Sep 24, 2010

हिंदी और मैं

-अजय मलिक

नासूर बनकर
पाताल के किसी अंधेरे कौने में
जा बसी है ये उदासी मेरी


खरपतवारों से पटे
खेत की मेढ़ पर
बस दो-चार बचे हैं
बरसिम से पौधे

किसी उम्मीद के धोखे में
राह तकते
लंबाई से भी लंबी
हो जाती हैं रातें

ज़ख्म गहरे हैं
मगर न रोने की रियायत है
न आह भरने की इजाजत है

किसी चौराहे पर
रंगीन पोस्टरों के बीच
एक बीते साल का कलेंडर हूँ मैं

2 comments:

  1. बहुत बढ़िया कविता।

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  2. आपने हिन्दी का कार्य जिस साहस और प्रतिबद्धता से किया है और कर रहे हैं वह स्तुत्य है। मैं आपको उतना नहीं जानता,पर थोड़ा-बहुत सुना है आपके बारे में। आप सचमुच सपूत हैं क्योंकि आप लीक छोड़कर चल रहे हैं, जानते हुए भी अपने दुश्मन बनाए हैं।

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