का मतलब होता था अभूतपूर्व आज़ादी. क्लास में जाने का मतलब होता था क्लासरूम के बल्ब फोड़ना और किसी को चुपके-चुपके देखना. बल्ब फोड़ने से क्या मिलता था ये तो नहीं मालूम मगर एक रोब जरूर जम जाता था शहर के चिकने -चुपड़े लड़कों पर . लड़कियां भी कभी कभार हैरत से ये रोबीला करतब देखा करतीं. वे क्या सोचतीं थी ये तो वो ही जाने मगर शान और विनोद को लगता था कि बस सब कुछ ठीक हो गया यानी जादू चल गया.

इस बड़े कालेज के बाहर एक बड़ा सिनेमा घर था जिसमें कालेज के लड़कों की मुफ्त आवाजाही गाहे-बगाहे हो जाती थी . फिल्में देखना, मस्ती में साइकिल चलाना और कुछ विशेष रिक्शाओं का पीछा कर उन्हें पछाड़ देना ये विनोद और शान का सबसे बड़ा शगल था. दोनों को नहीं पता था कि कब किस क्लास में कौन पढ़ाने आया और क्या पढाया गया. तेरहवीं के छ: माह पूरे होने पर पता चला कि वे दोनों बी. ए. के छात्र थे और पहले सेमिस्टर की परीक्षा शुरू हो चुकी थी. किताबें कम थीं लिहाजा परीक्षा के समय भी उन्हीं से काम चलाना पड़ा. बी.ए. का परिचय पत्र निहार के पास भी था क्योंकि सिनेमा के टिकट के लिए उसका बड़ा महत्त्व था. परीक्षा के दिनों में परीक्षा हाल में निहार के हाथों में सारी कामचलाऊ किताबें थीं. विनोद और शान के बीच बैठकर वह बोलता जाता और वे लिखते जाते . तीन चार घंटों में पाँच में से चार-साढ़े चार सवाल जरूर पूरे हो जाते . किसी भी प्रोफेसर की हिम्मत न थी कि परीक्षा हाल में अन्दर झाँक भी जाए . अराजकता के इस दौर ने कालेज की जिंदगी को चाहे कितना ही अकल्पनीय बनाया मगर साल बीतते-बीतते सब कुछ बदल गया . शायद विनोद का सभी परचों में फेल हो जाना ही सबके लिए हितकारी साबित हुआ. अगर वह पास हो गया होता तो शान और निहार का जिक्र करने की भी जरूरत नहीं पड़ती. तीनों के लिए वह दिन कितना भाग्यशाली था जब उनका साथ छूटा.

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