Dec 27, 2016

तुझे याद है, भूल गया मैं !

मेरे कविता संग्रह "कोई हँसी बेचने आया था" की तीसरी महत्वपूर्ण रचना प्रस्तुत है-

तुझे याद है
भूल गया मैं !


तेरी आँखों का
निर्मल जल
हरदम हँसता
वो कोमल मन
अरे सलोनी
क्या कहती थी-
घास फूँस
मिट्टी सा जीवन !


मन में पर्वत
धँसा लिया था
अटल चेतना
खूँटे जैसी
कण कण
तुझको
बसा लिया था
तुझे याद है
भूल गया मैं !


पल पल
धरती घूम रही है
हर चक्कर पर
झूम रही है
अपना भी
चक्कर आएगा
किसे पता है
इस दुनिया में
कौन कहाँ कब
रह जाएगा !
तुझे याद है
भूल गया मैं !


यह काया तो
धरी धरा संग
मन परवश
यह चिर यौवन
पर्वत को भी
पिघलाएगा
और अचानक
उड़ जाएगा
जब तक
धरती को भाएगा
कहीं दूर
किस ग्रह के
तल में
फिर चेतन हो
मुसकाएगा


तेरी यादें
तेरे संग हैं
तेरे सपने
मेरी यादें
तेरे संग हैं
मेरे सपने
बस तब तक
जब तक हम
इस धरती पर हैं


तुझे याद है
भूल गया मैं !
मुझे याद है
भूल गया मैं !

- अजय मलिक (c)

जो सुख मिले


अज्ञेय जी की उपर्युक्त कविता पर आधारित कुछ पंक्तियाँ

जो सुख मिले
वो कह दिये
जो दुख मिले
वो भी कहे
और सह लिये


हर स्निग्ध अनुभूति के
हरेक स्पर्श को
हमने जिया
हर नदी के
संग संग

बह लिए

आधे थे और
अधूरे ही रहे
यों बीते दिन
बीते, पर हम
सदा रीते ही 

रह लिए

न चाहकर भी
अनचाहे बने
पर मिट न सके
कभी किसी भी
आँख में हम
टिक न सके


सागर तट
की चाह में
हम बेबस
बरसों बरस
जिये, ज़ख्म
सह लिए

 
-अजय मलिक (c)

आने दे कुछ याद उसे भी

कविता संग्रह "कोई हँसी बेचने आया था..." की दूसरी प्रमुख कविता

आने दे कुछ याद उसे भी
मन वैरागी रोना छोड़
कौन तेरा वो अपना मन है

उसका मन है उसकी ताने
क्यों रूंठा है वो ही जाने
अपना तो दिल साफ़ सुबह सा
रात विरह की फिर बीतेगी
निकलेगा हर तह का तोड़

मन वैरागी रोना छोड़
आने दे कुछ याद उसे भी

सबकी क़िस्मत लिखी हुई है
चौपड़ पग पग बिछी हुई है
हार जीत दोनों संग आते
जिसको जो मिलना वो पाते
तू क़िस्मत का तकना छोड़

मन वैरागी रोना छोड़
आने दे कुछ याद उसे भी

अगर साज सचमुच सच्चा है
सरगम से क्या घबराएगा
पत्थर दिल धड़केगा कैसे
तन भी पत्थर हो जाएगा
एक तार बस फिर से जोड़

मन वैरागी रोना छोड़
आने दे कुछ याद उसे भी
कौन तेरा वो अपना मन है

-अजय मलिक (c)

Dec 25, 2016

कोई हँसी बेचने आया था...

मित्रों, इस कविता को पूरा करने के प्रयास में लगभग बत्तीस महीने लग चुके हैं। यह मेरे कविता संग्रह "कोई हँसी बेचने आया था" की शीर्षक कविता होगी । कृपया पसंद आए तो आशीर्वाद दें। ...
-अजय मलिक

कोई हँसी बेचने आया था
और दर्द थमाकर चला गया
जीने की तमन्ना थी हमको
वो मौत थमाकर चला गया

कुछ दूर चला बहलाने को
फिर दिशा बदल ली जाने को
देकर सपने, जन्नत दिखला
ख़ुदगर्ज़, सताकर चला गया

लिख हर पत्ते पर नाम अपना
टूटे दिल का बनकर सपना 
कुछ पल संग में हँसकर गाकर
तकलीफ़ बढ़ाकर चला गया

कट जाती थीं शामें वीरानी
पी लेते थे चुप हर नाकामी
कर चकाचौंध, महफ़िल सुलगा
वो जाम चुराकर चला गया

हमने जब सीना चाक किया
उसकी ख़ातिर सब ख़ाक किया 
तब वो पत्थर दिल चाँद मेरा 
घुप रात थमाकर चला गया

कोई हँसी बेचने आया था
और दर्द थमाकर चला गया

अजय मलिक (c)

Dec 22, 2016

अक्तूबर से दिसंबर तक 2016

अक्तूबर 2016 में चेन्नई से आया था । कई मित्रों से मिलना संभव नहीं हो सका था। कुछ बेहद व्यस्त थे और मिल पाने में असमर्थ थे । अक्तूबर 2016 दुबारा नहीं आएगा और आना चाहिए भी नहीं क्योंकि यह उतना प्रीतिकर...उतना सुकून भरा नहीं था, जितना इसे होना चाहिए था । कोलकाता आकर एक अंधी गली की कभी न खत्म होने वाली दौड़ में शामिल हो गया । दिवाली पर शायद पहली बार हमारे बच्चे अकेले रहे । मैं कोलकाता में, पत्नी गाजियाबाद में, बेटी हॉस्टल में और बेटा चेन्नई के घर में। बहुत कम लोगों को शुभकामना संदेश भेजे... और मिले उनसे भी कम । कुछ ऐसे मित्र जो कभी नहीं भूलते थे वे भी भूल गए ।
खुद को काम में डुबा देने के सिवाय दूसरा कोई चारा भी न था। सिर पर काम आया भी इतना था कि कल्पना नहीं की जा सकती। पच्चीस शहरों में अस्सी निरीक्षण और दिन सिर्फ पाँच जो बढ़कर नौ हो गए थे। नवंबर की शुरुआत दुखद रही ...यहाँ भी कल्पना से परे कुछ ऐसा घटित हुआ कि स्वास्थ्य पर असर डाल गया। किसी भी स्थिति में रक्तचाप से बचा रहने वाला आदमी अचानक उच्च रक्तचाप का शिकार हो गया। मन हुआ कि सब छोड़-छाड़ कर वापस चेन्नई लौटा जाए। 16 नवंबर तक चक्कर खाते सिर के साथ घूमता रहा और मन के बिना यानी बेमन से...
1986 में हिन्दी आंदोलन से जब पूरी तरह जुडा था तब कभी पछतावा होगा यह नहीं सोचा था मगर नवम्बर 2016 में वे दिन याद आए जब पहली बार राजभाषा कार्यान्वयन में आया था...तीस साल बाद मुझे लगा कि मैं हार गया हूँ ... दुनिया से, हिन्दी वालों से, अपने मन से और तन से भी ...
मैं सिवाय समय के किसी को दोष नहीं देना चाहता मगर यदि ऐसे ही चलता रहा तो सब समाप्त हो जाएगा...अपनी भाषाएँ हम बचा नहीं पाएंगे।
बच्चों के जन्मदिन एक से तीस नवंबर के बीच पड़ते हैं ... इस बरस पहली बार बच्चों के जन्मदिन पर माता-पिता साथ नहीं रहे।
दिसंबर तो दिल दहला देने वाला निकला... चेन्नई के ऐसे-ऐसे दरख्त ढह गए, जिनके कभी हिलने की भी संभावना नहीं थी। तूफान ने सब लील लिया। कई बार कोई संदेश तक नहीं मिला... तूफानी हवाएँ अनेक शीशे के शामियाने उड़ा ले गईं...  कुछ स्टील के स्तंभ जिनकी नींव बेहद पुख्ता थी वे भी उखड़ गए। मन, जब टूटने पर आया तो टूटता ही चला गया, सब कुछ बिखर सा गया।
ये दिसंबर भी बीत ही जाएगा... बस इतना ही कहूँगा कि वर्ष 2016 एक घाव सा दे गया । भरोसा कई जगह से टूटा । 2017 की शुरुआत चेन्नई से करूंगा...कुछ साँसे फिर सँजोऊंगा , शायद कोई रास्ता निकले ।
बार बार लगता है कि नौकरी की यात्रा के थमने का वक्त आ गया है।
-अजय मलिक          

तू रुख़ बदल ...

तू रुख़ बदल
राहें बदल
मन की सब
चाहें बदल
 
दुनिया बदल
नज़रें बदल
तेवर बदल
बिछुए बदल
ज़ेवर बदल
 
ये भी बदल
वो भी बदल
जो भी बदल
जमकर बदल
सब कुछ बदल
 
पर ना बदल
चुपचाप यूं
 
कहकर बदल
खुलकर बदल
मिलकर बदल
 
मुझको बदल
खुद को बदल  
                                                                                     -अजय मलिक (c)

Dec 21, 2016

एक लघु कथा - "बैंच"

बैंच

                    -अजय मलिक (c) 


अस्सी साल की उम्र कम नहीं होती और वह हँसते -हँसते कब पचासी पार कर गई, पता ही नहीं चला। हर सुबह पार्क की इसी बैंच पर आकर घंटों बैठ कर वह चलती-फिरती ज़िंदगी को देखती रहती है। बैंच भी उसी की तरह बुढ़ा गई है मगर उसके चेहरे की तरह झुर्रियां नहीं आई हैं। बैंच घिसकर चमकने लगी है, वह होले से बैंच के चिकनेपन को महसूस करने के लिए खुरदुरी सूखी अंगुलियों से सहलाती है।

दस साल हो गए पति को गुज़रे। तब कभी-कभी दोनों इस बैंच पर आकर बैठते थे, तब अंगुलियों में इतना खुरदरापन नहीं था। पति ने कभी उन अंगुलियों पर ध्यान नहीं दिया। उसने कभी इसकी शिकायत भी नहीं की। चालीस बरस पहले किसी ने कहा था-तुम्हारी ये कोमल अंगुलियाँ कितनी सुंदर हैं, हमेशा हँसती रहती हैं। तब से वह ख़ुद भी हँसने लगी। एक दिन हँसते -हँसते वह बोल पड़ी- अगला जन्म तुम्हें सौंपती हूँ, इस जन्म का हिसाब तो औरों ने कर दिया...अब बाकी कुछ भी नहीं है।

जाने क्यों वह जीना नहीं चाहता था और अगले जन्म की भी चाह नहीं रखता था। उसकी अंगुलियों के हँसने का राज बताकर चुपके से बहुत जल्दी चला गया। पति को कभी उसके हँसने का रहस्य पता नहीं चल सका।

वह अभी भी जीते रहना चाहती है दो जन्मों के बराबर। उसे उन दोनों के लिए इसी जन्म में जी लेना होगा। हँसते-हँसते उसका अन्तर्मन कितना चिकना हो गया है, ठीक इस बैंच की तरह। हँसी की इस चादर पर कोई दुख नहीं ठहरता...