(अजय मलिक की एक नई कविता )
ये हवा ...
मदहोशी से पुर ज़ोर बहती
इस हवा से क्या कहूँ?
भूली दिशा, दर्शन, वतन
परदेश में घर छोड़ आई
सीधी गली के मोड़ पर
सन-सना-सन सनसनाती
समंदर से मुँह मोड़ सूखी
इस हवा से क्या कहूँ?
लोभ से लब तक लबालब
झूठ का परचम उठाए
रात दिन दम ठोकती
और दनदनाती दसोंदिश
बौखलाहट से भरी, रीती
सिकुडती, काँपती थर-थर
थकी-हारी, अवश फुंकारती
इस हवा से क्या कहूँ?
मैं कौन!!
मैं समंदर, आ गले मिल ।
ले नशीले मेघ,
ले जाकर इन्हें,
भर दे धरा की गोद
और फिर झूम,
रूम-झुम नाचती मखमल भरी,
उन क्यारियों में ।
कोयलों की कूक से
भर जाएगा हर छोर।
गति मोड़कर हट छोड़
बन पुरवा सहला पलक के पोर
मैं समंदर, आ गले मिल...
अरे ए हवा .
अच्छा लिखा है आपने। भाषिक संवेदना प्रभावित करती है।
ReplyDeleteमेरे ब्लाग पर राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के संदर्भ में अपील है। उसे पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया देकर बताएं कि राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने की दिशा में और क्या प्रयास किए जाएं।
मेरा ब्लाग है-
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