Apr 4, 2013
Apr 3, 2013
गीले मौजों के कैदी
[1]
[2]
बहुत पीछे छूटा
डिबिया से डरता
वो घुप्प अँधेरा
जन्नत से बेहतर
छप्पर की छाया
वो शीतल हवा में
सँवरता सवेरा
अँधेरे में ज़ोरों से
दिल का धड़कना
वो बूकल में ठिठुरी
उंगलियों का अकड़ना
गीले मौजों के कैदी
पावों का फटना
वो पाती की पट-पट
सुनता सन्नाटा...
वो सिर का मुड़ासा…
वो सांकल खटकना...
[2]
अब
घुप्प अंधेरे को
नज़रें तरसती हैं
उंगली की पोरें
अकड़न को मरती हैं
क्यों आँखों में चुभता
ये तीखा उजाला
क्यों खामोश है दिल
कहाँ कमली वाला।
कहाँ कमली वाला...
-अजय मलिक (c)
