-अजय मलिक
नासूर बनकर
पाताल के किसी अंधेरे कौने में
जा बसी है ये उदासी मेरी
खरपतवारों से पटे
खेत की मेढ़ पर
बस दो-चार बचे हैं
बरसिम से पौधे
किसी उम्मीद के धोखे में
राह तकते
लंबाई से भी लंबी
हो जाती हैं रातें
ज़ख्म गहरे हैं
मगर न रोने की रियायत है
न आह भरने की इजाजत है
किसी चौराहे पर
रंगीन पोस्टरों के बीच
एक बीते साल का कलेंडर हूँ मैं
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